विचार: अफगान महिलाओं की अनदेखी, सऊदी अरब से सीखे अफगानिस्तान
एसएमई मालिकों में लगभग आधी संख्या महिला उद्यमियों की है। इसके विपरीत तालिबान शासन अपनी महिला आबादी को लगभग पूरी तरह से शक्तिहीन करने को उचित ठहराने के लिए शरिया का हवाला देता है। सऊदी अरब ने भी कुरान और सुन्नाह (पैगंबर मुहम्मद की परंपराओं) को देश का संविधान घोषित किया है।
HighLights
- <p>तालिबान शासन में महिलाओं की दुर्दशा</p>
- <p>सऊदी अरब में महिलाओं की स्थिति में सुधार</p>
- <p>शिक्षा और रोजगार में महिलाओं की भागीदारी</p>
संध्या जैन। दिल्ली स्थित अफगान दूतावास में 10 अक्टूबर को अफगानिस्तान की तालिबान सरकार के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी की प्रेस कांफ्रेंस से महिला पत्रकारों को बाहर रखने पर हंगामे का सकारात्मक प्रभाव यह हुआ कि मुत्ताकी ने 12 अक्टूबर को एक और बैठक आयोजित की और उसमें महिला पत्रकारों को भी शामिल किया। इसमें महिला पत्रकार पूरी शान से आगे की पंक्ति में बैठीं। 12 अक्टूबर की बैठक भारतीय महिला पत्रकारों के लिए एक जीत है, लेकिन हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि अफगान महिलाओं और लड़कियों की स्थिति ठीक नहीं है। उनकी स्थिति समस्त इस्लामी जगत से आत्मचिंतन की मांग करती है।
विशेष रूप से 2021 के बाद से तालिबान शासन में महिलाओं की दयनीय दशा को देखते हुए। जहां तालिबान शासन में अफगान महिलाओं की स्थिति दयनीय है, वहीं सऊदी अरब (जहां इस्लाम जन्मा) में महिलाओं की स्थिति सुधर रही है। तालिबानी शासन में शरिया कानून के तहत लड़कियों को स्कूली शिक्षा के साथ उच्च शिक्षा, रोजगार और सार्वजनिक जीवन से वंचित रखा गया है। वे पुरुष अभिभावक के बिना घर से बाहर नहीं जा सकतीं।
उन पर थोपे गए बुर्के से उनकी स्वतंत्रता सीमित होती है। अफगान विश्वविद्यालयों में महिलाओं द्वारा लिखी गई पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। इसके साथ ही मानवाधिकारों, लैंगिक अधिकारों, संवैधानिक कानूनों आदि पाठ्यक्रमों पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है। यह अफगान महिलाओं के लिए वस्तुतः पाषाण युग है। इसके विपरीत सऊदी अरब में महिलाओं ने पिछले कुछ वर्षों में कई सकारात्मक बदलाव देखे हैं।
वर्ष 2018 में सऊदी महिलाओं को गाड़ी चलाने की अनुमति दी गई और 2019 में 21 वर्ष से अधिक आयु की महिलाएं पासपोर्ट के लिए आवेदन करने लगीं। उन्हें पुरुष अभिभावक की अनुमति के बिना यात्रा करने की भी आजादी मिली। 2021 से महिलाओं को बिना किसी पुरुष रिश्तेदार के हज करने के लिए मक्का जाने की अनुमति दी गई, बशर्ते वे अन्य महिलाओं के साथ यात्रा कर रही हों। सऊदी पारंपरिक सिद्धांत के अधीन प्रत्येक महिला का एक पुरुष संरक्षक होता था, जो उसकी ओर से निर्णय लेता था।
इस तरह वे पिता, पति, भाई, पुत्र आदि के संरक्षण में रहने को विवश थीं, लेकिन 2019 से 21 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं को स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और राज्य सेवाओं तक पहुंच प्राप्त करने, नौकरी करने या गर्भावस्था और जन्म के बारे में चिकित्सा निर्णय लेने के लिए अभिभावकों की मंजूरी की आवश्यकता नहीं रह गई। इसके बाद भी उन्हें विवाह, तलाक या आश्रयस्थलों को छोड़ने के लिए अभिभावक की सहमति अब भी चाहिए।
यदि पुरुष अभिभावक अन्याय करते हैं तो महिलाएं अभिभावकत्व के हस्तांतरण की मांग कर सकती हैं। सऊदी अरब में विवाह के लिए न्यूनतम आयु 18 वर्ष है। हालांकि कुछ परिस्थितियों में अदालतें कम उम्र की लड़की से विवाह की अनुमति दे सकती हैं। पति मौखिक रूप से अपनी पत्नी को तलाक नहीं दे सकते। गौर करें कि भारत में ऐसा करने देने की अनुमति जारी रखने की मांग की जा रही थी और तीन तलाक पर रोक के बाद भी मौखिक तलाक के मामले आते रहते हैं।
सऊदी अरब में 15-24 वर्ष की आयु की सऊदी महिलाओं की साक्षरता दर 1992 में 57 प्रतिशत की तुलना में 2017 में 100 प्रतिशत के करीब थी। सऊदी विश्वविद्यालयों में नामांकित छात्रों में आधे से अधिक छात्राएं हैं। सऊदी महिलाएं प्रशासन से लेकर शिक्षा, अनुसंधान तक सभी क्षेत्रों में उत्कृष्टता हासिल कर रही हैं। यह सही है कि वहां लिंग भेद मौजूद है, लेकिन कुछ विश्वविद्यालय सह-शिक्षा पाठ्यक्रम प्रदान करते हैं। 2018 में सऊदी श्रम बल में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 15 प्रतिशत थी, लेकिन 2024 तक सक्रिय सरकारी नीतियों, बढ़ती शैक्षिक उपलब्धियों और महिला श्रमिकों की बढ़ती मांग के कारण यह 34.5 प्रतिशत हो गई है।
2017 में महिलाओं को अभिभावक की सहमति के बिना नौकरी के लिए आवेदन करने और अपना व्यवसाय शुरू करने की अनुमति दी गई। 2018 से खेलों में महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं। लगभग 70,000 लड़कियों ने देश की महिला स्कूल फुटबाल लीग देखी। सऊदी महिला प्रीमियर लीग में 10 टीमें हैं और खिलाड़ी प्रतिस्पर्धा के दौरान हिजाब पहनने या न पहनने का विकल्प चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। 2025 में सऊदी अरब में पहला 24 घंटे का महिला खेल टीवी चैनल लांच किया गया।
प्रिंस एमबीएस यानी मोहम्मद बिन सलमान के अनुसार महिलाओं को यह निर्णय लेने की स्वतंत्रता है कि वे काला अबाया (पूरा लबादा) और नकाब (पूरा चेहरा ढकने वाला घूंघट) पहनना चाहती हैं या नहीं? हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि भारत में मुस्लिम लड़कियों के लिए बुर्के को आवश्यक बताने वालों की कमी नहीं।
सऊदी अरब में लड़कियों की औपचारिक शिक्षा की शुरुआत 1955 में जेद्दा में दार अल हनान गर्ल्स स्कूल की स्थापना के साथ हुई। 1969 में सभी स्तरों की शिक्षा सभी के लिए निःशुल्क कर दी गई। शिक्षा पर ध्यान देने से विदेशी अध्ययन कार्यक्रमों में नामांकित छात्राओं की संख्या 15,675 तक पहुंच गई है। इसमे डाक्टरेट, मास्टर, स्नातक, डिप्लोमा भी शामिल हैं। सऊदी महिलाएं स्वास्थ्य सेवा, प्रशासन, आइटी क्षेत्र के साथ योग प्रशिक्षक के रूप में भी काम कर रही हैं।
एसएमई मालिकों में लगभग आधी संख्या महिला उद्यमियों की है। इसके विपरीत तालिबान शासन अपनी महिला आबादी को लगभग पूरी तरह से शक्तिहीन करने को उचित ठहराने के लिए शरिया का हवाला देता है। सऊदी अरब ने भी कुरान और सुन्नाह (पैगंबर मुहम्मद की परंपराओं) को देश का संविधान घोषित किया है। आखिर इस्लाम के नाम पर सऊदी अरब से भिन्न नीतियां और प्रथाएं अफगानिस्तान में कैसे लागू हो सकती हैं? बात अफगानिस्तान की ही नहीं है। भारत में ही बीते दिनों मुस्लिमों द्वारा मौलवियों के कठोर एवं महिला विरोधी निर्देशों का पालन करने के मामले सामने आए हैं। अफगान महिलाओं की दुर्दशा कहीं अधिक गंभीर है और इस्लामी दुनिया इसे नजरअंदाज नहीं कर सकती।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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