जागरण संपादकीय: जाति गिनने पर जोर, जातीय वैमनस्य पैदा करने की कोशिश
यह ठीक नहीं कि राहुल गांधी जातिगत गणना की मांग करते हुए जातीय वैमनस्य पैदा करने की भी कोशिश कर रहे हैं। उनकी यह कोशिश उसी खतरे को रेखांकित करती है जिसके उभरने की आशंका है। खतरा केवल इसका नहीं है कि जातिगत गणना के आंकड़ों के सहारे जातियों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश हो सकती है।
पटना पहुंचे राहुल गांधी ने जातिगत गणना पर जोर देते हुए जिस तरह यह कहा कि बिना इसके दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों का विकास नहीं होगा, वह इसलिए परेशान करने वाला है, क्योंकि यदि ऐसा है तो फिर जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते जातिवार गणना क्यों नहीं हुई? क्या राहुल गांधी यह कहना चाहते हैं कि कांग्रेस के शासनकाल में जातिगत गणना न कराकर दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को विकास से जानबूझकर वंचित किया गया?
क्या इस तथ्य से मुंह मोड़ना सही होगा कि स्वतंत्रता के बाद जातिगत गणना न होने के बाद भी इन वर्गों का न केवल उल्लेखनीय विकास हुआ है, बल्कि जातीय विभाजन भी कम हुआ है। राहुल गांधी जातिगत गणना की जिद पकड़ने के साथ जिसकी जितनी भागीदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी पर भी जोर दे रहे हैं। आखिर वंचितों, पिछड़ों के उत्थान और कल्याण के कार्यक्रम उनकी सामाजिक-आर्थिक हैसियत देखकर चलाए जाने चाहिए या फिर उनकी संख्या के हिसाब से?
यह ठीक नहीं कि राहुल गांधी जातिगत गणना की मांग करते हुए जातीय वैमनस्य पैदा करने की भी कोशिश कर रहे हैं। उनकी यह कोशिश उसी खतरे को रेखांकित करती है, जिसके उभरने की आशंका है। खतरा केवल इसका नहीं है कि जातिगत गणना के आंकड़ों के सहारे जातियों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश हो सकती है। खतरा इसका भी है कि जातिवादी राजनीति को नए सिरे से बल मिल सकता है।
इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अतीत में किस तरह कुछ राजनीतिक दल अपने-अपने हिसाब से चुनिंदा जातियों को गोलबंद करके राजनीति करते रहे हैं, भले ही इसके नतीजे में समाज में जातीय वैमनस्य बढ़ा हो। देश में कई राजनीतिक दल तो ऐसे हैं, जो जाति विशेष की राजनीति करते हैं। इससे इन्कार नहीं कि जातिगत गणना से यह पता चलेगा कि विभिन्न जाति समूहों की कितनी संख्या है, लेकिन यह माहौल बनाना ठीक नहीं कि देश की समस्त समस्याओं के समाधान की कुंजी जाति गिनने में ही है।
यह माहौल तो भारतीय समाज में उस विभेदकारी जाति व्यवस्था को और मजबूत बनाएगा, जिसे टूटना चाहिए और जो हाल के दशकों में एक बड़ी हद तक टूटी भी है। अच्छा होता कि बिहार यात्रा पर गए राहुल गांधी इससे अवगत होते कि एक समय इस राज्य में जातीय हिंसा किस तरह चरम पर थी। राहुल गांधी की मानें तो शासन तंत्र के साथ निजी क्षेत्र में सभी जातियों के समुचित प्रतिनिधित्व के अभाव-असंतुलन का कारण जातिगत जनगणना न होना है।
अच्छा होता कि वह यह बताते कि यह अभाव अथवा असंतुलन जाति गिनने से कैसे दूर हो जाएगा? राहुल गांधी यह तो कहते हैं कि अमुक-अमुक क्षेत्रों में दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों की हिस्सेदारी कम है, लेकिन क्या कांग्रेस के विभिन्न प्रकोष्ठों में उनकी समुचित भागीदारी है?
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।