शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में शामिल होने के लिए प्रधानमंत्री मोदी का चीन जाने का फैसला मात्र यह नहीं बता रहा कि भारत और चीन के बीच अविश्वास की खाई कुछ पटी है। यह इसका भी साफ संकेत है कि भारत ने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की बेतुकी टैरिफ नीति और भारत विरोधी रवैये का अपने तरीके से जवाब देने की तैयारी कर रखी है।

इसका प्रमाण राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल का तब रूस पहुंचना है, जब ट्रंप के विशेष दूत भी वहां गए हैं। ट्रंप के आगे न झुकने का स्पष्ट संदेश देना जरूरी था, क्योंकि वह अपनी हद पार कर गए हैं। वे मनमाना व्यापार समझौता करने के लिए भारत को चिढ़ाने, नीचा दिखाने और वर्षों की मेहनत से बने दोनों देशों के दोस्ताना संबंधों को ध्वस्त करने में जुटे हैं।

यह अच्छा है कि भारत अपनी तरह से ट्रंप को बता रहा है कि बहुत हो चुका और अब उनकी मनमानी सहन नहीं की जाएगी। यदि अमेरिका सबसे शक्तिशाली देश है तो इसका यह मतलब नहीं कि भारत कुछ भी नहीं। ट्रंप को शायद यह सीखना शेष है कि दो देशों के संबंध बराबरी के आधार पर और कुछ ले-देकर ही बनते हैं।

ट्रंप तो केवल भारत से लेना ही चाहते हैं। उन्हें यह जल्दी समझ आ जाए तो अमेरिका और विश्व के लिए अच्छा कि आत्मविश्वास से भरे भारत को दबाया नहीं जा सकता। यदि भारत को अमेरिका की जरूरत है तो उसे भी हमारी आवश्यकता है।

यह सही है कि अमेरिका से पीड़ित चीन भी भारत से संबंध सुधारना चाहता है, लेकिन इसकी अनदेखी बिल्कुल भी नहीं की जानी चाहिए कि वह भारतीय हितों के प्रति संवेदनशील नहीं। चीन अपने हितों की पूर्ति के लिए भारत का साथ तो चाहता है, लेकिन भारतीय हितों के खिलाफ काम करने से बाज भी नहीं आ रहा है।

बात चाहे पहलगाम में आतंकी हमले को लेकर पाकिस्तान की भाषा बोलने की हो अथवा आपरेशन सिंदूर के दौरान उसकी खुले-छिपे रूप से मदद करने की, भारत को उस पर भरोसा नहीं करना चाहिए। बहुत दिन नहीं हुए जब एससीओ रक्षा मंत्रियों की बैठक में चीन ने बेशर्मी दिखाते हुए पहलगाम आतंकी हमले की निंदा करने वाले साझा बयान पर सहमति देने से इन्कार कर दिया था। इसके जवाब में भारत ने उस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था।

चीन अरुणाचल प्रदेश और कश्मीर पर भी बेजा टिप्पणियां करता रहता है, लेकिन दलाई लामा पर भारत की उचित प्रतिक्रिया भी सुनने को तैयार नहीं। चीन से सावधान रहने में ही भलाई है। भारत के लिए यह तो आवश्यक है कि वह अमेरिकी राष्ट्रपति के अनुचित दबाव में आने से इन्कार करे, लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं हो सकता कि वह चीन के साथ खड़ा हो जाए। सच तो यह है कि भारत को न तो चीन पर निर्भर होना चाहिए और न ही रूस पर।