मेला और भीड़ प्रबंधन
सुरक्षा यदि आदत और कार्यसंस्कृति संस्कार बन जाए तो अतीत की हर भूल सिखा सकती है लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा होता नहीं है। उत्तर भारत के प्रसिद्ध धार्मिक स्थल दियोटसिद्ध स्थित बाबा बालकनाथ मंदिर में सड़क के किनारे अस्थायी दुकानें गिरने से पंजाब के श्रद्धालुओं को आई चोटें जानलेवा भी हो सकती थी यदि सड़क के किनारे और गहरी खाई के बीच मिट्टी न होती। राहत यह कि इस हादसे का असर केवल चोटों तक सिमट गया लेकिन इससे कुछ पक्ष ऐसे भी सामने आते हैं जिन पर चर्चा इस उद्देश्य के साथ जरूरी है कि ऐसी घटनाओं का दोहराव न हो। कोई संदेह नहीं है कि हर गलती या हादसे के कई पक्ष और कारण रहते हैं। इसमें वे करीब पचास श्रद्धालु भी कम जवाबदेह नहीं जो एक साथ अस्थायी दुकानों के भीतर प्रवेश कर गए। दूसरा पक्ष यह है कि आत्म नियमन सबमें हो तो व्यवस्था बनाने की जरूरत क्यों पड़े। नयना देवी मंदिर में मची त्रासद भगदड़ इतनी भी पुरानी नहीं हुई कि उसे भुला दिया जाए। यह जांच होनी चाहिए कि दुकानें आवंटित करने से पहले मानकों की जांच क्या की गई थी? जरूरी यह भी है कि ऐसा हादसा होने की स्थिति में प्रशासन के लिए पंजाब के अति विशिष्ट अतिथि के साथ रहना कितना जरूरी था और घटनास्थल पर राहत एवं बचाव कार्य में शामिल होना कितना आवश्यक था। स्थानीय जनता और कुछ श्रद्धालुओं की पहल और प्रयासों से घायलों को शाहतलाई अस्पताल पहुंचा दिया गया था। यह भी सराहनीय है कि एंबुलेंस के आने से पूर्व ही टैक्सियों में घायलों को अस्पताल तक पहुंचा दिया गया था। सवाल यह उठता है कि यह सारा घटनाक्रम बाबा बालकनाथ मंदिर के चढ़ावे के आंकड़ों व वहां रहने वाली तैयारियों के दावों के साथ मेल नहीं खाता। वह भी तब, जब प्रदेश में धार्मिक पर्यटन भी प्रदेश की छवि और आय के साथ जुड़ा है। ऐसे हादसे तैयारियों का सच तो बयान करते ही हैं, यह भी बताते हैं कि कितना कुछ और किया जाना शेष है। वस्तुत: इस प्रकार के आयोजनों के प्रबंधन के प्रति संजीदगी की जरूरत शिद्दत से महसूस हो रही है। मंदिर प्रबंधन के साथ मेला, भीड़ प्रबंधन भी स्वत: ही जुड़ जाते हैं जो मूलत: समन्वय की मांग करते हैं। उम्मीद है कि थोड़े में बहुत कुछ सिखाने वाली यह घटना नीति नियंताओं को ठोस कदम उठाने की जरूरत महसूस करवाएगी।
[स्थानीय संपादकीय: हिमाचल प्रदेश]
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