शहजाद पूनावाला। देश में उपराष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया आरंभ हो गई है। भाजपा की अगुआई वाले राजग तथा कांग्रेस की अगुआई वाले विपक्षी गठबंधन आइएनडीआइए ने अपने-अपने उम्मीदवारों का चयन कर लिया है। राजग ने सीपी राधाकृष्णन को प्रत्याशी बनाया है। इसके उलट आइएनडीआइए ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी को प्रत्याशी बनाया है। ये दोनों राष्ट्र के लिए दो बिल्कुल विपरीत दृष्टिकोणों की तस्वीर पेश करते हैं।

वास्तव में यह चुनाव मेरिट बनाम मौकापरस्ती की टक्कर है। सीपी राधाकृष्णन ने कोयंबटूर से दो बार सांसद के रूप में सेवा की और दशकों की निष्ठा के जरिए जनता का विश्वास अर्जित किया। झारखंड के राज्यपाल के रूप में उन्होंने संवैधानिक दायित्वों को गरिमा और दृढ़ता के साथ निभाया, आम आदमी से जुड़े रहे और सामाजिक परिवर्तन सुनिश्चित किया।

उनका उपराष्ट्रपति पद तक पहुंचना जनता और संविधान के प्रति आजीवन सेवा की मान्यता है। उनकी उम्मीदवारी तमिलों और दक्षिण भारत के कई लोगों के लिए व्यक्तिगत भावनाओं से जुड़ी है। यह संकेत है कि नई दिल्ली में उनकी आवाज मायने रखती है। यह कोई रहस्य नहीं कि कांग्रेस शासन के चरम काल में तमिलनाडु अक्सर राष्ट्रीय राजनीति से उपेक्षित महसूस करता था, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में यह स्थिति बदली है। राधाकृष्णन का उत्थान नए भारत की कहानी में तमिलनाडु की केंद्रीयता का सशक्त प्रतीक है।

पीएम मोदी की तमिलनाडु के प्रति प्रतिबद्धता इस नामांकन से कहीं आगे जाती है। पिछले एक दशक में उन्होंने सुनिश्चित किया है कि तमिल नेता भारत की शासन प्रणाली में अग्रणी भूमिका निभाएं। जैसे कि डा. तमिलिसाई सैंदरराजन ने तेलंगाना और पुदुचेरी के राज्यपाल के रूप में अपनी विशेषज्ञता और नेतृत्व का प्रदर्शन किया। निर्मला सीतारमण का रक्षा और वित्त मंत्री के रूप में कार्यकाल भारत की आर्थिक दृढ़ता का वैश्विक प्रतीक बना है। डा. एस. जयशंकर की तीक्ष्ण कूटनीति और विदेश मंत्री के रूप में सेवा ने भारत की आवाज को विश्व मंच पर बुलंद किया है।

ये सिर्फ प्रतीकात्मक नियुक्तियां नहीं हैं, बल्कि यह प्रमाण है कि पीएम मोदी तमिलनाडु को प्रतिभा का पावरहाउस और हमारी सामूहिक भारतीय विरासत का भंडार मानते हैं। संयुक्त राष्ट्र में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा प्राचीन तमिल ग्रंथ तिरुक्कुरल का उद्धरण देना, तमिल को विश्व की सबसे पुरानी भाषा घोषित करना या पवित्र सेंगोल को सम्मान की जगह देना, ये पल केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि तमिल पहचान को भारत के आत्मा का अभिन्न हिस्सा मानने का उत्सव हैं। इसमें काशी तमिल संगमम और सौराष्ट्र तमिल संगमम जैसी पहलें भी जुड़ जाती हैं, जो तमिल परंपराओं को अन्य क्षेत्रों की परंपराओं से जोड़ती हैं। राधाकृष्णन इसी एक भारत की भावना का प्रतीक हैं।

इसके विपरीत आइएनडीआइए के चुनाव में अवसरवाद और पाखंड की बू आ रही है, जिससे साफ है कि यह गठबंधन सिद्धांतों से अधिक राजनीतिक अवसरवाद पर केंद्रित है। 2013 में जब रेड्डी को गोवा का पहला लोकायुक्त नियुक्त किया गया था, तब कांग्रेस और उसके सहयोगियों ने उन्हें भाजपा का “हां-में-हां मिलाने वाला आदमी” बताया था। आज 2025 में वही कांग्रेस-नेतृत्व वाला गठबंधन उन्हें “न्याय का चैंपियन” बता रहा है।

रेड्डी का न्यायिक रिकार्ड भी विश्वास नहीं जगाता। 2011 में छत्तीसगढ़ में माओवाद विरोधी पहल सलवा जुडूम को खारिज करने का उनका फैसला भारत की माओवादी हिंसा से लड़ाई के लिए झटका माना गया। आज जब माओवाद की समस्या लगभग समाप्ति की ओर है, तब रेड्डी का फैसला कई सवाल खड़े करता है। क्या हम ऐसे व्यक्ति को उपराष्ट्रपति की कुर्सी पर देखना चाहेंगे? भोपाल गैस त्रासदी मामले में भी रेड्डी द्वारा इसे दोबारा न खोलने का फैसला उनकी विरासत पर दाग है। उनका नामांकन मध्य प्रदेश के लोगों के लिए उस अन्याय की क्रूर याद जैसा है।

जब न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने राज्यसभा सदस्यता स्वीकार की थी, तब कांग्रेस ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता का मुद्दा उठाते हुए एनडीए पर राजनीति का आरोप लगाया था, लेकिन अब वही सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज को उपराष्ट्रपति पद के लिए खड़ा कर रही है। रेड्डी का नामांकन आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में क्षेत्रीय भावनाओं को भुनाने का एक सोचा-समझा प्रयास प्रतीत होता है। जबकि गठबंधन के पास पर्याप्त संख्या ही नहीं है। ऐसा लगता है कि वे एक तेलुगु व्यक्ति को असफल होने के लिए आगे बढ़ा रहे हैं। सच कहें तो कांग्रेस ने हमेशा तेलुगु गौरव और नेताओं को अपमानित किया है-चाहे वह टी अंजैया हों या पीवी नरसिंह राव।

पीएम मोदी ने हमेशा हाशिए पर रहे तमिल स्वरों को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान दिलाया है। राज्यपाल के रूप में सेवा देने वाले इला गणेशन और केंद्रीय मंत्री डा. एल मुरुगन जैसे नेता उदाहरण हैं। वहीं आइएनडीआइए का चुनाव हताशा से भरा, आखिरी क्षणों में कथा गढ़ने का प्रयास है। यह जंग है एक स्वयंसेवक की, जो राष्ट्र प्रथम को मानता है, बनाम उस व्यक्ति की, जो पारिवारिक राजनीतिक सुविधा को संविधान और वैचारिक प्रतिबद्धता से ऊपर रखता है।

(लेखक भाजपा के प्रवक्ता हैं)