अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की ओर से आगे बढ़ाए गए गाजा शांति समझौते के पहले चरण को लागू करने के लिए सहमति बन जाना इजरायल और फलस्तीन के लिए ही नहीं, पश्चिम एशिया और शेष विश्व के लिए भी राहत की खबर है। यदि इस समझौते के शेष चरणों के लिए भी इजरायल और हमास में सहमति बन जाती है तो गाजा में स्थायी शांति का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा और इसके लिए अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप प्रशंसा के पात्र होंगे।

उनके खाते में कम से कम एक संघर्ष तो खत्म करने का श्रेय जाएगा ही। ऐसा होने की उम्मीद में ही भारतीय प्रधानमंत्री समेत विश्व के अन्य देशों के नेताओं ने उन्हें बधाई दी है। उल्लेखनीय है कि इन देशों में सऊदी अरब, मिस्र समेत वह कतर भी है, जो हमास को समर्थन देने के लिए जाना जाता है।

गाजा शांति समझौते के पहले चरण के तहत हमास करीब 20 बंधकों के साथ मारे गए अपहृत लोगों के शव इजरायल को सौंपेगा। इसके बदले इजरायल लगभग दो हजार फलस्तीनी कैदियों को रिहा करेगा। इनमें कई हमास आतंकी भी हैं। इसी के साथ गाजा में घुसी इजरायली सेना अपने कदम पीछे खींचेगी।

ट्रंप की ओर से तय किया गया शांति समझौता 20 सूत्रीय है। इसके अनुसार हमास को हथियार डालने होंगे और गाजा में अपने प्रशासनिक दखल को समाप्त करना होगा। इस पर फिलहाल कुछ कहना कठिन है कि क्या हमास हथियार छोड़ने के लिए तैयार होगा। यदि वह इस्लामी और विशेष रूप से अरब देशों के दबाव में अपने हथियारबंद समूह को भंग करने के लिए तैयार भी हो जाए तो भी इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता कि वह इजरायल को नष्ट करने और वहां के लोगों यानी यहूदियों को मिटाने की अपनी घृणा का परित्याग करेगा।

वास्तव में जब ऐसा होगा, तभी इजरायली और फलस्तीनी चैन से रह पाएंगे और पश्चिम एशिया में शांति कायम हो सकेगी। भविष्य में जो भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि दो वर्ष पहले 7 अक्टूबर को हमास आतंकियों ने इजरायल में घुसकर जो कहर ढाया और जिसके नतीजे में 12 सौ लोग मारे गए, उसके जवाब में इजरायल की सैन्य कार्रवाई में साठ हजार से ज्यादा लोगों की जान गई।

इजरायल की सैन्य कार्रवाई गाजा के साथ लेबनान, यमन और ईरान तक गई। इजरायल ने गाजा में अपनी कठोर सैन्य कार्रवाई इसलिए जारी रखी, क्योंकि हमास 7 अक्टूबर के हमले में बंधक बनाए गए लोगों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। इजरायल हमास के बीच की लड़ाई में हजारों लोगों की जान ही नहीं गई, इजरायल-ईरान के बीच के तनाव ने युद्ध का रूप लिया, जिसमें अमेरिका ने भी दखल दिया। इसके अतिरिक्त यमन में काबिज हाऊती विद्रोहियों की हरकतों से समुद्री व्यापार में बाधा पहुंची, जिसके नतीजे में तेल के दाम चढ़े।