जागरण संपादकीय: भरोसा डिगाने वाला रवैया, 'किलर कफ सीरप' को लेकर उठने लगे कई सवाल
मध्य प्रदेश और राजस्थान में जहरीले कफ सिरप से बच्चों की मौत पर जांच की गति धीमी है, जिससे लोगों का भरोसा कम हो रहा है। तमिलनाडु की कंपनी के कफ सिरप का परीक्षण क्यों नहीं हुआ, यह सवाल बना हुआ है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं। घटिया दवाओं के निर्माण को रोकने के लिए कठोर कदम उठाने की जरूरत है, ताकि लोगों का दवाओं पर विश्वास बना रहे।
HighLights
- <p>कफ सिरप से बच्चों की मौत पर सवाल</p>
- <p>जांच की गति धीमी, भरोसा डिगा</p>
- <p>दोषियों पर कठोर कार्रवाई की जरूरत</p>
मध्य प्रदेश और राजस्थान में विषाक्त कफ सीरप के सेवन से 20 से अधिक बच्चों की मौतों पर जांच और कार्रवाई की जो बातें हो रही हैं, वे यदि बहुत भरोसा नहीं जगातीं तो इसके लिए राज्य सरकारों के साथ-साथ केंद्र सरकार भी जिम्मेदार है। एक तो लोगों को चिंतित करने वाले इस गंभीर मामले में कथित ठोस कार्रवाई शिथिल ढंग से हो रही है और दूसरे, समस्या यानी विषाक्त दवा के बनने एवं बिकने की दोषपूर्ण प्रक्रिया को जड़ से ठीक करने के लिए वैसे प्रयास नहीं हो रहे, जैसे होने ही नहीं, दिखने भी चाहिए थे।
किसी के लिए भी समझना कठिन है कि उन कारणों की तह तक जाने की चेष्टा क्यों नहीं की जा रही है, जिनके चलते तमिलनाडु की श्रीसन फार्मास्यूटिकल की ओर से तैयार कफ सीरप कोल्ड्रिफ की गुणवत्ता का परीक्षण नहीं हो सका। इस नाकामी का नतीजा यह हुआ कि विषाक्त कफ सीरप बनी और उसकी आपूर्ति भी हो गई। आखिर इस जानलेवा नाकामी के लिए कौन जिम्मेदार है और उसे जवाबदेह कब बनाया जाएगा?
इस पूरे मामले में खेद की बात यह भी है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय उतना सचेत और संवेदनशील नहीं दिख रहा, जितना अपेक्षित है। क्या उसकी कहीं कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या वह राज्य सरकारों और उनकी एजेंसियों को केवल सुझाव देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेगा? यह सही है कि दवाओं की गुणवत्ता का परीक्षण राज्य सरकारों की एजेंसियां करती हैं, लेकिन क्या केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन यानी सीडीएससीओ को यह नहीं देखना चाहिए कि यह काम सही तरह से हो रहा है या नहीं? आखिर ऐसी नियामक संस्था किस काम की, जो राज्यों की एजेंसियों को सही तरह काम करने के लिए बाध्य न कर सके?
यदि कफ सीरप से बच्चों की मौत के मामले में दोषी लोगों को कठोर दंड का भागीदार बनाकर कोई नजीर स्थापित नहीं की गई तो दोयम दर्जे की दवाओं के निर्माण का सिलसिला थमने वाला नहीं। घटिया किस्म की दवाओं के निर्माण की गुंजाइश छोड़ने का मतलब है विषाक्त और नकली दवाओं के निर्माण की भी राह खुली रखना। यह अक्षम्य ही नहीं आत्मघात है, क्योंकि इससे लोगों का दवाओं पर से ही भरोसा उठ जाएगा।
यह व्यवस्था में किसी बड़ी खामी का प्रमाण है कि हर माह जो ड्रग अलर्ट जारी होता है, उसमें कई दवाओं के सैंपल फेल पाए जाते हैं। एक ऐसे समय जब देश में पहले से ही खराब गुणवत्ता वाली दवाओं का निर्माण हो रहा है, तब केंद्र सरकार के स्तर पर ऐसा न होने देने के लिए कोई ठोस उपाय न करना लोगों के भरोसे को डिगाने वाला तो है ही, देश की बदनामी कराने वाला भी है। क्या भारत घटिया किस्म की दवाओं का निर्माण करके खुद को दुनिया की फार्मेसी होने का दावा कर सकता है?
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