विचार: युवाओं की समस्याओं का समाधान खोजें, नहीं तो देश नवाचार में पीछे रह जाएगा
शिक्षा के समक्ष इस समय भारत को जानने और समझने के लिए स्वामी विवेकानंद श्री अरबिंदो रविंद्रनाथ टैगोर की ‘भारत भारतीयता उसकी विविधता और दर्शन’ का अध्ययन हर अध्यापक और युवा के लिए आवश्यक है। इसकी पूर्णता के लिए आज के परिप्रेक्ष्य में गांधी को जानना भी युवाओं के लिए ही नहीं राजनीतिक दलों के लिए भी हितकर होगा।
जगमोहन सिंह राजपूत। 21 वीं सदी का एक चौथाई हिस्सा बीत रहा है। आने वाले वर्षों में परिवर्तन की गति का अनुमान लगाना आसान नहीं। यह तेजी बढ़ती आकांक्षाओं और जटिलताओं को लगातार बढ़ाएगी। सीखने के तरीके बदल गए हैं, नया ज्ञान, नए कौशल और नवाचार हर दिशा में नए कार्य क्षेत्र खोल रहे हैं। यदि संभावनाएं नई हैं तो समस्याएं भी नई हैं और उनके समाधान भी नए ही खोजने होंगे। जो देश नवाचार में पीछे रह जाएगा, वह भविष्य में हर दृष्टि से पिछड़ जाएगा।
इस बीच शिक्षित युवाओं की संख्या बढ़ी है, जिनमें से कुछ भाग्यशाली लोगों के लिए ‘ग्रीन कार्ड’ ने नई दुनिया के दरवाजे खोले हैं। उनके बाद वाले ‘दो-तीन बीएचके और ईएमआइ की दुनिया’ में शिफ्ट हो गए हैं, लेकिन अधिकांश युवा असहज हैं। उनके अंदर भविष्य के प्रति अनेक आशंकाएं और व्यवस्था पर बढ़ता अविश्वास बेचैन किए हुए है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि हर स्तर पर प्रतियोगी परीक्षाएं आयोजित करने वाली अधिकांश संस्थाएं अपनी साख खो चुकी हैं।
कठिन परिस्थितियों में प्रतियोगी परीक्षाओं की वर्षों तक तैयारी करने वाले शिक्षित युवा नहीं जानते कि कब पर्चा लीक हो जाए, नकल माफिया और साल्वर कब उनकी अपेक्षाओं पर पानी फेर दें। नियुक्तियों में ईमानदारी पर युवाओं को विश्वास नहीं रहा है। मंत्रियों और सेवा आयोगों के अध्यक्षों के घरों से करोड़ों की नकदी बरामद होती है, कुछ दिन चर्चा होती है और फिर अगली वैसी ही घटना होने तक सब शांत हो जाता है।
केंद्र और राज्य सरकारें अब नियुक्तियों में ‘आउटसोर्सिंग’ प्रणाली चलाकर उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं को जिस प्रकार के मानदेय पर अस्थायी नियुक्ति दे रही हैं, वह किसी को भी हताश और निराश कर सकता है। क्या किसी विश्वविद्यालय या नीति आयोग से जुड़ी संस्थाओं ने ‘आउटसोर्सिंग’ के बढ़ते दायरे पर कोई सर्वेक्षण किया है? उनके लिए नए कौशल सीखने और रोजगार के अवसर खोजने में सहायता देने की कोई योजना बनाई है?
शिक्षा संस्थाएं और कौशल सिखाने वाले संस्थान अपेक्षित तेजी से अपनी कार्यसंस्कृति बदल नहीं पा रहे हैं। हर प्रकार के बदलाव और नीतियों में सामंजस्य बनाए रखने के लिए जिस स्तर के संवाद की अपेक्षा इस समय है, वह दूर-दूर तक संभव दिखाई नहीं देती। इस समय सकारात्मक दृष्टिकोण की संभावना को जहां-जहां ढूंढ़ा जा सकता है, उसमें शिक्षा ही सबसे पहले आती है, क्योंकि शिक्षा ही हर क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर नीतियों में हो रहे परिवर्तन की ओर ध्यान आकर्षित करती है। वैसे संसद को भी युवा वर्ग के संबंध में अपने उत्तरदायित्व को गहराई से परखना चाहिए।
वर्ष 1789 से 1799 तक चली फ्रांसीसी क्रांति ने तीन शब्दों ‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ को विश्वव्यापी स्वीकार्यता प्रदान की। भारत के संविधान में इसे हर प्रकार से सुदृढ़ करने के प्रविधान किए गए, लेकिन हम व्यावहारिक स्तर पर तो केवल आंशिक रूप से ही सफल हो पाए हैं। नेता जाति समाप्त करने पर भाषण देते हैं, वादे करते हैं, लेकिन अधिकांश चुनाव जाति-वैविध्य के गणित पर ही लड़े जाते हैं। जीते या हारे, उसी की उधेड़बुन में डूबे रहते हैं।
निश्चित रूप से वे अपने को, मतदाताओं को और लोकतंत्र को सबसे अधिक हानि पहुंचाते हैं। यह दुर्भाग्य है कि वैशाली और लिच्छवी के गणतंत्रों का उदाहरण देने वाला भारत अपने व्यवहार में लोकतंत्र को केवल चुनाव-तंत्र तक सीमित कर रहा है। आरक्षण के प्रविधान का लाभ जब तीसरी पीढ़ी तक उठा चुके परिवार आगे भी उसका लाभ उठाना प्रारंभ कर देते हैं, तब समाज का वह वर्ग जो वंचित है, अत्यंत कष्टकर मानसिक स्थिति से गुजरता है। वह किसके पास जाए?
बराबरी लाने का सबसे सशक्त मार्ग शिक्षा ही है, लेकिन प्रारंभ से ही हर विद्यार्थी जान जाता है कि वह दो में से किस वर्ग में है- सरकारी या निजी स्कूल में? देश में गैर-बराबरी की जड़ें जमाने में यह विभेद सबसे बड़ा योगदान दे रहा है। युवाओं और नई पीढ़ी में विश्वास और आशावादिता तभी जन्म लेगी, जब देश का राजनीतिक वातावरण पक्ष और विपक्ष के भेद को इस संदर्भ में भुलाकर साझी समरसता के लिए एकजुट हो जाए।
इस समय वातावरण में जो तल्खी कुछ जाने-पहचाने तत्वों द्वारा लगातार पैदा की जा रही है, वह उनके लिए ही नहीं, देश के लिए भी हानिकारक है। यह देश के युवाओं के भविष्य को भूलकर राजनीतिक हानि-लाभ को प्राथमिकता देने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल के युवाओं के आंदोलनों का उल्लेख कर देश में वहां जैसी स्थिति पैदा करने का प्रयास करने वाले न तो युवाओं के हितैषी हो सकते हैं, न ही भारत के।
शिक्षा के समक्ष इस समय भारत को जानने और समझने के लिए स्वामी विवेकानंद, श्री अरबिंदो, रविंद्रनाथ टैगोर की ‘भारत, भारतीयता, उसकी विविधता और दर्शन’ का अध्ययन हर अध्यापक और युवा के लिए आवश्यक है। इसकी पूर्णता के लिए आज के परिप्रेक्ष्य में गांधी को जानना भी युवाओं के लिए ही नहीं, राजनीतिक दलों के लिए भी हितकर होगा। संभवतः यह उनमें से कुछ को राजनीति में चरित्र और निर्मलता की शक्ति से उनका परिचय करा सके। इसी से भारत की सामाजिकता और संस्कृति की सार्वभौमिकता को समझने में मदद मिलेगी।
(लेखक एनसीईआरटी के निदेशक रहे हैं)
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