जागरण संपादकीय: चुनाव मैदान में बिहार, तिथियों की घोषणा
यह आसान नहीं है क्योंकि वे आम तौर पर प्रत्याशियों का चयन करते समय उनकी जाति को वरीयता देते हैं और इसका कारण औसत मतदाताओं की अपनी जाति-बिरादरी वालों को वोट देने की प्रवृत्ति है। बिहार के लोगों को इस प्रवृत्ति का परित्याग करना होगा। इसी में उनका बिहार का और भारतीय लोकतंत्र का हित है।
बिहार में मतदान तिथियों की घोषणा की प्रतीक्षा पूरी हुई। चुनाव आयोग ने इस बार पिछली बार से एक कम यानी दो चरणों में ही मतदान कराने का निर्णय लिया। यह चुनाव आयोग की सामर्थ्य के साथ ही बिहार में कानून एवं व्यवस्था की बेहतर स्थिति का भी सूचक है। एक समय था, जब बिहार में कानून एवं व्यवस्था को चुनौती मिलने के चलते कई चरणों में मतदान कराना पड़ता था।
अब केवल बंगाल ही ऐसा राज्य बचा है, जहां कानून एवं व्यवस्था की खराब हालत के कारण कई चरणों में मतदान कराना पड़ता है। बिहार में मतदान तिथियों की घोषणा भले ही अब हुई हो, लेकिन वहां पिछले कुछ समय से राजनीतिक दलों की गतिविधियों के केंद्र में विधानसभा चुनाव ही थे।
बिहार की सत्ता किसके हाथ रहेगी, इसका पता तो चुनाव परिणाम वाले दिन यानी 14 नवंबर को ही चलेगा, लेकिन इतना तय है कि इस बार अन्य मुद्दों के साथ मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआइआर को भी चुनावी मुद्दा बनाया जाएगा। यह स्पष्ट ही है कि इसे मुद्दा बनाने का काम विपक्षी दल करेंगे।
इस कारण चुनाव परिणाम राजनीतिक दलों की जीत-हार के साथ यह भी बताएंगे कि एसआइआर प्रक्रिया पर सवाल उठाना कितना सही था और जो सवाल उठाए गए, उनमें कोई तत्व था या नहीं?
चूंकि बिहार के पिछड़ेपन की चर्चा होती रहती है, इसलिए यह स्वाभाविक है कि राज्य का विकास भी पक्ष-विपक्ष के बीच एक प्रमुख चुनावी मुद्दा होगा। हालांकि बिहार बदहाली के दौर से निकल चुका है और पिछले 20 वर्षों में यहां की स्थितियों में काफी कुछ सुधार हुआ है, पर यह ध्यान रहे कि जनता हो चुके विकास कार्यों और उपलब्ध सुविधाओं से संतुष्ट नहीं होती।
उसे और बेहतर की चाह रहती है। यह मानवीय स्वभाव है। जो भी गठबंधन इस चाह को पूरा करने में समर्थ दिखाई देगा, उसकी राह आसान हो जाएगी, लेकिन तभी, जब लोग जाति-संप्रदाय की राजनीति के प्रभाव में आकर वोट देने से बचेंगे। यदि बिहार को तेजी से विकास करना है और अपनी शेष समस्याओं से मुक्त होना है तो यहां के मतदाताओं को जाति-मजहब की राजनीति से ऊपर उठकर वोट देना होगा।
वे इसमें तब सक्षम बनेंगे, जब जाति-संप्रदाय की राजनीति करने वालों को हतोत्साहित करेंगे। वे ऐसा करें, इसमें एक भूमिका राजनीतिक दलों को भी निभानी होगी। उन्हें योग्य प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतरना होगा।
यह आसान नहीं है, क्योंकि वे आम तौर पर प्रत्याशियों का चयन करते समय उनकी जाति को वरीयता देते हैं और इसका कारण औसत मतदाताओं की अपनी जाति-बिरादरी वालों को वोट देने की प्रवृत्ति है। बिहार के लोगों को इस प्रवृत्ति का परित्याग करना होगा। इसी में उनका, बिहार का और भारतीय लोकतंत्र का हित है।
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