विचार: उद्देश्य से विमुख हुई व्यवस्था, औपनिवेशिक प्रवृत्ति से कब मुक्ति मिलेगी?
अंग्रेजी शासन के अपवर्जित क्षेत्र और मौजूदा पांचवीं और छठी अनुसूची और कुछ नहीं बल्कि ऐल्विन के ‘राष्ट्रीय उद्यान’ ही हैं। जब पिछले 75 वर्षों में गैर जनजातीय समाज के भीतर बहुत सा परिवर्तन वांछनीय माना गया तब जनजातीय और गैर-जनजातीय समाज के संबंधों को नए रूप में देखने की पहल क्यों नहीं हो सकती?
विकास सारस्वत। लेह में 24 सितंबर को हुई हिंसा के लिए सोनम वांगचुक की रासुका के तहत गिरफ्तारी को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। लेह हिंसा की जांच के साथ प्रदर्शनकारियों की मांगों पर निष्पक्ष चर्चा भी आवश्यक है। यह चर्चा केवल लद्दाख संकट के संदर्भ में नहीं, बल्कि व्यापक संदर्भ में हो। लद्दाख में पिछले चार वर्षों से राज्य का दर्जा पाने की मांग हो रही है। प्रदर्शनकारियों की दूसरी बड़ी मांग यह है कि लद्दाख को छठी अनुसूची में डाला जाए।
लद्दाख चीनी नियंत्रण रेखा से लगा हुआ संवेदनशील क्षेत्र है। ऐसे में वहां केंद्र का व्यापक नियंत्रण एक व्यावहारिक आवश्यकता है। लद्दाखियों का एक डर यह है कि केंद्रशासित प्रदेश बने रहने से गैर-लद्दाखी वहां बड़ी संख्या में बस कर उनकी सांस्कृतिक पहचान मिटा सकते हैं। इसीलिए उनकी पहचान बचाने के प्रविधान होने चाहिए।
जनजातियों के आर्थिक-सामाजिक हित और उनकी सांस्कृतिक पहचान सुरक्षित रखने के लिए संविधान में पांचवीं और छठी अनुसूची के अंतर्गत प्रविधान हैं। अनुच्छेद 370 हटने और जम्मू कश्मीर राज्य पुनर्गठन के बाद राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने जनजाति बहुल लद्दाख को पांचवीं या छठी अनुसूची में शामिल करने की संस्तुति भी की थी, पर समस्या यह है कि छठी अनुसूची केवल पूर्वोत्तर राज्यों पर लागू होती है। बाकी जगह जनजातीय क्षेत्रों पर पांचवीं अनुसूची लागू होती है।
छठी अनुसूची का दायरा इतना सीमित है कि पूर्वोत्तर में होते हुए भी नगालैंड एवं अरुणाचल को अलग राज्य बनाने पर छठी अनुसूची में न डालकर अनुच्छेद 371(ए) और 371 (एच) के तहत विशेषाधिकार दिए गए। इसलिए वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था में लद्दाख को छठी अनुसूची में डालना असंभव है। इस गतिरोध को दूर करने के लिए केंद्र ने लद्दाख में लेह और कारगिल के लिए दो स्वायत्तशासी पर्वतीय विकास परिषद बनाई हैं। केंद्र ने नौकरियों में भी स्थानीय लोगों को 85 प्रतिशत आरक्षण दिया है।
संवैधानिक पेचीदगी और व्यावहारिक संभावनाओं से परे यह पूछना भी आवश्यक है कि 75 वर्षों से चले आ रहे प्रविधान जनजातीय क्षेत्रों में कितने कारगर रहे हैं? आंकड़े बताते हैं कि पांचवीं-छठी अनुसूची, स्वायत्त जिला परिषद, इनर लाइन परमिट और अनुसूचित क्षेत्रों का व्यवस्थापन न केवल क्षेत्रीय विकास में विफल हुआ है, बल्कि आर्थिक विकास एवं रोजगार सृजन में बाधा बनकर भी उभरा है। इन क्षेत्रों में अधिकतर विकास कार्य केंद्रीय निधि से हुआ है।
इन प्रविधानों से दो शक्तियां अवश्य लाभान्वित हुई हैं। पहला मिशनरी और दूसरे कम्युनिस्ट। कुलधर चालिहा ने संविधान सभा की बहस में इन क्षेत्रों के ‘कम्युनिस्टतान’ बनने की भविष्यवाणी की थी। जनजातीय परिषद पैसे की कमी और पूर्ण अधिकारों के अभाव में अपने उद्देश्यों में विफल रही हैं, क्योंकि इन प्रविधानों की मूल प्रेरणा और विकास में परस्पर विरोधाभास है।
लद्दाख में एक ओर सभी परियोजनाओं, उद्योगों और यहां तक कि पर्यटन का भी विरोध हो रहा है, तो दूसरी ओर प्रदर्शनकारी बेरोजगारी को बड़ा मुद्दा भी बता रहे हैं। स्वयं सोनम वांगचुक का कहना है कि विकास सुविधा अवश्य लाएगा, परंतु हमें ऐसे विकास में कोई रुचि नहीं है। दुर्भाग्य से यह विसंगति आज जनजातीय क्षेत्रों में आम हो गई है। वहां विकास का विरोध भी होता है और शासकीय उपेक्षा की नाराजगी भी रहती है।
नेतृत्व जनजातियों को अलग रखने की बात करता है, परंतु ऐसा कौन है, जिसे आज तकनीकी प्रगति के फल और बुनियादी ढांचे में विकास की अपेक्षा न हो? चाहे पूंजी हो या देशाटन, विचार हों या तकनीक, गैर जनजातीय आवागमन को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। यह अवचेतन विडंबना अंग्रेजी शासनकाल की उस संरक्षणवादी नीति का परिणाम है, जिसमें उन्होंने जनजातियों को अजूबा मानकर न केवल उन्हीं के क्षेत्रों में पाबंद रखा, बल्कि गैर-जनजातीय समाज को भी एक्सकल्यूडेड एरियाज (अपवर्जित क्षेत्र) और इनर लाइन परमिट जैसी व्यवस्था बनाकर उनसे घुलने-मिलने नहीं दिया।
गैर-जनजातियों से संपर्क को जनजातियों के लिए घातक समझने वाले जेएच हटन ने जनजातियों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल तक की वकालत की। 1931 में सेंसस कमिश्नर रहते हुए हटन ने “जनजातीय धर्म” के इतने व्यापक मानक तय किए कि अधिकतर जनजातियों की गणना हिंदू धर्म से अलग हो पाए। वह तो हिंदू महासभा के प्रयास थे, जिसने जनजातियों को अपना धर्म हिंदू अंकित करने के लिए प्रेरित किया। दुर्भाग्य से अंग्रेज नीतियों का ही अनुसरण स्वतंत्र भारत ने भी किया और अपवर्जित एवं आंशिक अपवर्जित क्षेत्रों को पांचवीं-छठी अनुसूची में डाला।
जैसे अंग्रेजी शासन में हटन, आर्चर एवं जेपी मिल्स आदि नृवंशविज्ञानी जनजातीय नीति तय कर रहे थे, वैसे ही स्वतंत्र भारत में वारियर ऐल्विन को महत्व मिला। जनजातियों के प्रति अपने अगाध प्राच्य (ओरिएंटल) प्रेम के चलते ऐल्विन ने भी पृथक्करण की हिमायत की। ऐल्विन नेहरू की ही आवाज थे। उनकी पुस्तक ‘द फिलासोफी आफ नेफा’ की प्रस्तावना नेहरू जी ने ही लिखी।
ऐल्विन के दर्शन ने ही भारत की जनजातीय नीति निर्धारित की। वे जनजातियों के लिए राष्ट्रीय उद्यान बनाने के पक्षधर थे। इस विलगाववादी संरक्षण के विपरीत भारतीय समाजशास्त्र के पितामह गोविंद घुर्ये और गांधीवादी अमृतलाल ठक्कर जनजातियों को आधुनिक ढांचे में समाहित करने के पक्षधर थे। जनजातियों को अलग रखने की नीति के परिणामों के प्रति सचेत करने और अपना जीवन वनवासियों की सेवा में खपाने वाले ठक्कर बापा ने कहा था, “जनजातियों को उनके पहाड़ों एवं जंगलों में सीमित रखना उन्हें अकादमिक व्यक्तियों के अवलोकन के लिए कांच के संग्रहालय में रखने जैसा है।”
इस कथन में पांचवीं और छठी अनुसूची का कड़वा सच है। वोट बैंक की बांदी बन चुकी राजनीति में इतना साहस नहीं कि वह नए सिरे से कुछ सोच पाए, परंतु प्रबुद्धजनों, खासकर जनजातीय बुद्धिजीवियों को विचारना चाहिए कि वे जनजातियों को अजूबे के रूप में देखने वाली औपनिवेशिक प्रवृत्ति से कब मुक्त होंगे। अंग्रेजी शासन के अपवर्जित क्षेत्र और मौजूदा पांचवीं और छठी अनुसूची और कुछ नहीं, बल्कि ऐल्विन के ‘राष्ट्रीय उद्यान’ ही हैं। जब पिछले 75 वर्षों में गैर जनजातीय समाज के भीतर बहुत सा परिवर्तन वांछनीय माना गया, तब जनजातीय और गैर-जनजातीय समाज के संबंधों को नए रूप में देखने की पहल क्यों नहीं हो सकती?
(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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