राजीव शुक्ला। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक ऐसा संकट बार-बार सामने आता है जिसे ‘किंडलबरगर ट्रैप’ कहा जाता है। अमेरिकी अर्थशास्त्री चार्ल्स किंडलबरगर ने इसे परिभाषित करते हुए कहा था कि जब कोई महाशक्ति वैश्विक व्यवस्था का नेतृत्व छोड़ देती है और कोई नई शक्ति उस जिम्मेदारी को उठाने के लिए आगे नहीं आती, तो पूरी दुनिया अराजकता के चंगुल में फंस जाती है।

बीसवीं सदी के आरंभ में ब्रिटेन कमजोर हो चुका था, अमेरिका तैयार नहीं था और नतीजा यह हुआ कि महामंदी और द्वितीय विश्व युद्ध जैसी आपदाएं दुनिया पर टूट पड़ीं। आज फिर वही खतरा मंडरा रहा है। अमेरिका ऊब का शिकार और घरेलू स्तर पर विभाजित है। चीन आधा-अधूरा और अविश्वसनीय नेतृत्व पेश कर रहा है। यूरोप अपने संकट में उलझा हुआ है। सवाल यह है कि इस बार वैश्विक व्यवस्था को अराजकता में जाने से कौन बचाएगा। क्या भारत इस खालीपन को भर सकता है?

भारत के पास आज वह पूंजी है, जो शायद किसी और देश के पास नहीं। आधे से अधिक भारतीय तीस वर्ष से कम आयु के हैं। जब पूरी पश्चिमी दुनिया वृद्ध होती आबादी से जूझ रही है और चीन जनसंख्या में गिरावट का सामना कर रहा है, तब भारत की जनसांख्यिकीय स्थिति उसे भविष्य की सबसे बड़ी शक्ति बना सकती है।

यह युवा शक्ति केवल श्रम नहीं है। यह विचार, नवाचार और डिजिटल ऊर्जा का भी स्रोत है। हालांकि यही युवा पीढ़ी रील, वीडियो और तात्कालिक प्रसिद्धि के आकर्षण में उलझकर अपनी दिशा खो सकती है। अगर युवा शक्ति को जिम्मेदारी की ओर मोड़ी जाए, तो भारत न केवल खुद को, बल्कि पूरी दुनिया को किंडलबरगर ट्रैप से निकाल सकता है।

भारत की ताकत उसकी विविधता है। भाषाओं, पंथों, जातियों और संस्कृतियों की अनगिनत परतों के बावजूद इस देश ने लोकतंत्र को जीवित रखा है। यही माडल दुनिया को चाहिए, क्योंकि पश्चिम में पहचान की राजनीति और राष्ट्रवाद बढ़ रहा है और चीन अधिनायकवादी प्रणाली थोपना चाहता है। भारतीय प्रवासी समुदाय इस संभावना को गहराई देता है। फ्रांस में ओणम के उत्सव से लेकर ब्रिटेन में गणपति विसर्जन की तस्वीरें भारत की साफ्ट पावर बढ़ाती हैं, जो उसे दूसरों से अलग करती है। फिर भी भारत के सामने सबसे बड़ी कसौटी लोकतांत्रिक विरोधाभास की है।

भारत खुद को ग्लोबल साउथ की आवाज कहता है, पर घरेलू स्तर पर लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थिति, अल्पसंख्यक अधिकारों की सुरक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवाल उठते हैं। यदि भारत वैश्विक नेतृत्व का चेहरा बनना चाहता है, तो उसे घर के भीतर लोकतंत्र को मजबूत करना ही होगा। भरोसेमंद नेतृत्व के बिना आर्थिक विकास पर्याप्त नहीं होता। विश्वास, पारदर्शिता और नियम आधारित व्यवस्था ही दुनिया को अराजकता से बचा सकते हैं।

भारत की मौजूदा सरकार ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कई बड़े दावे किए हैं जैसे जी-20 की अध्यक्षता और ‘विश्वगुरु’ बनने का सपना, लेकिन देश के भीतर कई कमजोरियां इस दावे को कमजोर करती हैं। चुनावी प्रक्रिया में पैसे का बढ़ता दबाव, मीडिया की आजादी पर उठते सवाल और स्वतंत्र संस्थाओं पर राजनीतिक प्रभाव देश की लोकतांत्रिक छवि धूमिल करते हैं।

जलवायु बदलाव से निपटने के वादे भी अक्सर बड़े उद्योगों को रियायत देने में खो जाते हैं, जबकि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी क्षेत्रों में सरकार का खर्च अभी भी बहुत कम है। विदेश नीति में भी कभी-कभी पड़ोसी देशों के साथ संबंधों में अचानक बदलाव दिखता है, जिससे भरोसे की कमी महसूस होती है। यदि सरकार घर के भीतर पारदर्शिता और जवाबदेही को मजबूत नहीं करती, तो दुनिया में भारत की नेतृत्वकारी छवि सिर्फ भाषणों तक सिमट जाएगी।

भारत की सबसे बड़ी संभावना उसका टेक्नो-डेमोक्रेटिक माडल है। यूपीआइ ने दिखा दिया कि डिजिटल लेनदेन को कैसे आम आदमी के लिए सहज और सुलभ बनाया जा सकता है। आधार ने पहचान को डिजिटल रूप दिया, कोविड के दौरान कोविन प्लेटफार्म ने यह सिद्ध कर दिया कि स्वास्थ्य प्रबंधन में तकनीक का उपयोग पारदर्शी और कुशल तरीके से किया जा सकता है।

यह सब केवल तकनीकी उपलब्धियां नहीं थीं, यह उस सोच का परिचय थी, जिसमें तकनीक को सिर्फ मुनाफे के लिए नहीं, बल्कि सार्वजनिक हित के लिए इस्तेमाल किया गया। यदि भारत यही माडल दुनिया को दे, तो वह चीन के तकनीकी अधिनायकवाद और पश्चिम के लाभ केंद्रित पूंजीवाद के बीच एक नया संतुलित विकल्प पेश कर सकता है।

हालांकि केवल विकल्प पेश करना पर्याप्त नहीं। शक्ति के साथ जिम्मेदारी भी आती है। वैश्विक व्यवस्था को केवल किसी के आर्थिक हितों की नहीं, बल्कि सार्वजनिक वस्तुओं की जरूरत होती है। जैसे जलवायु वित्त, महामारी प्रबंधन, आपूर्ति शृंखला की स्थिरता और मानवीय संकटों में सहयोग।

भारत ने हाल के वर्षों में यह दिखाने की कोशिश की है कि वह इस भूमिका के लिए तैयार है, पर ऐसे प्रयास निरंतरता मांगते हैं। भारत को लगातार यह साबित करना होगा कि वह केवल अवसर की राजनीति नहीं करता, अपितु संकट की घड़ी में भी वैश्विक भरोसा कायम कर सकता है।

अमेरिका और चीन के बीच तकनीकी प्रतिस्पर्धा और साइबर स्पेस में संघर्ष भविष्य का सबसे बड़ा तनाव बनेगा। जलवायु परिवर्तन और प्रवासन से पैदा हुए संकट इस तनाव को और गहरा करेंगे। आपूर्ति शृंखलाएं टूटने पर विकासशील देशों को बड़ा झटका लगेगा। यह स्थिति द्वितीय विश्व युद्ध से भी जटिल हो सकती है, क्योंकि अब संघर्ष केवल सैन्य या विचारधारा का नहीं होगा, बल्कि तकनीक, स्वास्थ्य, जलवायु और आर्थिकी एक साथ उलझेंगे। यही समय है जब भारत खुद को तीसरे ध्रुव के रूप में पेश करे।

जिस तरह गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने बीसवीं सदी में एशिया-अफ्रीका को एक अलग आवाज दी, वैसे ही इस सदी में भारत तकनीक और लोकतंत्र के एजेंडे पर दुनिया को एक नया विकल्प दे सकता है। इसके लिए उसे केवल घोषणाओं से आगे बढ़कर व्यावहारिक नेतृत्व दिखाना होगा। इतिहास हमेशा मौके की कसौटी पर नेताओं और राष्ट्रों को परखता है।

(लेखक कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)