हृदयनारायण दीक्षित। संसद की स्थायी समितियों का कार्यकाल एक साल से बढ़ाकर दो साल करने का विचार चल रहा है। सांसदों की शिकायत है कि एक साल की अवधि में किसी विषय विशेष पर वस्तुपरक अध्ययन और सार्थक परिणाम सामने नहीं आ पाते। सरकारें विधायिका के समक्ष जवाबदेह हैं। यह जवाबदेही संसदीय प्रश्नों, संकल्पों और अविश्वास प्रस्ताव आदि के माध्यम से होती है। संसदीय समितियां भी इस कार्य में महत्वपूर्ण सहयोग करती हैं।

समिति सदन का ही अंग होती हैं। राष्ट्र के सामने तमाम जटिल प्रश्न आते रहते हैं। तमाम मुद्दे आते हैं। महत्वपूर्ण मामलों में चर्चा में काफी समय लगता है। कुछ मुद्दों पर विषय विशेषज्ञों द्वारा गहराई से अध्ययन की आवश्यकता होती है। कुछ ऐसे भी मसले होते हैं, जिनका स्वरूप तकनीकी होता है। संसद का समय ऐसे छोटे मुद्दे एवं अनावश्यक शोर व्यवधानों को निपटाने में ही लग जाता है। समिति प्रणाली से संसद का समय बच जाता है।

भारतीय संसदीय व्यवस्था में याचिका समिति, विशेषाधिकार समिति, सरकारी आश्वासन संबंधी समिति स्थायी समितियां हैं। लोकसभा एवं राज्यसभा के सदस्यों से मिलकर बनी संयुक्त संसदीय समिति के अलावा लोकसभा की अलग समितियां भी हैं। किसी विषय पर गठित समितियों का कार्यकाल प्रतिवेदन देने तक सीमित रहता है। समितियों की नियुक्ति, कार्यकाल, कृत्य तथा कार्य संचालन की प्रक्रिया का नियमन अध्यक्ष द्वारा किया जाता है। लोक लेखा समिति सरकारी उपक्रमों संबंधी समिति अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति संबंधी समिति के सदस्यों का निर्वाचन सभा द्वारा एक वर्ष के लिए किया जाता है।

संप्रति राष्ट्र के समक्ष अनेक चुनौतियां हैं। संसद आभा खो रही है। सदन के भीतर हुल्लड़ है। शांति से समाधान खोजने वाली संस्थाएं नहीं हैं। ऐसे में संसदीय समितियों को शक्तिशाली बनाने पर ठोस विचार होना चाहिए। सांसदों ने समय की कमी की ओर ध्यान दिलाया है। इसके लिए समिति व्यवस्था को चाक चौबंद करने के लिए समग्रता में विचार करना चाहिए। विधायिका में समय की कमी विचारणीय विषय है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि संसद की समितियां विषय की गहराई में जाती हैं, लेकिन मुख्य सदन में समितियों जैसा अनौपचारिक शांत वातावरण नहीं मिलता।

समितियों की कार्यवाही का संचालन मुख्य सदन की भांति ही होता है। मुख्य सदन एवं समितियों के विशेषाधिकार समान हैं। समिति का वातावरण प्रेमपूर्ण होता है। समिति में विचाराधीन सभी विषयों की गहन समीक्षा होती है। संबंधित संस्था या व्यक्ति समिति की कार्यवाही के सामने जवाब देता है। समिति अपने विचाराधीन जांच योग्य अथवा अन्वेषणाधीन विषय के संबंध में संबंधित व्यक्ति से मौखिक या लिखित साक्ष्य ले सकती है। प्रत्येक समिति के पारस साक्षियों को व्यक्तिगत रूप में बुलाने तथा पत्र और रिकार्ड मांगने के अधिकार हैं। स्थायी समितियों के समक्ष भी राष्ट्रजीवन से जुड़े लगभग सभी विषय आते हैं। इसीलिए स्थायी समितियों की संख्या सन 2004 में 17 से बढ़ाकर 24 कर दी गई है।

संसद के दोनों सदनों के सदस्यों को मिलाकर संयुक्त संसदीय समिति गठित की जाती है। ऐसी समिति अपने देश में काफी लोकप्रिय हुई है। आम जनता को 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला, बोफोर्स घोटाला, हर्षद मेहता घोटाला आदि की जांच में गठित संयुक्त संसदीय समितियां याद हैं। ऐसे महत्वपूर्ण प्रश्नों पर लोकसभा या राज्यसभा में गहन विचार विमर्श संभव नहीं था। जो समस्याएं मूल रूप में संपूर्ण सदन के सामने आई थीं, वही विषय समितियों में आकर आसानी से निष्कर्ष तक कैसे पहुंच गए। मूलभूत प्रश्न है कि संसद व्यवस्थित रूप में क्यों नहीं चलती? महत्वपूर्ण विधायन भी बिना बहस पारित होते हैं।

ब्रिटेन में भी समितियां हैं। सेलेक्ट कमेटी सरकारी विभागों की निगरानी करती है। इसी तरह पब्लिक अकाउंट कमेटी लोकव्यय की जांच करती है। संयुक्त संसदीय समिति में दोनों सदनों के सदस्य होते हैं। ब्रिटेन में बहुदलीय प्रणाली है। भारत की तरह अपने निश्चित अनुपात में विपक्षी दलों को भी सदस्यता मिलती है। भारत की लोक लेखा समिति के अध्यक्ष विपक्ष से चुने जाते हैं। अमेरिकी व्यवस्था में भी समितियां हैं। यहां दोनों सदनों की अलग-अलग समितियां हैं।

अब भारत की तरह अमेरिका में भी स्थायी समितियां हैं। अमेरिका में विदेश मामलों और वित्त से जुड़ी स्थायी समिति है। संयुक्त संसदीय समिति अमेरिका में भी है। जर्मनी, यूरोपीय संघ, फ्रांस और कनाडा में भी समिति प्रणाली है। कनाडा में नागरिक, विशेषज्ञ और एनजीओ किसी मामले में गवाही दे सकते हैं। यहां की लोक लेखा समिति में विपक्षी दल के सांसद अध्यक्ष बनाए जाते हैं। ये समितियां शक्तिशाली हैं और लोकतंत्र को मजबूत करती हैं। आस्ट्रेलिया में प्राक्कलन समिति सरकारी खर्च और बजट की गहराई से जांच करती है। जापान में स्थायी समितियां और मंत्रालय से संबंधित समिति भी हैं।

समितियों की उपयोगिता स्वयं सिद्ध है। मर्यादा पर कई खूबसूरत बातें कही गई हैं। एक समिति के अध्यक्ष ने 1959-60 की बैठक में समिति के कृत्य को समझाया और कहा, ‘आपका काम नीति निर्धारित करना नहीं है। संसद द्वारा जिस नीति का निर्धारण किया जाता है, आपका कर्तव्य यह है कि आप यह देखें कि उस नीति का पालन हो... साथ ही आपको यह भी देखना है कि उसके भिन्न वित्तीय प्रभाव न पड़ें। आप नीति संबंधी केवल उसी विषय की जांच कर सकते हैं-आपको उसका अधिकार तभी तो मिलता है, जिसमें खर्च अंतर्निहित होता है और आप यह देखें कि वह नीति ठीक ढंग से नहीं चल रही है।

जहां नीति के फलस्वरूप धन का अपव्यय होता है, आपको उसके संबंध में उचित ढंग से टिप्पणी करने का अधिकार है।’ संसद और विधानमंडल की कार्यवाही में एकता है। समिति प्रणाली की मजबूती से विधानसभाओं का कामकाज भी तेजस्वी होगा। संप्रति कार्यकाल बढ़ाने की मांग विचारणीय है। अच्छा हो कि इस विषय के औचित्य पर समग्र विचार करना जरूरी हो। इस पर यथास्थिति नियम समिति/संयुक्त संसदीय समिति द्वारा विचारण हो।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)