विचार: दवाओं की गुणवत्ता से समझौता, कफ सीरप बन गया किलर
कफ सीरप सेवन से बच्चों की मौत को एक चेतावनी के रूप में लिया जाए। यदि सबक नहीं सीखे गए तो आगे और घातक परिणामों का सामना करना पड़ सकता है।
HighLights
- <p>कफ सीरप बना जानलेवा</p>
- <p>गुणवत्ता नियंत्रण में कमी</p>
- <p>सख्त नियमों की आवश्यकता</p>
आदित्य सिन्हा। तमिलनाडु के श्रीपेरंबुदूर के बाहरी इलाके में एक छोटे दवा कारखाने के दरवाजे अब बंद हैं। श्रीसन फार्मास्यूटिकल्स नाम की इस कंपनी को लेकर तमिलनाडु ड्रग्स कंट्रोल डिपार्टमेंट ने पाया कि उसने ड्रग्स और कास्मेटिक्स अधिनियम के तहत 364 उल्लंघन किए। यहां बना कफ सीरप कोल्ड्रिफ मध्य प्रदेश और राजस्थान में 25 बच्चों की जिंदगी लील गया। इस सीरप में डाइथिलीन ग्लाइकोल जैसा विषैला तत्व मिला।
यह किडनी और लिवर को क्षति पहुंचाता है। निर्माण के अलावा कंपनी के स्तर पर और भी लापरवाही बरती गई। जैसे पैकिंग पर अनिवार्य चेतावनी नहीं दी गई कि चार साल से कम उम्र के बच्चों को इसका सेवन न करने दिया जाए। यह कोई पहली और अलग घटना नहीं है। गांबिया और उज्बेकिस्तान से लेकर मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा तक एक ही कहानी सामने आती है। इस कहानी में छोटे स्तर पर उत्पादन करने वाले नियमों को धता बताते हैं, निगरानी कमजोर और मामला बिगड़ने पर प्रतिक्रिया धीमी होती है।
यह मामला दर्शाता है कि भारत की विकेंद्रीकृत और अक्षम दवा नियामक प्रणाली खतरनाक रूप से पुरानी पड़ चुकी है। ऐसे मामले ‘दुनिया की फार्मेसी’ के रूप में पहचान बनाने वाले भारत की प्रतिष्ठा भी धूमिल करते हैं। करीब 200 से अधिक देशों को किफायती दवाएं उपलब्ध कराकर भारत वैश्विक जेनेरिक दवा बाजार का अग्रणी खिलाड़ी है। पीएम जन औषधि योजना की सफलता में जेनेरिक दवाओं की अहम भूमिका है। इसके तहत 5,600 करोड़ रुपये की दवाएं बेची गई हैं।
पिछले एक दशक के दौरान इस योजना से लोगों को करीब 30,000 करोड़ रुपये की बचत हुई है। जेनेरिक दवाएं बड़ी आवश्यकता हैं। हालांकि गुणवत्ता सुनिश्चित किए बिना ऐसी किफायती दवाएं और घातक हो सकती हैं, क्योंकि जिस तबके को राहत देने के लिए ये दवाएं बनाई जाती हैं, उनके लिए ही आफत बन जाती हैं। कफ सीरप से बच्चों की मौतें इस कड़वी सच्चाई को ही उजागर करती हैं कि भारत में सस्ती दवाएं तो उपलब्ध हुई हैं, पर उनकी गुणवत्ता सुनिश्चित करने पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा।
अक्सर यह सवाल उठता है कि जब जेनेरिक दवाओं में ब्रांडेड या पेटेंट दवाओं जैसे तत्व ही होते हैं तो कई बार वे अनुपयोगी क्यों साबित हो जाती हैं? इसका जवाब दवा निर्माण की प्रक्रिया से जुड़ा है। दवा में मूलभूत तत्व या एपीआइ उसका केवल एक हिस्सा होता है। बाकी फार्मूलेशन में फिलर्स, बाइंडर्स और कोटिंग जैसे पहलू भी होते हैं। ये निर्धारित करते हैं कि दवा कितनी जल्दी घुलती है और शरीर उनकी कितनी मात्रा अवशोषित करता है। इन पहलुओं में थोड़ा सा भी परिवर्तन दवा की प्रकृति एवं प्रभाव पर असर डाल सकता है।
चंडीगढ़ स्थित पोस्टग्रेजुएट इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च के डाक्टरों ने 2024 के एक अध्ययन में यह स्पष्ट किया। एंटीफंगल दवा इट्राकोनाजोल के 22 जेनेरिक संस्करणों की तुलना में उन्होंने पाया कि केवल 29 प्रतिशत जेनेरिक दवाओं ने दो सप्ताह में अपेक्षित स्तर हासिल किया, जबकि पेटेंट दवाओं में यह स्तर 73 प्रतिशत तक था। जेनेरिक दवाओं में छोटे-असमान आकार के पेलेट मिले, जो अवशोषण और प्रभावशीलता को प्रभावित करते थे। ये ऐसा अंतर नहीं, जो जानबूझकर छोड़ा जाए, बल्कि यह इसी को रेखांकित करता है कि असमान निर्माण मानक और कमजोर निगरानी परिणामों को कैसे प्रभावित करती है।
इस मोर्चे पर समस्या गहरी और संस्थागत है। दवा निर्माण के लिए भारत का केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन यानी सीडीएससीओ ही व्यापक रूप से नियम निर्धारित करता है, पर कारखानों को लाइसेंस देना, इकाइयों का निरीक्षण करना, नमूनों के परीक्षण जैसी अधिकांश शक्तियां राज्य औषधि नियामक प्राधिकरणों यानी एसडीआरए के पास हैं। निगरानी को लेकर विभिन्न राज्यों की क्षमताएं भी भिन्न हैं। कुछ राज्यों के पास सुदृढ़ प्रयोगशालाएं और प्रशिक्षित निरीक्षक हैं, जबकि कई राज्यों में तमाम इकाइयों के लिए अत्यंत सीमित मानव संसाधन होता है।
निर्माता इसी का फायदा उठाते हुए वहां उत्पादन को प्राथमिकता देते हैं, जहां नियामकीय ढांचा अपेक्षाकृत कमजोर होता है। यह नियामकीय तोड़ ही है। सीडीएससीओ ने 2018 में स्थिरता परीक्षण को अनिवार्य तो बनाया, पर कई राज्यों में परीक्षण संबंधी बुनियादी ढांचा ही नहीं है और यह नियम पुरानी दवाओं पर लागू भी नहीं होता। इससे भारत जैसी जलवायु वाले देश में एक बड़ा जोखिम पैदा होता है। भाटिया समिति (1954) से लेकर माशेलकर समिति (2003) ने यही सुझाया कि लाइसेंसिंग और गुणवत्ता नियंत्रण को एक राष्ट्रीय ढांचे के तहत लाया जाए, पर सुधारों की राह में राज्यों का रवैया अवरोध बना हुआ है।
श्रीसन मामला दिखाता है कि कैसे लापरवाहियों की अनदेखी होती है। यह 10 से भी कम कर्मियों के भरोसे चल रही थी। फिल्ट्रेशन सिस्टम और रिकाल तंत्र भी नहीं था। फिर भी उसे 2026 तक लाइसेंस हासिल था। पूर्ववर्ती कंपनी का सालों पहले वजूद खत्म होने के बावजूद सीमित निरीक्षण के जरिये उसने नया लाइसेंस हासिल कर लिया। नियम उल्लंघन का मामला तब तक सामने नहीं आया, जब तक कुछ नौनिहाल काल के गाल में नहीं समा गए।
भारत में कानूनों की कमी नहीं है। कमी है तो उन्हें ढंग से लागू करने की और जिम्मेदार लोगों को जवाबदेह बनाने की। समय आ गया है कि भारत में सीडीएससीओ के तहत एक केंद्रीकृत लाइसेंसिंग और निरीक्षण प्रणाली बनाई जाए, जो प्रत्येक उत्पाद, परीक्षण और रिकाल को जोड़ने वाले राष्ट्रीय डिजिटल ड्रग रजिस्ट्रार द्वारा संचालित हो। सभी नई-पुरानी दवाओं के लिए सालाना परीक्षण भी अनिवार्य करना होगा।
ग्लिसरीन और प्रोपिलीन ग्लाइकोल जैसे तत्वों की आपूर्ति शृंखलाओं का डिजिटल रिकार्ड बने और उन्हें कभी भी ट्रेस किया जा सके। राज्यों की शक्तियां उनके पास रहें, लेकिन मानकों के अनुपालन और सजा के प्रविधान पूरे देश में एकसमान हों। कफ सीरप सेवन से बच्चों की मौत को एक चेतावनी के रूप में लिया जाए। यदि सबक नहीं सीखे गए तो आगे और घातक परिणामों का सामना करना पड़ सकता है।
(लेखक लोक-नीति विश्लेषक हैं)
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