शंकर शरण। हाल में एनसीईआरटी के उस माड्यूल पर विवाद खड़ा हो गया, जिसमें भारत विभाजन के लिए जिन्ना और अंग्रेजों के साथ कांग्रेस को जिम्मेदार बताया गया। न तो पहली बार ऐसा कहा गया और न ही उस पर विवाद नया है। वास्तव में भारत विभाजन एक ऐसा बहुआयामी विषय है, जिसके विभिन्न पहलुओं को आज तक जब-तब कुरेदा जाता है। भारत विभाजन का कारण जिस एक व्यक्ति को समझा जाता है, वे थे मोहम्मद अली जिन्ना। यह अजीब विरोधाभास था कि नितांत इस्लाम विरोधी जीवनशैली वाले व्यक्ति ने इस मजहब के नाम पर अलग देश के निर्माण का लक्ष्य हासिल कर लिया।

जिन्ना अपनी जिद पर अड़ने और समझौते न करने वाले नेता थे, किंतु पाकिस्तान निर्माण के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं था। यदि अलगाववादी मानसिकता के साथ वृहद मुस्लिम समाज उनके पीछे लामबंद न हुआ होता तो पाकिस्तान कभी नहीं बन पाता। जिन्ना मुसलमानों के नेता बन ही तभी सके, जब उन्होंने मजहबी अंदाज अपनाया। पाकिस्तान के ही लेखक अजीज अहमद ने इसे ऐसे समझाया है, ‘जिन्ना ने मुस्लिम जनता का नहीं, बल्कि मुस्लिम सहमति ने जिन्ना का नेतृत्व किया। उनकी भूमिका एक साफ दिमाग वकील की थी, जो अपने मुवक्विल की इच्छा को बिलकुल सटीक शब्दों में रख सकता था।’

इसे भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि यदि कांग्रेस नेताओं में इस्लाम की सही जानकारी और अन्य राजनीतिक गुण रहे होते तो परिणाम भिन्न हो सकते थे। भारत एक रहता तो क्या होता, इस पर भी अंतहीन बहस हो सकती है। हालांकि 1946-47 के बीच का घटनाक्रम बताता है कि विभाजन को रोकना संभव था। ब्रिटिश सरकार फरवरी 1947 में ब्रिटिश संसद में घोषणा कर चुकी थी कि वह जून 1948 तक भारत को सत्ता सौंप देगी। भारत का विभाजन ब्रिटिश योजना नहीं थी। न ही भारत में कार्यरत ब्रिटिश अधिकारी ऐसा चाहते थे। तमाम प्रमाण दिखाते हैं कि ब्रिटिश सरकार ने कई कोशिशें कीं कि उनका बनाया ‘सुंदर साम्राज्य’ बना रहे।

व्यक्तित्वों का टकराव भी विभाजन की एक बड़ी वजह बना। जिन्ना और कांग्रेस नेताओं में एक-दूसरे के प्रति भारी दुराग्रह था। नेहरू जिन्ना को ‘मामूली वकील’ और अल्पशिक्षित मानते थे, जबकि जिन्ना नेहरू को ‘घमंडी ब्राह्मण’ समझते थे। जिन्ना में जिद, अड़ियलपन, बेरुखी और तुरंत चिढ़ जाने जैसे कई दोष थे, लेकिन आत्मबल और दृढ़ता जैसे गुण भी थे। जिन्ना में हल्कापन या कोरी हवाबाजी जैसी बात न थी। यह नेहरू के आकलन की गलती थी कि जिन्ना पाकिस्तान को लेकर गंभीर नहीं और केवल अपना महत्व बढ़ाने को हवा बांध रहे हैं।

इसी गलतफहमी में नेहरू ने जिन्ना और मुस्लिम लीग की उपेक्षा की और कैबिनेट मिशन योजना स्वीकार करने के बाद 10 जुलाई 1946 को मुकर गए। इसके बुरे परिणाम हुए। नेहरू के कैबिनेट मिशन संबंधी बयान के तुरंत बाद जिन्ना ने 27 जुलाई, 1946 को इस योजना को दिया समर्थन वापस ले लिया। इसके साथ ही पाकिस्तान की मांग को लेकर 16 अगस्त 1946 को ‘डायरेक्ट एक्शन’ दिवस का आह्वान किया। तब बंगाल का प्रांतीय शासन मुसलमानों के हाथ में था और शाहिद सुहरावर्दी के पास कमान, जिसने खुल कर मुसलमानों को हिंसा के लिए भड़काया। डायरेक्ट एक्शन के दौरान भीषण रक्तपात में कोलकाता (कलकत्ता) में करीब 3,000 लाशें बिछ गईं। हजारों घायल हुए।

कलकत्ता में भीषण नरसंहार के बाद केवल लार्ड वावेल वहां गए। गांधी, नेहरू और जिन्ना में से कोई नहीं गया, जिनकी अदूरदर्शिता से इतना बड़ा संहार हुआ। इसके बाद भी वावेल अविभाजित भारत बनाए रखने की कोशिश में लगे रहे। उस पर टिके रहने के लिए उन्हें अपमानित होकर पद से हटना पड़ा, क्योंकि कांग्रेस और मुस्लिम लीग की सहमति बनने के लिए ब्रिटिश सरकार बहुत इंतजार नहीं करना चाहती थी। उसने फरवरी 1947 में लार्ड माउंटबेटन को वायसराय बनाने और जून 1948 तक भारत को सत्ता हस्तांतरण करने की घोषणा कर दी। माउंटबेटन 22 मार्च 1947 को भारत पहुंचे। उन्होंने सबको अपने व्यक्तित्व से प्रभावित कर लिया। यदि माउंटबेटन के आकर्षण से कोई बिल्कुल निर्विकार रहा, तो वे थे जिन्ना।

अपने लक्ष्य के प्रति कटिबद्ध जिन्ना प्रत्येक व्यक्ति, घटना, बयान आदि को पूरे ध्यान से देखने के आदी थे। जिन्ना अपने प्रतिद्वंद्वी या दुश्मन को अपनी भावनाओं की भनक नहीं लगने देते थे, ताकि वह उसका लाभ न उठा सके। इसीलिए किसी की प्रशंसा या शिष्टाचार का जिन्ना पर कोई असर नहीं होता था। माउंटबेटन का भी नहीं हुआ।

अपनी पहली मुलाकात में गांधीजी ने माउंटबेटन को प्रस्ताव दिया कि वे जिन्ना को ही अंतरिम सरकार का प्रमुख नियुक्त कर दें और यह जिन्ना पर छोड़ दें कि किसे वे अपने मंत्रिमंडल में लेते या नहीं लेते हैं, ताकि आपसी झंझट खत्म हो और सत्ता हस्तांतरण का रास्ता साफ हो।

पहले माउंटबेटन ने इस प्रस्ताव पर विचार का आश्वासन दिया, किंतु अन्य कांग्रेस नेताओं का रुख देखकर इसे अव्यावहारिक मानकर छोड़ दिया। उन्होंने पाया कि नेहरू-पटेल विभाजन को लेकर मन बना चुके हैं। अंतत: माउंटबेटन ने 3 जून 1947 को विभाजन प्रस्ताव की रूपरेखा दी, जिसे दोनों पक्षों ने स्वीकार कर लिया। नेहरू-पटेल द्वारा विभाजन की बात स्वीकार कर लेने के बाद गांधीजी ने भी विरोध छोड़ दिया। राममनोहर लोहिया के अनुसार सत्ता की अधीरता में नेहरू और पटेल ने गांधीजी को बिना बताए, विभाजन कर लेना पहले ही तय कर लिया था।

कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक (14-15 जून 1947) में लोहिया मौजूद थे, जिसने विभाजन स्वीकार किया। इसीलिए वावेल ने अपनी डायरी में लिखा, ‘कांग्रेस में कोई स्टेट्समैनशिप या उदारता नहीं है।’ इस तरह जिस काम के लिए ब्रिटिश सरकार ने 16 माह का समय निश्चित किया था, उसे माउंटबेटन ने पांच महीने से भी कम में निपटा दिया। इसमें उनका आत्मविश्वास और भारतीय नेताओं की अनिश्चितता, थकान और सत्ता पाने की अधीरता का भी हाथ था। इसे भूला न जाए कि यह विभाजन बहुत ही त्रासद साबित हुआ।

(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)