डॉ. हरबंश दीक्षित। कई बार आधारहीन, किंतु लोक-लुभावन जुमले लोकतंत्र को घातक चोट पहुंचाते हैं। वोट-चोरी जैसा आरोप इसी तरह के प्रयासों में से एक है। लोकतंत्र केवल चुनावों से ही नहीं, अपितु चुनाव-प्रक्रिया पर जनता के भरोसे पर पुष्पित-पल्लवित होता है।

इसके लिए जरूरी है कि मतदान केंद्र पर कतार में अपनी बारी का इंतजार करते हुए मतदाताओं के मन में यह अटूट भरोसा हो कि उनका वोट सुरक्षित है और उनका निर्णय देश की दिशा तय करेगा। हाल के दिनों में कांग्रेस की आगुआई में कुछ दलों द्वारा वोट-चोरी जैसे आरोपों ने इस विश्वास को चुनौती देने का प्रयास किया है। इससे चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की साख को चोट पहुंच रही है।

संविधान निर्माताओं ने संविधान के भाग-15 में एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव आयोग की स्थापना की। चुनाव प्रक्रिया को निष्पक्ष बनाए रखने के लिए संसद ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम-1950, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 तथा रजिस्ट्रेशन आफ इलेक्टोरल रूल्स-1960 बनाया, जिनमें मतदाता सूची के निर्माण, उसका प्रकाशन, उन पर आपत्तियों का आमंत्रण और उनके सम्यक निस्तारण की चरणबद्ध व्यवस्था है। यदि कोई व्यक्ति किसी अधिकारी के निर्णय से असंतुष्ट है तो उसे अपील का अधिकार है।

उसके पास अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालय जाने का विकल्प भी उपलब्ध है। इस पूरी कानूनी व्यवस्था का उद्देश्य यह है कि किसी के साथ अन्याय न हो। एक व्यक्ति को केवल एक जगह ही मतदान का अधिकार हो। किसी का नाम छूट गया है तो वह अपना नाम जोड़ने के लिए आवेदन करे और किसी ऐसे व्यक्ति का नाम जुड़ गया है, जो मतदाता होने का हकदार नहीं है, तो उस पर आपत्ति दर्ज करके उसे हटाया जा सके। यह पूरी प्रक्रिया दुनिया के दूसरे किसी भी लोकतंत्र से अधिक पारदर्शी है। यही कारण है कि शीर्ष न्यायालय ने कभी इस प्रक्रिया पर प्रश्न नहीं उठाया।

चुनाव आयोग पर वोट चोरी के आरोपों का सबसे निराशाजनक पहलू यह है कि यह अपनी असफलता को छिपाने के लिए किया जा रहा है। हालांकि देर-सबेर जनता इसकी सच्चाई को समझ जाएगी, किंतु कई बार इससे फौरी तौर पर घातक और कई बार अपूरणीय क्षति हो जाती है। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप ने 2020 के चुनावों के बाद इसी तरह के जुमले का प्रयोग करते हुए चुनाव-चोरी का आरोप लगाया था।

परिणाम यह हुआ कि अमेरिका के लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार कैपिटल हिल पर हिंसा भड़क उठी और अमेरिकी लोकतंत्र की छवि को गहरी चोट पहुंची। ब्राजील भी इस तरह के आरोपों की सजा भुगत चुका है। पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देश भी इसकी कीमत चुका रहे हैं। चूंकि हमारे देश में एक मजबूत कानूनी एवं न्यायिक ढांचा है और अधिकांश जनता भी परिपक्व है, लिहाजा किसी उथल-पुथल की आशंका नहीं है। इस तरह के सस्ते हथकंडों का प्रयोग राजनीतिक दलों की नींव को ही कमजोर करता है।

लोकतंत्र में आलोचना का अधिकार सभी को है। यदि किसी व्यक्ति को मतदाता सूची के पुनरीक्षण की प्रक्रिया में किसी का नाम जुड़ने या हटने पर आपत्ति है, तो उसे अदालत जाने का अधिकार है, किंतु इन विकल्पों के प्रयोग के बजाय किसी प्रमाण के बिना ही ‘वोट चोरी’ जैसे जुमले के प्रयोग से जनता में भ्रम और संदेह फैलता है, जो किसी के भी हित में नहीं है। राजनीतिक दलों का दायित्व है कि वे राजनीतिक लड़ाई के लिए झूठ और फरेब का सहारा न लें। वे जनता को लोकतंत्र की शक्ति में विश्वास दिलाएं। उन्हें निराश न करें।

संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं पर प्रहार करना दीर्घकालिक रूप से लोकतंत्र को कमजोर करता है। ऐसा करके दल अनजाने में उसी डाल को काट रहे होते हैं, जिस पर वे बैठे हैं। उन्हें याद रखना चाहिए कि वे तभी तक सुरक्षित हैं, जब तक लोकतंत्र की जड़ों को जनविश्वास का पोषण मिलता रहता है। एक बार उसके टूटने पर सबकी सुरक्षा खतरे में पड़ती है। परिपक्व लोकतंत्र में राजनीतिक दलों से विशेष रूप से अपेक्षा की जाती है कि संवैधानिक संस्थाओं की आलोचना तथ्यों पर आधारित हो। यदि किसी को कोई आपत्ति है, तो वह अनर्गल आरोपों के बजाय कानूनी प्रक्रिया के द्वारा उसका हल ढूंढ़े।

नेताओं के शब्द उनके समर्थकों के लिए मंत्र की तरह होते हैं। इसे वे अपने लिए दिशानिर्देश की तरह लेते हैं। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए उन्हें अपनी भाषा और शब्दावली पर संयम बरतना चाहिए। ‘वोट-चोरी’ जैसा नारा मुमकिन है कि कुछ भीड़ आकर्षित कर ले, किंतु इससे लोकतंत्र के आत्मा को गहरी चोट पहुंच रही है।

चुनाव आयोग पर लगाए जाने वाले आरोपों और आयोग के जवाब से यह साफ है कि देश को अभी भी संवैधानिक मर्यादा और जिम्मेदार राजनीति की जरूरत है। यदि संविधान में सच्ची आस्था है तो दलों को लोकतंत्र को सुरक्षित रखने के लिए संस्थाओं का सम्मान करना चाहिए। यही जन-विश्वास को बनाए रखने का एकमात्र रास्ता है।

(लेखक तीर्थंकर महावीर विवि, मुरादाबाद में विधि संकाय के डीन हैं)