विचार: भारतीय आत्मा का आलोकित उत्सव दीपावली, मनुष्य का अर्थ ही प्रकाश है
दीपावली केवल परंपरा नहीं, अस्तित्व की निरंतरता का प्रतीक है। हर युग में, हर परिस्थिति में, जब भी अंधकार गहराता है, मनुष्य अपने भीतर से दीपावली खोज लेता है-कभी प्रेम के रूप में, कभी कला के, कभी करुणा के और कभी कविता के, क्योंकि अंततः मनुष्य का अर्थ ही प्रकाश है-और दीपावली उसी अर्थ की पुनर्स्मृति।
HighLights
- <p>दीपावली: भारतीय संस्कृति का पर्व</p>
- <p>प्रकाश अंधकार पर विजय का प्रतीक</p>
परिचय दास। दीपावली केवल एक पर्व नहीं, बल्कि भारतीय आत्मा का आलोकित उत्सव है, अंधकार से संवाद करने की कला है और निराशा के बीच आशा का दीप जलाने का नाम है। हर वर्ष जब कार्तिक अमावस्या आती है, तब समूचा भारत जैसे एक साथ सांस लेता है-धीरे, स्थिर, श्रद्धा से भरा हुआ। गांव की कच्ची गलियां हों या महानगर की ऊंची इमारतें, हर जगह कोई न कोई दीप किसी स्मृति, किसी प्रार्थना, किसी सपने के नाम जलता है। यह रोशनी बाहर जितनी दिखती है, भीतर उतनी ही उतरती है, क्योंकि दीपावली बाहरी उजास से अधिक भीतर के अंधेरे को पहचानने और उसे प्रेमपूर्वक आलोकित करने की प्रक्रिया है।
मिट्टी के दीये का अपना सौंदर्य है। वह भले ही छोटा हो, पर उसका प्रकाश सबसे कोमल और सबसे सच्चा होता है। उसमें मनुष्य का परिश्रम है, धरती की गंध है और आस्था की गर्मी है। वह दीप जब जलता है, तब लगता है जैसे किसी किसान की हथेली, किसी मां के नेत्र, किसी बच्चे की हंसी-सब मिलकर उस लौ को थरथरा रहे हों। यही मिट्टी का दीया हमारे जीवन की सबसे गहरी प्रतीक-कथा कहता है कि जो झुकता है, वही जलता है, जो मिटता है, वही प्रकाशित होता है।
दीपावली का उत्सव केवल लक्ष्मी की आराधना नहीं है, बल्कि श्रम और सौंदर्य, करुणा और स्मृति, उत्सव और साधना का संगम है। इस दिन हर व्यक्ति, चाहे गरीब हो या अमीर, कुछ न कुछ सजाता है-अपना घर, अपना मन या अपनी आशा। यह सजावट केवल भौतिक नहीं, मनोवैज्ञानिक भी है। यह सजाने, संवारने, संजोने का उत्सव है-जैसे हम अपने भीतर के अस्त-व्यस्त भावों को भी दीपों की पंक्तियों में सजा दें। कवियों ने हमेशा दीपावली को प्रकाश और अंधकार के संघर्ष के रूप में देखा है, पर यदि ध्यान से देखें तो यह संघर्ष नहीं, संवाद है। अंधकार प्रकाश का शत्रु नहीं, उसका आवश्यक आधार है। बिना अमावस्या के चांद का अर्थ अधूरा है।
दीप का सौंदर्य तभी खिलता है, जब उसके चारों ओर घना अंधेरा हो। जीवन भी ऐसा ही है। अंधकार हमें प्रकाश का मूल्य सिखाता है, दुख हमें आनंद की गरिमा दिखाता है और हानि हमें प्रेम की गहराई समझाती है। जब सांझ उतरती है और बच्चे पहली फुलझड़ी जलाते हैं तो आकाश में केवल चिंगारियां नहीं उठतीं, वहां हजारों इच्छाएं भी उड़ती हैं। दीपावली का प्रकाश वस्तुतः उन अनगिनत स्वप्नों का प्रतिरूप है, जो मनुष्य के हृदय में सदा जलते रहते हैं। जब चारों ओर दीपों की पंक्तियां थिरक रही होती हैं और हवा में एक अजीब शांति होती है। यह क्षण वह है जब मनुष्य अपने भीतर के ईश्वर से मिलता है-न किसी मूर्ति में, न किसी ग्रंथ में, बल्कि उस छोटी सी लौ में, जो बाहर भी है और भीतर भी।
दीपावली का अर्थ हर व्यक्ति के लिए अलग है। किसी के लिए यह संपन्नता का प्रतीक है, किसी के लिए मिलन का और किसी के लिए स्मृति का। बूढ़ी मां जब पुराने दीयों को साफ करती है तो हर दीए में उसे बीते वर्षों की परछाई दिखती है। अब वह दीया जलाती है तो उसमें एक तरह की मौन प्रार्थना होती है कि उजाला केवल घर का न हो, मन का भी हो। साहित्य में दीपावली केवल एक दृश्य नहीं, एक प्रतीक है-प्रकाश का, ज्ञान का, सत्य का। किसी ने इसे राम के अयोध्या लौटने का उत्सव कहा, किसी ने आत्मा की विजय का, किसी ने प्रेम के पुनर्जन्म का, पर सबका सार एक ही रहा-अंधकार से प्रकाश की ओर, भय से विश्वास की ओर, बाह्य से अंतर की ओर यात्रा।
संस्कृति के स्तर पर दीपावली हमें यह सिखाती है कि उत्सव केवल प्रदर्शन नहीं, संवेदना है। यह पर्व हमें जोड़ता है-परिवारों से, पड़ोसियों से और यहां तक कि अजनबियों से भी। एक दीप किसी और के द्वार रख देना, यह बताना है कि हम साथ हैं, हम एक ही प्रकाश में जी रहे हैं। यही भारतीयता का हृदय है-‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।’ जब रात गहराती है और दीप धीरे-धीरे बुझने लगते हैं, तब भी उनकी लौ की छाया दीवारों पर बनी रहती है। वह छाया एक स्मृति बन जाती है कि उजाला क्षणभंगुर है, पर उसका प्रभाव अनंत। शायद इसी भाव से कवि कहता है-जो दीप जलता है, वह बुझता नहीं, वह हृदय में उतर जाता है।
दीपावली का सबसे गहन अर्थ यही है-भीतर का दीप जलाना। यह भीतर का दीप तब तक नहीं जलता, जब तक हम अहंकार की कालिख न मिटा दें, ईर्ष्या का धुआं न हटाएं और स्वार्थ की ठंडी राख को न झाड़ दें। जब भीतर की सफाई हो जाती है, तब हर मन स्वयं दीप बन जाता है। जैसे हर घर में नहीं, हर आत्मा में दीपावली मनाई जा रही हो। वहां कोई शोर नहीं, कोई आतिशबाजी नहीं-सिर्फ एक धीमी, निर्मल, आत्मीय रोशनी।
वही सच्ची दीपावली है-जो संसार को नहीं, आत्मा को आलोकित करती है। उसी क्षण मनुष्य देवत्व को छू लेता है। दीपावली केवल परंपरा नहीं, अस्तित्व की निरंतरता का प्रतीक है। हर युग में, हर परिस्थिति में, जब भी अंधकार गहराता है, मनुष्य अपने भीतर से दीपावली खोज लेता है-कभी प्रेम के रूप में, कभी कला के, कभी करुणा के और कभी कविता के, क्योंकि अंततः मनुष्य का अर्थ ही प्रकाश है-और दीपावली उसी अर्थ की पुनर्स्मृति।
(लेखक नव नालंदा महाविहार विश्वविद्यालय, नालंदा में प्रोफेसर हैं)
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