विचार: बना रहे अयोध्या का प्राचीन स्वरूप, बहुमूल्य विकास-कार्यों में अयोध्या-भाव का अनुपस्थित होना सोच में डालता है
कोई भी नया निर्माण पुरातात्विक अनुसंधान का विषय बन जाता है। यही संसार की सच्चाई है। अयोध्या को सजाते-संवारते हुए इस विचार की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि आने वाली पीढ़ियां जब अयोध्या को खोजती हुई आएंगी तो वे यहां रामायण के संदर्भ पा सकेंगी या फिर उन्हें आज की चुनावी परिस्थितियों के दबाव में गढ़े गए आभासी निर्माणों के साक्ष्य प्राप्त होंगे।
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- <p>अयोध्या: सनातन धर्म के मूल्यों का संगम</p>
मिथिलेशनंदिनी शरण। दीवाली पर जगमग होने को तैयार अयोध्या भगवान विष्णु की पहली पुरी है। इसका तात्पर्य प्राचीनतम बसावट से है। यह प्राचीनता सनातन धर्म के मूल्य-मान की आदिम अवधारणाओं को भी सहेजे हुए है। आज की दुनिया में पुरुषार्थ की परिभाषा बदल चुकी है और मोक्ष-कामना हमारे जीवन को अनुशासित नहीं करती तथापि हमारी ज्ञान-परंपरा में मुक्ति एक विशिष्ट विचार है, जो संपूर्ण भारतीय वाङ्मय के केंद्र में विद्यमान है।
अयोध्या के होने का अर्थ है हमारी सनातन जीवन दृष्टि का होना। आक्रमणकारी अभ्यागतों तथा औपनिवेशिक दुरभिसंधियों ने अयोध्या को पीढ़ियों तक मलिन किए रखा। अब जब अयोध्या पुनः अपनी अस्मिता और अपनी आध्यात्मिकता को उजागर करने की ओर है तब, इस पड़ाव तक पहुंचने में धर्म-संस्कृति के साथ ही बड़े राजनीतिक बल का विनियोग भी दृष्टि में आता है।
देश के इतिहास-भूगोल और लोक-आस्था के विषय को राजनीतिक दल अपना एजेंडा बनाते ही हैं। अयोध्या भी एक एजेंडा बनकर इस परिणति तक आई है। तटस्थ होकर देखा जा सकता है कि श्रीरामजन्मभूमि ने भाजपा को विपक्ष से सरकार में बदल दिया। भाजपा ने भी उजाड़ अयोध्या को जगमगाते शहर में बदलने में कोई कसर नहीं रखी, पर इस बदलाव के बीच कुछ बिंदु दृष्टिगोचर होते हैं, जो प्रश्नात्मक होते जाते हैं। आधुनिकता में उद्भासित होती हुई अयोध्या का मानक क्या हो, यह प्रश्न दिनों-दिन बड़ा होता जाता है। अयोध्या की एक शाश्वत पहचान धर्मनगरी की है।
वेद-पुराण-आगम तथा अन्य अनेक साहित्य में यह हिंदू धर्म का प्रधानतम केंद्र है, किंतु सांस्कृतिक समरसता का आवरण ओढ़े राजनीतिक प्रयोग इस पहचान का निर्वाह करने को लेकर कितने सावधान हैं, यह संशयग्रस्त है। अपनी देशव्यापी स्वीकार्यता के कारण अयोध्या राजनीतिक समीकरणों की प्रयोगशाला बनने की दुश्चिंताओं से घिर रही है। यह कदाचित उसके श्रीरामजन्मभूमि वापस पाने का महंगा मूल्य सिद्ध हो। बीते वर्षों में ऐसे कई प्रसंग उभरे हैं, जिन पर ध्यान जाना स्वाभाविक है। अयोध्या की संसदीय सीट पर भाजपा की हार और उसके बाद मिल्कीपुर विधानसभा उपचुनाव जीतने की कवायद, दोनों ही अयोध्या के मौलिक चरित्र को मलिन करने के उदाहरण बने।
इसी प्रकार अयोध्या के बहुमूल्य विकास-कार्यों में प्रायः अयोध्या-भाव का अनुपस्थित होना सोच में डालता है। अयोध्या अपने मठ-मंदिरों की सेवा-चर्या अथवा उनके संरक्षण-संवर्धन से आगे बढ़कर कोई पक्ष नहीं रखती। इसका दुष्परिणाम यह है कि बदलती और बहुत-कुछ विरूपित होती जाती अयोध्या की पैरवी करता कोई स्वर सुनाई नहीं देता। अधिकांश योजनाएं कंपनियां और ठेकेदार बनाते हैं और शासन उन्हें अनुमति तथा धन देता है। अयोध्या को उसके औचित्य अथवा स्वरूप का कोई संज्ञान नहीं रहता।
अयोध्या के संतों के आग्रह पर ब्रिटिश शासन में यहां के कुछ विशिष्ट स्थलों के संरक्षण हेतु लगभग डेढ़ सौ शिलालेख लगाए गए थे। बाहरी परिक्षेत्र को जाने भी दें तो भीतरी अयोध्या में भी उनका सत्यापन-संरक्षण नहीं हो पा रहा है। अयोध्या की पहचान के स्थल पौराणिक अथवा रामायणपरक होने से अधिक संगत होंगे। देश की महान विभूतियों को यहां सम्मान देने का और अधिक सुचिंतित ढंग हो सकता है। कुछ दिन पहले अयोध्या के एक मार्ग का नाम बदलकर दक्षिण के एक प्रतिष्ठित आचार्य के नाम पर किया गया।
यह मार्ग काफी पहले से नगर निगम की विधि व्यवस्था द्वारा अयोध्या की संगीत पंरपरा के एक विशिष्ट महानुभाव के नाम पर समर्पित था। वे अयोध्या की संगीत परंपरा के गौरव रहे, पर उनके उत्तराधिकारी इस नाम-परिवर्तन को रोकने में अक्षम रहे। यहां प्रश्न किसी एक नाम के होने या न होने तक सीमित नहीं है। यह चिंता अयोध्या के वैश्विक होने में इसकी अपनी स्थानिकता और इसकी मौलिकता के ध्वंस की है।
हाल में अयोध्या के पौराणिक स्थल बृहस्पति कुंड के जीर्णोद्धार के बाद लोकार्पण किया गया। अतिक्रमण तथा रामपथ के चौड़ीकरण से अति संकीर्ण हो चुका यह बृहस्पति कुंड अयोध्या के केंद्रीय भूभाग में अवस्थित महत्वपूर्ण स्थल है, जिसका उल्लेख रुद्रयामल के चौदहवें अध्याय तथा स्कंदपुराण के अयोध्या माहात्म्य में सातवें अध्याय में किया गया है। इस कुंड का जीर्णोद्धार करते हुए यहां दक्षिण भारत के तीन प्रमुख संतों की प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं। यह स्वागतयोग्य है। इस स्थल की सजावट में द्वार पर दोनों ओर बुद्ध के चेहरे लगाए गए हैं, पर बृहस्पति कुंड की पौराणिक पहचान वाले इस तीर्थ पर देवगुरु बृहस्पति की प्रतिमा ही नहीं लगाई गई।
कोई भी नया निर्माण पुरातात्विक अनुसंधान का विषय बन जाता है। यही संसार की सच्चाई है। अयोध्या को सजाते-संवारते हुए इस विचार की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि आने वाली पीढ़ियां जब अयोध्या को खोजती हुई आएंगी तो वे यहां रामायण के संदर्भ पा सकेंगी या फिर उन्हें आज की चुनावी परिस्थितियों के दबाव में गढ़े गए आभासी निर्माणों के साक्ष्य प्राप्त होंगे। जिनका शास्त्रों से परिचय है, वे जानते हैं कि अयोध्या अपनी प्राचीन अवस्थिति से ही समन्वयमूलक है। इसके सैकड़ों तीर्थ, ऐतिहासिक स्थल तथा कथाएं संपूर्ण भारत की एकात्मता के उदहारण हैं। इस मोक्षदायिनी पुरी का पुनरुद्धार इसकी मौलिकता, ऐतिहासिकता तथा आध्यात्मिकता के हनन की शर्त पर नहीं होना चाहिए।
(लेखक श्रीहनुमन्निवास अयोध्या के महंत हैं)
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