विचार: देश को निराश करती संसद, हंगामे की भेंट चढ़ गया मानसून सत्र
लोकसभा चुनाव में भाजपा को अकेले दम बहुमत से वंचित करने से उत्साहित विपक्ष संसद के पहले सत्र में आक्रामक दिखा था। फिर हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा की जीत से वह उत्साह उड़नछू हो गया और सत्तापक्ष की आक्रामकता लौट आई। कुछ मुद्दों पर तकरार अनपेक्षित नहीं है लेकिन उसका मर्यादा की सीमाएं लांघ जाना स्वीकार्य नहीं हो सकता।
राज कुमार सिंह। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद ने एक बार फिर देश को निराश किया। 21 जुलाई से 21 अगस्त तक चले संसद के मानसून सत्र में भी काम कम, हंगामा ज्यादा हुआ। लोकसभा में मात्र 37 घंटे कामकाज हो पाया तो राज्यसभा में 41 घंटे 15 मिनट। करदाताओं की मेहनत की कमाई से चलने वाली संसद में हंगामा कभी भी सुखद नहीं कहा जा सकता।
मानसून सत्र कठिन चुनौतियों के साये में हुआ था, फिर भी संसद में ऐसा कुछ नहीं दिखा कि सांसदों को देश की चुनौतियों का भान है। हमेशा की तरह शोर-शराबे के बीच ही सरकार अपना विधायी कामकाज निपटाने में सफल हो गई, लेकिन संसदीय कार्यवाही की दृष्टि से लोकसभा में 83 घंटे और राज्यसभा में 73 घंटे हंगामे की भेंट चढ़ गये। संसद की कार्यवाही पर आने वाले खर्च की नजर से देखें तो 204 करोड़ रुपये से भी ज्यादा हंगामे के चलते बर्बाद हो गए। यह तय है कि हमारे सांसद कभी ‘काम नहीं, तो वेतन नहीं’ की नैतिकता नहीं दिखायेंगे।
पहलगाम पर आतंकी हमला, उसके जवाब में आपरेशन सिंदूर, ट्रंप का संघर्ष विराम का श्रेय लेने का अंतहीन राग तथा उनकी ही ओर से छेड़े गये टैरिफ युद्ध जैसी जटिल चुनौतियों के साये में हुए मानसून सत्र में संसद का देश हित से विमुख हो कर दलगत राजनीति का बंधक बन जाना देश के प्रति एक प्रकार का अपराध ही है। संसद से अपेक्षा थी कि अपनी संवैधानिक भूमिका का निर्वाह करते हुए इन तमाम मुद्दों पर गंभीर चर्चा से देश का मार्गदर्शन करेगी, लेकिन पूरा सत्र ही दलगत राजनीति से प्रेरित आरोप-प्रत्यारोप और हंगामे की भेंट चढ़ गया। हंगामा अक्सर विपक्ष ही करता है, लेकिन काम से ज्यादा हंगामे की बढ़ती प्रवृत्ति के लिए किसी एक पक्ष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
अगर राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े आतंकवाद और आपरेशन सिंदूर जैसे मुद्दों पर भी हमारी संसदीय चर्चा की दिशा दलगत राजनीति तय करेगी तो फिर वर्तमान राजनीति की दशा-दिशा के बारे में कहने को ज्यादा कुछ नहीं रह जाता। हमने बहुदलीय लोकतंत्र चुना है। इसलिए दलगत विभाजन और नीतिगत मतभिन्नता स्वाभाविक है। उसका सम्मान भी किया जाना चाहिए। सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों की अपनी-अपनी भूमिकाएं हैं, पर जरूरी नहीं कि वे हमेशा परस्पर विरोध की ही रहें।
सत्तापक्ष के कामकाज पर विपक्ष निगरानी रखे, जरूरत होने पर रोक-टोक भी करे, लेकिन देशहित और जनहित के मुद्दों पर दोनों में सहमति और समन्वय की अपेक्षा भी संविधान और संसदीय लोकतंत्र करता है, जो हाल के दशकों में हमारी राजनीति से नदारद है। कड़वा सच यह है कि दोनों ही पक्ष एक-दूसरे की भूमिकाओं को मन, वचन और कर्म से स्वीकार नहीं कर पाए हैं। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस एक दशक बाद भी स्वीकार करती नहीं दिख रही कि अब भाजपा सत्ता में है और वह विपक्ष में। दूसरी ओर तमाम तरह के दागी और बागी कांग्रेसियों को गले लगाने के बावजूद भाजपा कांग्रेसमुक्त भारत के सपने में ही जी रही है, जबकि लोकसभा में 99 सांसदों के अलावा कांग्रेस की तीन राज्यों में सरकार भी है।
इस वास्तविकता के साथ ही देशहित और जनहित से मुंह मोड़ने का भी परिणाम है कि आपरेशन सिंदूर और संघर्ष विराम सरीखे संवेदनशील मामलों में भी सत्तापक्ष और विपक्ष अपने-अपने राजनीतिक मु्द्दों को ही धार देते नजर आए। यह संभव नहीं कि सत्तापक्ष वही जवाब दे, जो विपक्ष सुनना चाहता है। संभव यह भी नहीं है कि विपक्ष श्रृद्धालु बनकर सत्तापक्ष के जवाब को प्रवचन की तरह सुने। जटिल मुद्दों पर दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर सहमति और समन्वय की जरूरत होती है।
अतीत में कई मौके आए, जब दलगत मतभिन्नता से ऊपर उठ कर सत्तापक्ष और विपक्ष ने देशहित और जनहित में सहमति और समन्वय की परिपक्वता दिखाई, पर तब शायद ऐसी परस्पर कटुता नहीं थी। अब तो दलगत राजनीति एक तरह की निजी रंजिश में तब्दील दिखती है। इसीका नतीजा है कि विपक्ष को सत्तापक्ष निर्वाचित सरकार के बजाय तानाशाह नजर आता है तो सत्तापक्ष को विपक्ष देशविरोधी। इस चश्मे की अपनी सीमाएं हैं, जो लगातार उजागर हो रही हैं और उसकी कीमत देश चुका रहा है। काम के बजाय हंगामा ज्यादा करने की प्रवृत्ति की बात अतिरंजना हर्गिज नहीं है। इस साल के बजट सत्र को अपवाद मान लें तो पिछले साल शीतकालीन सत्र में भी संसद की सर्वोच्चता की प्रति अत्यंत संवेदनशील हमारे प्रतिनिधि काम से ज्यादा हंगामा करते दिखे थे।
लोकसभा चुनाव में भाजपा को अकेले दम बहुमत से वंचित करने से उत्साहित विपक्ष संसद के पहले सत्र में आक्रामक दिखा था। फिर हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा की जीत से वह उत्साह उड़नछू हो गया और सत्तापक्ष की आक्रामकता लौट आई। कुछ मुद्दों पर तकरार अनपेक्षित नहीं है, लेकिन उसका मर्यादा की सीमाएं लांघ जाना स्वीकार्य नहीं हो सकता। एक-दूसरे के प्रति आपत्तिजनक भाषा और व्यवहार अब आम हो चला है। पिछले सत्र में तो बात धक्का-मुक्की तक पहुंच गई थी।
भाजपा ने आरोप लगाया कि नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने संसद में प्रदर्शन के दौरान उसके सांसदों को धक्का दिया, जिसमें उसके दो सांसद प्रताप सारंगी और मुकेश राजपूत घायल हो गए। इस मामले में राहुल के विरुद्ध छह धाराओं में एफआइआर दर्ज कराई गई थी। अप्रैल में पहलगाम में 26 निर्दोष पर्यटकों की उनका मजहब पूछकर निर्मम हत्या के बाद सर्वदलीय एकजुटता से उम्मीद जगी कि शायद देशहित के मुद्दों पर हमारी राजनीति दलगत संकीर्णता से उबरने की परिपक्वता रखती है, लेकिन उसे टूटने में ज्यादा समय नहीं लगा।
सुरक्षा चूक की जवाबदेही और संघर्ष विराम की शर्तों के खुलासे की मांग से शुरू राजनीति चीन को जमीन सौंपने से ले कर पीओके वापस लिए बिना 1971 के पाक सैनिक बंदियों की रिहाई पर गैर जिम्मेदार आरोप-प्रत्यारोपों तक पहुंच गई। मानसून की बारिश अगर देश में तबाही का सबब बन रही है तो संसद के मानसून सत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष में बढ़ी कटुता भी लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। इसके खतरे के निशान तक पहुंचने से पहले ही संभल जाने में समझदारी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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