विचार: अमेरिका नहीं चाहता भारत का उभार, अब देश को एकसाथ मिलकर चौगुनी शक्ति से करना होगा काम
अमेरिकी अर्थशास्त्री जैफरी सैक्स कहते हैं कि भारत को सफल होते देख अमेरिका उसका विरोध करेगा क्योंकि यह उसके स्वभाव में है। इसी कारण पहले अमेरिका रूस का विरोध कम्युनिज्म के नाम पर करता था। अब कम्युनिज्म के पतन के बाद भी उसका विरोध जारी है क्योंकि अभी भी रूस एक बड़ी भूराजनीतिक शक्ति है और वह कभी अमेरिकी कठपुतली नहीं बनेगा।
दिव्य कुमार सोती। भारत द्वारा 1998 में पोखरण परमाणु परीक्षणों के बाद अमेरिका द्वारा उस पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का कोई प्रभाव न होते देख और चीन एवं इस्लामिक कट्टरपंथ के उभार से चिंतित अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने यह निर्णय लिया कि भारत से कटकर एशिया की भूराजनीति चलाना संभव नहीं है। हालांकि उस दौर में दोनों देशों के संबंधों में इतनी कटुता आ चुकी थी कि एकदम से सब कुछ सामान्य हो पाना संभव नहीं था।
इसलिए भारत और अमेरिका कैसे एशिया की अगली सदी को मिलकर गढ़ सकते हैं, इस पर चर्चा के लिए अमेरिकी उप विदेश मंत्री स्ट्रोब टालबोट और भारतीय विदेश मंत्री जसवंत सिंह के बीच 11 दौर की गुप्त वार्ता विश्व में अलग-अलग स्थानों पर हुई। इन वार्ताओं से अमेरिका में यह सहमति बनी कि भारत के सामरिक उदय को सुनिश्चित किया जाना पूरे एशिया और समूचे विश्व की सुरक्षा और स्थिरता के लिए आवश्यक है।
यह कुछ-कुछ वैसा ही था, जैसा निक्सन और किसिंजर द्वारा 1970 के दशक में यह तय करना कि अमेरिका सोवियत संघ को कमजोर करने के लिए चीन का उदय सुनिश्चित करेगा। टालबोट-जसवंत वार्ता की परिणति ही भारत के ऊपर से अमेरिकी प्रतिबंध हटाए जाने, कारगिल युद्ध के समय राष्ट्रपति क्लिंटन के भारत की ओर झुकाव के रूप में दिखाई दी। भारत के उदय को सुनिश्चित करने की इस नीति के पक्षधर डेमोक्रेट और रिपब्लिकन दोनों ही बने।
क्लिंटन के बाद रिपब्लिकन राष्ट्रपति जार्ज बुश ने पहले प्रधानमंत्री वाजपेयी और बाद में मनमोहन सिंह के साथ मिलकर भारत-अमेरिका परमाणु समझौते की रूपरेखा तैयार की और उसे मूर्त रूप भी दिया गया। इससे जरिये भारत को परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किए बिना भी एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति के तौर पर स्वीकार कर लिया गया और अमेरिका ने चीन के विरोध को दरकिनार करते हुए भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता संगठन का सदस्य भी बनवाया।
द्विपक्षीय संबंधों में प्रगाढ़ता धीरे-धीरे आगे बढ़ती रही। दोनों देशों के बीच 2005 में बनी रणनीतिक साझेदारी को 2020 में राष्ट्रपति ट्रंप के पहले कार्यकाल में समग्र वैश्विक और सामरिक साझेदारी का रूप दिया गया। भारत ने अमेरिका के साथ कई अहम रक्षा समझौते भी किए। यह सिलसिला एक बड़ी हद तक ट्रंप के पहले कार्यकाल और बाइडन के दौर तक चलता रहा, लेकिन ट्रंप के दूसरे कार्यकाल विशेषकर आपरेशन सिंदूर के बाद के परिदृश्य में अमेरिकी रवैया बदल गया। कुछ लोग इसे भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम के ट्रंप के दावे को भारत द्वारा बार-बार खारिज करने से भी जोड़कर देख रहे हैं। यह पूरी तरह सही नहीं।
अमेरिका में एक तबका भारत से कुछ अनावश्यक उम्मीदें रखता आया है। ऐसी ही एक उम्मीद ताइवान से जुड़ी है। वहां एक वर्ग चाहता है कि ताइवान पर संभावित चीनी हमले की स्थिति में भारत उसके मुकाबले में सहायक बने, मगर भारत यूक्रेन की तरह अमेरिकी सामरिक हितों को साधने के लिए कोई भाड़े पर लड़ने वाला देश नहीं बन सकता। यह बात वाशिंगटन को पच नहीं रही। यह उसकी समझ से बाहर है कि अमेरिका संग कई रक्षा समझौतों के बाद भी कोई देश अपना सामरिक चुनाव खुद कैसे कर सकता है? भारत के मामले में ऐसा होते देख अमेरिका की सामरिक बिरादरी कुंठा और गुस्से से भरी पड़ी है।
भारतीय मामलों पर वाशिंगटन में एक बड़ी आवाज माने जाने वाले एश्ले टैलिस ने 2023 में ही एक लेख में लिखा था कि अमेरिका ने भारत पर गलत दांव लगाया है। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि अमेरिका चीन के साथ युद्ध की स्थिति में भारत की तटस्थता बर्दाश्त नहीं कर सकता। टैलिस वाशिंगटन में भारत को लेकर पनप रही खिसियाहट को ही दर्शा रहे थे। यह वही समय था जब यूक्रेन युद्ध फंस चुका था। अमेरिका रूस से सीधा टकराव नहीं मोल लेना चाहता था।
चीन को वह दबाव में ले नहीं सकता था, इसलिए भारत को रूसी तेल खरीदने के आरोप में दबाव में लेने का फैसला लिया गया। तब से ही यही नीति जारी है। बस बाइडन और ट्रंप के तरीके अलग हैं। बाइडन प्रशासन भारत को दबाव में लेने के लिए खालिस्तान कार्ड खेलता रहा। कनाडा की ट्रूडो सरकार के जरिये भारतीय नेतृत्व पर खालिस्तानी आतंकी निज्जर की हत्या के आरोप लगाए गए। इतने से बात नहीं बनी तो गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की साजिश रचने के आरोप भी मढ़े गए।
जब ट्रंप दोबारा सत्ता में वापस आए तो उन्होंने पाकिस्तान के साथ नजदीकियां बढ़ानी प्रारंभ कर दी थीं। जब पहलगाम हमला हुआ, तब उनके प्रतिनिधि पाकिस्तान के साथ क्रिप्टोकरेंसी डील पर हस्ताक्षर करने की तैयारी कर रहे थे। ऐसे में यह सोचना एक भूल है कि भारत-पाकिस्तान सीजफायर का श्रेय न मिलने से क्रुद्ध ट्रंप ने भारत पर टैरिफ लगाए हैं।
वाशिंगटन में अब यह सोच बन चुका है कि भारत के महाशक्ति के रूप में उदय का समर्थन करने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि वह अमेरिका के इशारों पर नाचने वाला नहीं है। अमेरिका को लगता है कि जब चीन से निपटना ही उसे भारी पड़ रहा है तो सामरिक रूप से स्वायत्त महाशक्ति के रूप में भारत का उदय तो भविष्य में उसके वैश्विक प्रभुत्व के लिए चुनौती बढ़ाने का ही काम करेगा। अमेरिका भारत को अगला चीन बनते नहीं देखना चाहेगा।
अमेरिकी अर्थशास्त्री जैफरी सैक्स कहते हैं कि भारत को सफल होते देख अमेरिका उसका विरोध करेगा, क्योंकि यह उसके स्वभाव में है। इसी कारण पहले अमेरिका रूस का विरोध कम्युनिज्म के नाम पर करता था। अब कम्युनिज्म के पतन के बाद भी उसका विरोध जारी है, क्योंकि अभी भी रूस एक बड़ी भूराजनीतिक शक्ति है और वह कभी अमेरिकी कठपुतली नहीं बनेगा।
भारत के चमत्कारिक आर्थिक विकास के चलते यही अमेरिकी रवैया अब भारत के प्रति दिखने लगा है। ऐसे में यदि भारत को आर्थिक और सैन्य महाशक्ति बनने की अपनी यात्रा जारी रखनी है तो हमारे उद्योगपतियों, शिक्षाविदों, अनुसंधानकर्ताओं, पेशेवरों और छात्रों को चौगुनी शक्ति से काम करना होगा।
(लेखक काउंसिल ऑफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)
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