डॉ. अमिता। ग्रेटर नोएडा के निकिता भाटी हत्याकांड ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। बर्बरता का जो वीडियो समाचार चैनलों के माध्यम से प्रसारित किया गया, वह किसी को भी सदियों से चले आ रहे पितृसत्तात्मक सोच से रूबरू कराने के लिए काफी है, जहां बल प्रयोग ही मर्दानगी को जताने का उत्तम तरीका माना जाता रहा है। यह मर्दानगी का भ्रम ही है, जो दुष्कर्म, हत्या, हिंसा के रूप में सामने आता रहता है, लेकिन अफसोस की बात यह है कि इस घटना में सिर्फ एक नहीं, बल्कि दो-दो महिलाएं पुरुषवादी सोच का शिकार हुई हैं।

एक निकिता और दूसरी उसकी सास, जो अपने बेटे का साथ देकर एक महिला होकर भी महिला पर हो रही हिंसा में सहयोगी बनी। यह कोई पहली घटना नहीं है, जब किसी महिला को जलाया या मारा गया हो। कभी परंपरा, कभी दहेज, कभी चरित्र तो कभी डायन करार देकर स्त्रियों को जलाए जाने की घटनाओं का सिलसिला न जाने कब से कायम है।

बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ की मंशा को आत्मसात करने की बात तो की जाती है, लेकिन बेटियों को व्यवस्था की भेंट चढ़ने से हम रोक नहीं पा रहे हैं। यहां सिमोन दी बोउवा का एक कथन याद आता है कि लड़की पैदा नहीं होती, बल्कि बनाई जाती है। एक बेटी के जन्म के बाद से जिस तरीके से लड़की होने की दुहाई देकर उसकी परवरिश की जाती है, धीरे-धीरे उसमें विरोध की क्षमता ही खत्म हो जाती है और वह शोषण सहना ही अपनी नियति समझ लेती है।

आज भी आम तौर पर बेटी को मायके से यह कहकर विदा किया जाता है कि मायके से डोली उठती है और ससुराल से अर्थी। और डोली उठते ही एक लड़की का या तो मायका होता है या फिर ससुराल, उसका खुद का घर कहां खो जाता है, वह पता ही नहीं चलता, जहां वह हक से और अपने हिसाब से अधिकारपूर्वक रह सके। ऐसी स्थिति में यदि कोई महिला आत्मनिर्भर नहीं है तो वह चाहकर भी विरोध नहीं कर पाती है। दूसरा लोक-लाज के लिहाज के बोझ तले महिलाएं आज भी दबी हुई हैं। उनका दबा होना महिला सशक्तीकरण की बातों को खोखली साबित करता दिखता है।

इस परिस्थिति में यदि कोई महिला विरोध करने की हिम्मत जुटा भी लेती है तो व्यवस्था का शिकार हो जाती है। अपने देश में पीड़ित न्याय के लिए आज भी थानों और अदालतों में ठोकर खाते हैं। महिलाओं को न्याय देने के लिए वन स्टाप सेंटर बनाए गए, महिला आयोग का गठन किया गया, लेकिन वे प्रभावी नहीं सिद्ध हो रहे हैं। कई बार अपराधी बेखौफ हो दिखते हैं और व्यवस्था धवस्त।

ग्रेटर नोएडा की घटना में अत्याचार की एक और कड़ी है, जिसमें भारी-भरकम दिखावे वाली शादियों और दहेज के नाम पर लड़की वालों से धन वसूली की प्रथा ने बेटी का बाप होना अभिशापित बना दिया है। दहेज लेना और देना, दोनों ही कानूनन अपराध हैं, लेकिन यह जुल्म सदियों से किसी-न-किसी रूप में आज भी समाज में व्याप्त है। आखिर इसका जिम्मेदार कौन है? आम तौर पर हर माता-पिता चुपचाप बेटी के ससुराल वालों की मनचाही इच्छाओं को पूरा करते रहते हैं और एक तरह से खुद भी अपराधी बन जाते हैं।

लाचार और मजबूर माता-पिता को यह अहसास ही नहीं होता कि देहज प्रथा की आड़ में वे कई अपराधों की नींव रख रहे हैं। अनजाने में वे अनचाही मांगों को पूरा करते रहते हैं और बेटी के घर को बचाने की कोशिश करते हैं। वे न तो इसकी शिकायत करते हैं और न ही बेटी पर हो रहे अत्याचार को तब तक रोकने की पहल करते हैं, जब तक कि आग की लपटें उनके घर तक न पहुंच जाएं।

निकिता के पिता ने भारी भरकम दहेज दिया था। उसकी मौत के मामले में पति विपिन भाटी की गिरफ्तारी के बाद से कई बातें सामने आ रही हैं। हत्या हो या आत्महत्या, दोनों ही स्थितियों में फिलहाल शक की सुई विपिन और उसके परिवार वालों पर जा रही है। दोषी कोई भी हो, उसे सजा मिलनी ही चाहिए।

यह ठीक है कि आज की महिलाएं पहले की तुलना में काफी क्षमतावान हो चुकी हैं। उनके पास तकनीक की ताकत है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। उनके हाथों में ऐसी शक्ति है, जिससे वे अपनी बातों को दूर तक पहुंचा सकती हैं, परंतु दुर्भाग्यवश आज की तमाम महिलाएं फैशन में तो अपडेट रहती हैं, लेकिन अपने अधिकारों के प्रति अपडेट नहीं हो पाईं। वे यह नहीं पूछ पाईं कि आखिर पुरुषों की लंबी उम्र की कामना बहन, मां या पत्नी ही क्यों करें? पति, भाई या पिता क्यों नहीं ऐसा करते? पतिव्रता पत्नी ही क्यों बने, पति पत्निव्रता क्यों न बने?

निकिता और उसकी बहन ने डिजिटल मीडिया पर सक्रिय होने के बावजूद अपने पर हो रहे अत्याचारों को लोगों तक नहीं क्यों नहीं पहुंचाया, यह प्रश्न विचारणीय है। यदि कागजों में कैद नियमों को धरातल पर सही से उतारा जाए तो शायद परिदृश्य कुछ और होगा और बेखौफ अपराधी अपराध को अंजाम देने के पहले हजार बार सोचेंगे। जब ऐसा होगा तभी हमारे समाज में लोग बेटियों को बचा पाएंगे और पढ़ा पाएंगे।

(लेखिका हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)