विचार: सुप्रीम कोर्ट में कोई मामला अटका हो तो! समय पर फैसला सबके लिए जरूरी
स्पष्ट है कि इन सवालों का अपना महत्व हैलेकिन क्या किसी और विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट के पास ऐसे सवालों का जवाब है कि यदि उसके समक्ष कोई मामला लंबित है और उस पर फैसला होने में देर हो रही हो यानी एक तरह की निष्क्रियता सी व्याप्त हो तो क्या कोई यह प्रश्न करने की भी स्थिति में है कि फैसले में देरी से पीड़ित लोग क्या करें?
राजीव सचान। इन दिनों सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ राष्ट्रपति की ओर से संदर्भित ऐसे प्रश्नों पर विचार कर रही है कि जब संविधान में विधेयकों पर निर्णय लेने हेतु राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए कोई समयसीमा तय नहीं है तो क्या अदालत समयसीमा तय कर सकती है?
राष्ट्रपति ने इस और इस जैसे कुल 14 प्रश्न सुप्रीम कोर्ट को इसलिए संदर्भित किए थे, क्योंकि इसी वर्ष अप्रैल में तमिलनाडु के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि राज्यपाल की ओर से दस विधेयकों को लंबे समय तक रोक कर रखना और उन पर कोई निर्णय न लेना अवैध और मनमाना है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि राज्यपाल के पास विधानसभा से पारित विधेयकों को रोके रखने की कोई वीटो पावर नहीं।
इसे ऐतिहासिक बताए जाने वाले फैसले ने इसलिए हैरान किया, क्योंकि एक तो ऐसा आदेश देते हुए राज्यपाल के पास लंबित सभी दस विधेयकों को स्वीकृत करार दिया गया और दूसरे, यह आदेश दो सदस्यीय पीठ ने दिया। इसमें यह भी व्यवस्था दी कि राज्यपालों के लिए विधेयकों पर एक माह में फैसला लेना होगा और यदि ऐसा नहीं किया जाता तो ऐसे मामलों की न्यायिक समीक्षा हो सकती है। आदेश में यह भी कहा गया कि विधेयकों पर फैसला लेने के मामले में राज्यपालों की तरह राष्ट्रपति के समक्ष भी समयसीमा है। इसने और हैरान किया। वास्तव में इसी कारण राष्ट्रपति की ओर से इस फैसले के खिलाफ 14 प्रश्न संदर्भित किए गए।
इस संवैधानिक मामले में राजनीतिक दलों और विधि विशेषज्ञों की राय बंटी हुई है। एक पक्ष विधेयकों पर फैसले लेने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा तय करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को उचित मान रहा है और दूसरा पक्ष उसे शीर्ष अदालत की ओर से न्यायिक सीमा एवं स्वतंत्रता का अतिक्रमण बता रहा। फिलहाल दोनों ही पक्ष सुप्रीम कोर्ट में अपनी दलीलें देने में लगे हुए हैं। केंद्र सरकार के वकील कह रहे हैं कि संविधान ने राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए कोई समयसीमा तय नहीं की है और जिसकी जरूरत संविधान ने नहीं महसूस की, उसकी पूर्ति करने का प्रयत्न सुप्रीम कोर्ट ने क्यों किया?
इसी पहलू पर जोर देने के लिए यह भी कहा जा रहा है कि हर समस्या का समाधान सुप्रीम कोर्ट नहीं है। कुछ समस्याओं का समाधान राजनीतिक तरीके से भी होता है। यहां यह स्मरण करना आवश्यक है कि जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे, तब यह प्रचलित था कि वे ऐसा मानते थे कि निर्णय न लेना भी एक निर्णय है। पता नहीं आज कितने लोग इससे सहमत होंगे, लेकिन देश इसकी प्रतीक्षा कर रहा है कि विधेयकों पर निर्णय लेने के बारे में क्या सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल और राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में दखल दे सकता है?
पिछले दिनों इस मामले में केंद्र सरकार की ओर से पेश सालिसिटर जनरल तुषार मेहता की दलीलों को सुनकर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे सवाल किए कि यदि संवैधानिक पदाधिकारी यानी राज्यपाल विधानसभा से पारित विधेयकों पर कोई फैसला नहीं करते तो क्या अदालत के हाथ बंधे हैं? क्या अदालत हस्तक्षेप नहीं कर सकती? क्या वह शक्तिहीन है?
मामले की सुनवाई कर रही संविधान पीठ में प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई का प्रश्न था, यदि राज्यपाल बिना किसी कारण अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं करते तो ऐसी स्थिति में क्या होगा? संविधान पीठ की ओर से ऐसे उचित प्रश्न भी उठाए गए कि यदि कोई पीड़ित राज्य सरकार कोर्ट का दरवाजा खटखटाती है तो क्या राज्यपाल की निष्क्रियता की न्यायिक समीक्षा पर पूरी तरह रोक लगाई जा सकती है और अगर किसी विधेयक को राज्यपाल अनिश्चित काल के लिए लंबित रखे तो क्या होगा?
उक्त प्रश्नों को अनावश्यक नहीं कहा जा सकता और यह किसी से छिपा नहीं कि कुछ राज्यपाल किस तरह विधेयकों को दबाए बैठे रहते हैं। गैर-भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री जब-तब इसकी शिकायत भी करते रहते हैं। जब केंद्र में कांग्रेस का शासन था तो ऐसी ही शिकायत भाजपा शासित राज्य करते थे।
स्पष्ट है कि इन सवालों का अपना महत्व है, लेकिन क्या किसी और विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट के पास ऐसे सवालों का जवाब है कि यदि उसके समक्ष कोई मामला लंबित है और उस पर फैसला होने में देर हो रही हो यानी एक तरह की निष्क्रियता सी व्याप्त हो तो क्या कोई यह प्रश्न करने की भी स्थिति में है कि फैसले में देरी से पीड़ित लोग क्या करें?
क्या पीड़ितों की ओर से संसद या सरकार या फिर अन्य कोई यह पूछ सकता है कि क्या लंबित मामले लंबे समय तक अनसुने रह सकते हैं? क्या कोई किसी का दरवाजा खटखटा सकता है? यह तो सुप्रीम कोर्ट को ज्ञात ही होगा कि हाई कोर्ट के साथ उसके समक्ष भी लाखों मामले लंबित हैं। एक आंकड़े के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या 80 हजार से अधिक है। इनमें से सात हजार से ज्यादा मामले ऐसे हैं, जो एक दशक से भी अधिक समय से लंबित हैं।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)
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