जागरण संपादकीय: बेकार की बहस, सेक्युलरिज्म का सही पर्यायवाची पंथनिरपेक्षता
संविधान पर बहस छिड़ना स्वाभाविक है पर आपातकाल में सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द जोड़ने पर पुरानी चर्चा ठीक नहीं। 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाने के 50 वर्ष पूरे होने पर यह विवाद उठा है क्योंकि कांग्रेस को उनकी आलोचना पसंद नहीं। सवाल है कि क्या इन शब्दों के बिना भारत पंथनिरपेक्ष नहीं था?
इसमें हर्ज नहीं कि संविधान पर फिर बहस चल निकली, लेकिन यह ठीक नहीं कि आपातकाल के समय जब लगभग पूरा विपक्ष जेल में था, तब संविधान में सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द जोड़ने पर घिसी-पिटी बहस ही हो रही है। यह बहस इसलिए हो रही है, क्योंकि इंदिरा गांधी की ओर से 1975 में आपातकाल थोपे जाने और लोगों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दमनचक्र चलाए जाने के घोर अलोकतांत्रिक फैसले के 50 वर्ष पूरे हुए।
इस अवसर पर जो कुछ कहा और लिखा गया, वह कांग्रेस को रास नहीं आया। उसने खुले-छिपे शब्दों में यह जताने में संकोच नहीं किया कि उसे इंदिरा गांधी के लोकतंत्र को कलंकित करने वाले फैसले की निंदा-आलोचना पसंद नहीं। देश जानना चाहेगा कि क्यों नहीं पसंद? देश यह भी जानना चाहेगा कि क्या जब संविधान में पंथनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्द नहीं थे, तब भारत पंथनिरपेक्ष और समाजवादी मूल्यों का वाहक नहीं था। भारत तो यूरोप में सेक्युलर शब्द के प्रचलन में आने के सदियों पहले सर्वपंथ समभाव अर्थात पंथनिरपेक्षता यानी सेक्युलरिज्म का हामी था।
यह विचित्र है कि जिसकी जरूरत संविधान निर्माताओं और यहां तक कि प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी ने नहीं समझी, उसकी इंदिरा गांधी ने क्यों समझी? क्या यह सत्य नहीं कि अपने निर्वाचन के खिलाफ इलाहाबाद हाई कोर्ट के प्रतिकूल फैसले के चलते प्रधानमंत्री पद का त्याग करने से बचने के लिए इंदिरा गांधी ने आपातकाल थोपकर संविधान की प्रस्तावना बदली? यह कहना बौद्धिक बेईमानी है कि संविधान में सेक्युलर और सोशलिस्ट लिखे जाने से भारत पंथनिरपेक्ष और समाजवादी हो गया।
सेक्युलरिज्म का सही पर्यायवाची पंथनिरपेक्षता है, लेकिन प्रचलन में धर्मनिरपेक्षता है। आखिर कोई देश और कम से कम भारत धर्मनिरपेक्ष कैसे हो सकता है? धर्म का अर्थ है व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का कर्तव्य। क्या भारत को इससे निरपेक्ष हो जाना चाहिए? क्या यह किसी और विशेष रूप से कांग्रेस से यह छिपा है कि समाजवाद ने देश का कैसा बेड़ा गर्क किया है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि आज के अनेक कथित समाजवादी नेता कितने पाखंडी और परिवारवादी हैं।
आज तो समाजवाद घनघोर जातिवाद का भी पर्याय बन गया है। अच्छा हो कि देश बेकार की और समय जाया करने वाली बहस से बचे और ऐसे विषयों पर विचार-विमर्श हो, जिससे देश की जनता को कोई दिशा मिले और उसका भला हो। कांग्रेस को यह भी याद रहे तो अच्छा कि वह जिन भीमराव आंबेडकर की हितैषी बन गई है, वे संविधान में सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द शामिल करने के पक्ष में नहीं थे। वे तो विभाजनकारी और कश्मीर में अलगाव पैदा करने वाले अनुच्छेद 370 के भी विरोधी थे।
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