जीएसटी में सुधार के तहत जो रियायत दी गई, उस पर अमल शुरू हो गया और प्रधानमंत्री ने इस अवसर को बचत उत्सव की संज्ञा दी। उन्होंने लोगों से यह अपील भी की कि वे स्वदेशी वस्तुएं ही खरीदें। ऐसा होना भी चाहिए, लेकिन क्या हमारे उद्योग उपभोक्ताओं की जरूरत की सभी वस्तुओं का निर्माण कर पा रहे हैं और क्या उनकी गुणवत्ता विश्वस्तरीय है? इन प्रश्नों के समक्ष है हमारा उद्योग जगत।

उसके कारण ही चीनी वस्तुओं पर निर्भरता खत्म होने का नाम नहीं ले रही है और चीन के साथ व्यापार घाटा कम नहीं हो पा रहा है। ऐसा नहीं है कि स्वदेशी की राह पर चलने और देश को आत्मनिर्भर बनाने की बातें अभी की जा रही हैं। इन बातों पर कोविड महामारी के दौरान ही बल दिया जाने लगा था, लेकिन नतीजे अपेक्षा के अनुरूप नहीं निकले।

इसका मुख्य कारण है भारतीय उद्योग जगत की शोध एवं विकास के प्रति अनिच्छा। शोध एवं विकास के अभाव में ही वह वैसे नवाचार नहीं कर पा रहा है, जैसे अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियां करती हैं और जिनमें हमारे युवाओं को नौकरियां पाने में आसानी होती है। शोध एवं विकास का अभाव तब है, जब बड़े उद्योगों के पास धन की कहीं कोई कमी नहीं।

यह चिंता की बात है कि भारतीय उत्पाद विश्व बाजार में अपना स्थान नहीं बना पा रहे हैं। यदि भारतीय उद्योग जगत विश्व बाजार में अपना स्थान नहीं बना पाएगा तो फिर भारत आत्मनिर्भर कैसे बनेगा? आत्मनिर्भरता का यह अर्थ नहीं कि भारत में निर्मित वस्तुएं केवल भारत में ही बिकें। दुर्भाग्य से अभी तो अनेक ऐसी वस्तुएं जो देश में आसानी से निर्मित हो सकती हैं, उन्हें आयात करना पड़ रहा है।

इसका एक कारण आयातित वस्तुओं का सस्ता होना भी है और भारत में निर्मित वस्तुओं की गुणवत्ता संतोषजनक न होना भी। यह तकनीक का युग है और भारतीय युवाओं की तकनीकी दक्षता किसी से छिपी नहीं, लेकिन उन्हें रोजगार के अच्छे अवसर विदेश में दिखते हैं। आखिर भारतीय कंपनियां उन्हें देश में ही रोजगार उपलब्ध कराने में सक्षम क्यों नहीं?

यदि वे ऐसा कर पातीं तो शायद अमेरिका की ओर से एच-1बी वीजा फीस में अप्रत्याशित वृद्धि चिंता और अनिश्चतता नहीं पैदा करती। सरकार एक लंबे समय से भारतीय उद्योगों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा में खरा उतरने के लिए प्रेरित कर रही है, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला है।

यह सही समय है कि सरकार उन कारणों का पता लगाए, जिनके चलते हमारे सक्षम उद्योग भी शोध एवं विकास की राह नहीं पकड़ रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकारी तंत्र में कुछ ऐसी खामियां हैं, जिनके चलते उद्योग जगत अपने हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वाह करने में आनाकानी कर रहा है।