जगतबीर सिंह। इतिहास में वर्तमान और भविष्य के लिए भी सूत्र छिपे होते हैं। हमारे इतिहास का ऐसा ही एक हिस्सा 1965 है। उस वर्ष भारत और पाकिस्तान के बीच पहला औपचारिक युद्ध हुआ था। आज 23 सितंबर को उस युद्ध के पूरे साठ वर्ष बीत गए हैं। इससे पहले आजादी के तुरंत बाद भारत ने जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान के दुस्साहस का मुंहतोड़ जवाब दिया था।

हालांकि 1962 में चीन के हाथों मिली हार के बाद पाकिस्तान को लगा कि भारत कमजोर है, क्योंकि उस लड़ाई ने भारत की रक्षा तैयारियों, खुफिया जानकारी और राजनीतिक नेतृत्व एवं सेना के बीच समन्वय में गंभीर खामियों को उजागर किया था। इसके अलावा, पाकिस्तान ने 1963 में शक्सगाम घाटी चीन को सौंपकर ड्रैगन के साथ संबंधों को मजबूत किया। चीन ने अगले ही साल अपना पहला परमाणु परीक्षण भी किया।

उसी दौरान पाकिस्तान सीईएनटीओ और एसईएटीओ जैसे संगठनों का हिस्सा बन रहा था। इनमें सीईएनटीओ एक सैन्य गठबंधन था। इसमें तुर्की, ईरान, पाकिस्तान और ब्रिटेन शामिल थे। जबकि एसईएटीओ दक्षिण पूर्व एशिया में साम्यवाद को रोकने के उद्देश्य से बना गठबंधन था, जिसमें अमेरिका, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, फिलीपींस, थाइलैंड और पाकिस्तान शामिल थे। ये दोनों संगठन शीत युद्ध के दौरान साम्यवादी विस्तारवाद के जवाब में बनाए गए थे। इनका हिस्सा बनकर पाकिस्तान की ताकत बढ़ी थी।

प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद पाकिस्तान को लगा कि पहले से सैन्य रूप से पस्त दिख रहा भारत राजनीतिक नेतृत्व में भी कमजोर पड़ गया है। मौका देखकर फरवरी 1965 में उसने आपरेशन डेजर्ट हाक शुरू किया। इस सैन्य अभियान के जरिये पाकिस्तान भारतीय सीमा से लगी चौकियों पर हमला करके कच्छ के रण पर नीयत खराब किए हुए था। भारत ने जवाब में आपरेशन एब्लेज का आगाज किया।

इसी दौरान भारत ने कारगिल में पाइंट 13,620 की एक रणनीतिक चोटी पर कब्जा कर लिया। यह श्रीनगर से लेह तक को नियंत्रित करती थी। इस संदर्भ में ब्रिटेन की मध्यस्थता में एक जुलाई को कच्छ समझौता हुआ, जिसमें भारत को कारगिल में जीते गए क्षेत्रों को खाली करने के लिए मजबूर किया गया। महीने भर बाद ही पाकिस्तान ने 5 अगस्त को आपरेशन जिब्राल्टर शुरू किया, जो उसके लिए आत्मघाती साबित हुआ।

इसके तहत पाकिस्तान ने हजारों सैनिकों को घुसपैठियों के रूप में भेजा ताकि कश्मीरियों को भड़काया जा सके, लेकिन उसका यह आकलन गलतफहमियों पर आधारित था। कश्मीरी तो विद्रोह के लिए नहीं खड़े हुए, उलटे लेफ्टिनेंट जनरल हरबक्श सिंह के नेतृत्व में पश्चिमी कमान ने कारगिल, तिथवाल और हाजी पीर में रणनीतिक क्षेत्रों पर अपनी बढ़त बनाकर घुसपैठ की गुंजाइश ही खत्म कर दी। रंजीत सिंह दयाल के हाजी पीर पर भारतीय ध्वज का परचम भारत के सैन्य इतिहास की स्थायी छवि के रूप में दर्ज हो गया।

पाकिस्तान ने इसके बाद आपरेशन ग्रैंड स्लैम शुरू किया, जिसका उद्देश्य भारत में प्रवेश कर छंब पर कब्जा करना था। पाकिस्तान ने बिना कोई कारण बताए अपने डिवीजन कमांडर मेजर जनरल अख्तर हुसैन मलिक को उनके पद से हटाकर अयूब खान के पसंदीदा मेजर जनरल याह्या खान को नियुक्त किया। भारत ने उस दौरान अंतरराष्ट्रीय सीमा के पार एक मोर्चा खोला। 11 कोर के तहत आपरेशन रिडल ने लाहौर की ओर आक्रमण शुरू किया। इस दौरान डोगराई को कब्जे में भी लिया गया।

अमृतसर को भारत से काटने के पाकिस्तानी मंसूबों पर भी भारत ने पानी फेर दिया। इसी युद्ध में आसल उत्ताड़ (सियालकोट के पास) की लड़ाई में अद्भुत शौर्य दिखाने वाले अब्दुल हमीद को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। उन्होंने अपनी जीप से पाकिस्तान के पैटन टैंकों को ध्वस्त किया, जो उस समय अजेय माने जाते थे।

नि:संदेह उस युद्ध से कई सबक मिले, लेकिन साठ साल बाद भी उसके सबक प्रासंगिकता लिए हुए हैं, क्योंकि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद, नैरिटेव को तोड़ना-मरोड़ना, क्षेत्रीय विवादों की प्रासंगिकता और बाहरी शक्तियों की भूमिका विभिन्न रूपों में वैसी ही बनी हुई है। इस दौरान युद्धों की प्रकृति भी बदल गई है। 1947-48 और 1962 में भारतीय सेना ने वायु सेना के साथ मिलकर युद्ध लड़ा, जबकि 1965 में नौसेना की भूमिका सीमित थी और इसे सीमा पार करने की अनुमति नहीं थी।

1971 में तीनों सेवाओं का उपयोग किया गया, लेकिन पूरा ध्यान पूर्वी मोर्चे पर था। उसमें पश्चिमी मोर्चे को भारत के लिए मुख्य रूप से होल्डिंग एक्शन के रूप में देखा गया। कारगिल (1999) संघर्ष घुसपैठ के संदर्भ में 1965 के साथ समानता लिए था, लेकिन लड़ाई एक विशेष क्षेत्र तक सीमित थी, जिसमें नियंत्रण रेखा को पार करने का कोई संदर्भ नहीं था। हाल के आतंकी हमलों के जवाब में सर्जिकल स्ट्राइक, एयर स्ट्राइक और आपरेशन सिंदूर देश के समक्ष सुरक्षा चुनौतियों की निरतंरता को ही दर्शाते हैं। इस बीच गलवन जैसा बर्बर संघर्ष भी था। यह स्थिति दर्शाती है कि पड़ोस में बढ़ती नापाक साजिशों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

देखा जाए तो 1965 का युद्ध केवल एक सैन्य संघर्ष नहीं, अपिुत राष्ट्रीय संकल्प था, जहां सैन्य साजोसामान की कमियों के बावजूद भारतीय सैनिकों ने साहस और दृढ़ता के साथ लड़ाई लड़ी। जनभावनाओं से ओतप्रोत इस लड़ाई ने पाकिस्तान को भारी चोट पहुंचाई। 1965 के बाद एक अहम सबक यही मिला कि आत्मनिर्भरता को अलग करके नहीं देखा जा सकता। इसे रक्षा सहयोग, रणनीतिक गठबंधन और उन्नत प्रौद्योगिकियों और महत्वपूर्ण सामग्रियों की उपलब्धता के साथ जोड़ा जाना चाहिए।

1965 युद्ध के छह साल बाद हमारी सेनाओं ने 1971 में शानदार विजय प्राप्त की। साठ साल बाद आपरेशन सिंदूर ने एक बार फिर दिखाया है कि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के प्रति हमारी प्रतिक्रिया कैसे विकसित हुई है। इस दौरान नई प्रौद्योगिकियों का उपयोग व्यापक एवं प्रभावी परिणाम देने वाला रहा है। हमें 1965 के युद्ध को राष्ट्र के संकल्प और उसकी सशस्त्र सेनाओं की क्षमता की एक रणनीतिक अभिव्यक्ति के रूप में देखना चाहिए।

(लेखक सेवानिवृत्त मेजर जनरल एवं यूनाइटेड सर्विस इंस्टीट्यूट आफ इंडिया में प्रतिष्ठित फेलो हैं)