बढ़ती रफ्तार और घटता अनुशासन... दूसरों का जीवन भी खतरे में डाल रहे लोग
दिल्ली की सड़कों पर सड़क दुर्घटनाओं में लोगों की मृत्यु पर चिंता व्यक्त की गई है। लेखक समाज को सड़क सुरक्षा के प्रति उदासीन रवैये के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। वे सुझाव देते हैं कि सड़क दुर्घटनाओं को रोकने के लिए प्रशासन को सख्त कदम उठाने चाहिए और समाज को भी अनुशासित होना चाहिए।
सौरभ कुमार। कुछ दिन पहले दिल्ली की सड़कों पर वित्त मंत्रालय, भारत सरकार में कार्यरत उप सचिव नवजोत सिंह की असामयिक और दुखद मृत्यु हो गयी। इस से कुछ सप्ताह पहले ही एक सौ चौदह वर्षीय मैराथन धावक फौजा सिंह की मृत्यु एक सड़क दुर्घटना में हो गयी। उनकी ख्याति विश्व के सबसे वरिष्ठ मैराथन धावक के रूप में प्रसिद्ध थी।
जिस व्यक्ति को ईश्वर ने एक सौ चौदह वर्षों की उम्र और इतना स्वस्थ शरीर दिया, उसे हमारे समाज में व्याप्त यातायात अनुशासनहीनता ने काल के मुंह में धकेल दिया। शायद ही कोई ऐसा दिन होगा जब अख़बारों में किसी सड़क दुर्घटना की कोई खबर नहीं आती हो।
आर्थिक महाशक्ति के रूप में तेज रफ़्तार से आगे बढ़ रहे भारत में गाड़ियों की संख्या और रफ़्तार भी तेजी से बढ़ रही है। एक्सप्रेस वे और हाई वे का जाल बिछता जा रहा है। तेज रफ़्तार से गाड़ियों को चलाने का फैशन भी बढ़ रहा है। सोशल मीडिया पर वीडियो डालने की लत ने कई लोगों में वाहनों से करतब दिखाने की आदत भी डाल दी है।
जहाँ एक तरफ हाई वे और एक्सप्रेस वे पर रफ़्तार की समस्या है तो वहीं दूसरी तरफ शहरों में ट्रैफिक जाम के कारण धीमी रफ़्तार से भी लोगों में बेचैनी बढ़ रही है। ट्रैफिक जाम, व्यक्तिगत तनाव और शहरी जीवन की आपा-धापी आदि कई बार व्यक्तिगत उत्तेजना और गुस्से के रूप में सड़कों पर भी दिखाई दे जाती है। इस लिए कई बार वाहन चलाने में उसके चालक के अहंकार या प्रतिशोध का दर्शन भी हो जाता है। इसी मानसिक स्थिति में कभी-कभी कोई छोटी सी बात भी बिगड़ कर जानलेवा स्वरूप ले लेती है।
सड़क यातायात के नियमों को गंभीरता से न लेना और अनुशासन की अवहेलना को अपने ड्राइविंग कौशल से जोड़ कर देखने वाले चालक न सिर्फ अपने जीवन बल्कि सड़क पर अनुशासन के साथ चल रहे दूसरे लोगों के जीवन को भी खतरे में डालते हैं। फिर चाहे वो नशे में वाहन चलने का हठ हो या वाहन चलते समय मोबाइल फोन के प्रयोग का अतिशय आत्मविश्वास हो। एक वर्ग ऐसा भी है जिसे लगता है कि यदि कोई पुलिस वाला देख न रहा हो तो ट्रैफिक लाइट का उल्लंघन या फिर उलटी दिशा से गाड़ी चलना दोनों ही स्वीकार्य हैं। ऐसे लोग प्रायः अपना और दूसरों का जीवन खतरे में डाल देते हैं।
हमारे देश में अधिकतर लोग दुपहिया वाहन पर हेलमेट पहनने को या फिर कार में सीट बेल्ट लगाने को महज़ चालान बचाने के लिए जरूरी समझते हैं। इस लिए जहाँ प्रशासन सख्ती न बरते तो बहुत से लोग कभी भी स्वेच्छा से और अपनी जीवन रक्षा के लिए न तो हेलमेट पहनेंगे और न ही सीट बेल्ट लगाएंगे।
यदि आंकड़ों की बात करें तो देश में प्रति वर्ष पुलिस द्वारा रिपोर्ट की गई घटनाओं के आधार पर लगभग डेढ़ लाख लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं। वर्ष 2022 में देश में 1.68 लाख लोग सड़क दुर्घनाओं में मारे गए। इसी वर्ष पूरे देश में 28,522 हत्या की घटनाएं दर्ज़ की गई। अब ज़रा सोचिये, जब कहीं भी एक व्यक्ति की हत्या हो जाती है तो समाज में कितना भय और चिंता का माहौल बनता है। लेकिन सड़क दुर्घटनाओं में जब लोगों की मृत्यु होती है तो क्या समाज उसे भी उतनी गंभीरता से लेता है? आखिर ऐसा क्यों है?
बतौर समाज हम सड़क दुर्घटनाओं को ले कर इतने उदासीन क्यों बने हुए हैं? क्या हमें ये भय नहीं होना चाहिए की यदि सड़क सुरक्षा के प्रति हर व्यक्ति सजग नहीं रहेगा तो किसी दिन सड़क हादसे का शिकार कोई हमारा अपना भी हो सकता है? जब स्वयं अनुशासित हो कर हम अपनी और दूसरों की रक्षा कर सकते हैं तो क्या फिर इसके लिए भी हमें प्रशासन से कड़ाई करने की प्रतीक्षा करनी चाहिए? क्या सड़क का अनुशासन समाज और हर व्यक्ति की जिम्मेदारी नहीं है?
विश्व के उन देशों में जहाँ सड़क यातायात में अनुशासन का स्तर बहुत ऊँचा है, वहां ये अनुशासन सरकार की कड़ाई से नहीं बल्कि समाज में व्याप्त अनुशासन से ही आता है। अपनी लेन में वाहन चलाना, निर्धारित गति का पालन करना, ओवर-टेक सही अवसर मिलने पर करना, पैदल यात्रियों को सड़क पार कराने के लिए वाहन रोक देना और लगातार हॉर्न न बजाना जैसी आदतें हर व्यक्ति की आदतों का अभिन्न हिस्सा है। इस लिए सड़क सुरक्षा सिर्फ एक प्रशासनिक विषय नहीं है अपितु एक सामाजिक विषय है।
प्रशासन की भी जिम्मेदारी है कि अनुशासन तोड़ने वाले लोगों के साथ सख्ती से पेश आया जाये ताकि नियम तोड़ने वालों के मन में भय बना रहे। सड़कों पर कैमरे लगाए जाएँ और उन कैमरों की मदद से स्वचालित चालान निर्गत करने की व्यवस्था को सभी स्थानों पर लागू किया जाये। इस से सड़कों पर पुलिस की तैनाती के बिना भी नियम तोड़ने वाले लोगों को चालान जारी किया जा सकेगा। कुछ गंभीर प्रकार के उल्लंघनों में और अधिक कड़े कानूनी प्रावधानों के बारे में भी सोचा जा सकता है। जैसे नाबलिग बच्चों को वाहन चलाने देने वाले अभिभावकों को जेल और नाबालिग को आजीवन ड्राइविंग लाइसेंस पर प्रतिबन्ध के बारे में सोचा जा सकता है।
एक दिशा वाले मार्गों पर उलटी दिशा से गाड़ी चलाने वाले लोगों के लिए तत्काल वाहन जब्ती जैसे कड़े प्रावधानों के बारे में सोचा जा सकता है। साथ ही दिल्ली पुलिस के ट्रैफिक प्रहरी जैसे मोबाइल ऐप को व्यापक प्रचार और अन्य राज्यों में प्रारम्भ कर के हर नागरिक को ट्रैफिक नियमों को तोड़ने वालों की फोटो और वीडियो डाल कर रिपोर्टिंग करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है और महीने के अंत में जो नागरिक सर्वश्रेष्ठ योगदान दे उसे प्रशासन द्वारा पुरस्कृत किया जा सकता है। ड्राइविंग लाइसेंस निर्गत करने से पहले प्रशिक्षण की व्यवस्था को वर्चुअल रियलिटी सिम्युलेटर आदि के इस्तेमाल से बेहतर बनाया जा सकता है और ऐसे प्रशिक्षण केंद्रों को देश के हर जिले में स्थापित किया जा सकता है।
आर्थिक विकास के साथ भविष्य में सड़कों पर गाड़ियों की संख्या और गाड़ियों की रफ़्तार दोनों में ही वृद्धि होना तय है। ऐसे में सड़कों पर अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा के लिए आवाज उठाने और जागरूकता फ़ैलाने की जिम्मेदारी समाज को ही लेनी होगी। यदि हम विकसित भारत बनना चाहते हैं तो विकसित देशों के सड़क अनुशासन को भी हमें अपनाना होगा। सड़क सुरक्षा, सबकी रक्षा।
(लेखक भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी हैं जो वित्त मंत्रालय भारत सरकार में पदस्थापित हैं और ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं।)
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