डॉ. एके वर्मा। बिहार विधानसभा चुनाव से पहले सभी राजनीतिक खेमे अपने पक्ष में माहौल बनाने में जुट गए हैं। इस कड़ी में लोकसभा में नेता-प्रतिपक्ष राहुल गांधी और बिहार में राजद नेता तेजस्वी यादव ने चुनाव आयोग और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ ‘वोट-चोरी’ का नैरेटिव चलाया हुआ है। चुनाव आयोग द्वारा बिहार में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर के संदर्भ में भी विपक्ष की यह मुहिम जारी है।

जबकि संविधान के अनुसार यह चुनाव आयोग का दायित्व है कि वह मतदाता सूचियों में केवल भारतीय नागरिकों के नाम सुनिश्चित करे और मृत, स्थायी रूप से अन्यत्र निवास करने वालों या डुप्लीकेट नाम मतदाता सूची से हटा दिए जाएं और 18 वर्ष वाले नए मतदाताओं को जोड़ा जाए। नागरिकता की पहचान हेतु मान्य दस्तावेजों में आधार कार्ड को सम्मिलित करने की मांग को स्वीकार करने के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि यदि चुनाव आयोग ने एसआईआर में कोई गैर-कानूनी प्रक्रिया अपनाई तो वह पूरी प्रक्रिया ही निरस्त कर देगा।

राहुल ने ‘चोरी’ को अपने चुनावी-नैरेटिव का आधार बना लिया है। 2019 लोकसभा चुनावों में उन्होंने ‘चौकीदार चोर है’ का नैरेटिव चलाया, 2024 लोकसभा चुनावों में ‘संविधान और आरक्षण चोरी’ का नैरेटिव चलाया और अब वे चुनाव-आयोग द्वारा ‘वोट-चोरी’ का नैरेटिव चला रहे हैं। उनके विरुद्ध हाइड्रोजन-बम फोड़ने की धमकी दे रहे हैं। ऐसे नैरेटिव से तात्कालिक लाभ भले हो जाए, जैसा 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस गठबंधन को मिला भी, लेकिन फेक नैरेटिव किसी फुलझड़ी की तरह बहुत जल्दी बुझ भी जाता है।

चोरी के आरोप लगाने से पहले राहुल को नहीं भूलना चाहिए कि जिस चुनाव आयोग पर वे ‘वोट चोरी’ का आरोप लगा रहे है, उसी की चुनावी प्रक्रिया के जरिये उनकी पार्टी हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक की सत्ता में है। तमिलनाडु और झारखंड में द्रुमक और झामुमो के साथ सत्ता साझा कर रही है। उसी के द्वारा पश्चिम बंगाल, सिक्किम, केरल, पुडुचेरी, पंजाब और जम्मू-कश्मीर में गैर-भाजपा सरकारें बनी हैं।

जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने राहुल के ‘वोट-चोरी’ नैरेटिव को खारिज करते हुए कहा कि ‘यदि चुनाव आयोग से हमें तब कोई समस्या नहीं जब हम चुनाव जीतते हैं, तो निश्चित ही हमें उससे तब भी कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, जब हम चुनाव हारते हैं।’ उन्होंने कहा कि ‘अक्टूबर 2024 विधानसभा चुनावों में वे इतनी सीटों की उम्मीद नहीं कर रहे थे, यदि वोट चोरी करके उनकी कुछ सीटें किसी विपक्षी दल को दे दी जातीं, तो भी वे उसे स्वाभाविक जनादेश ही मानते।’ ऐसी स्वीकारोक्तियां किसी नेता का कद बढ़ा देती हैं। राहुल को उनसे कुछ सीखना चाहिए। क्या कांग्रेस स्वतंत्रता के बाद स्वयं द्वारा की गई चोरियों का इतिहास भूल गई है?

लोकतंत्र में आलोचना जरूरी है, लेकिन सरकार के विरुद्ध केवल आरोप, आक्षेप, उपहास, निंदा एवं अपशब्द से कुछ हासिल नहीं होता। ऐसा करने वालों की छवि ही खराब होती है, जिसका खमियाजा उन्हें चुनावों में भुगतना पड़ता है। कांग्रेस एक दशक से सत्ता से बाहर होने के बाद उतावली हो रही है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि वह प्रधानमंत्री को गाली दे, उन्हें ‘चोर’ कहे, प्रधानमंत्री की स्वर्गवासी मां को अपशब्द कहे या एआई द्वारा उनका अभद्र ‘मीम’ बनाए। स्पष्ट है कि कांग्रेस ने चुनावी स्पर्धाओं में एक रणनीतिक परिवर्तन किया है। वह आरोपात्मक एवं आक्रामक ‘फेक-नैरेटिव’ को केंद्रीय मुद्दा बनाकर अन्य मुद्दों को गौण रखती है।

बिहार में कांग्रेस एसआईआर द्वारा वोट-चोरी को आक्रामक ‘नैरेटिव’ के रूप में भुनाना चाहती है। फेक-नैरेटिव इंटरनेट मीडिया पर आग की तरह फैलता है और युवा मतदाताओं को सबसे ज्यादा अपनी चपेट में लेता है। शत्रु देश भी उसका फायदा उठाते हैं और देश की राजनीतिक प्रक्रिया में अवांछनीय हस्तक्षेप करते हैं। ऐसे में यह उचित ही है कि चुनाव आयोग ने एआई-डीपफेक और फेक नैरेटिव से निपटने के लिए सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को प्रशिक्षण दिया है और प्रत्येक जिले में ‘सेल’ बनाकर फेक-नैरेटिव का प्रतिकार करने का आदेश दिया है, ताकि बिहार जैसे माहौल की पुनरावृत्ति न हो। इसके बावजूद, बीते दिनों नेपाल में ‘जेन जी’ आंदोलन ने जिस तरह अप्रत्याशित हिंसा द्वारा सत्ता-परिवर्तन किया, उससे चुनाव आयोग, केंद्र और राज्य सरकारों के साथ ही राजनीतिक दलों एवं जनता सभी को और सतर्क हो जाना चाहिए।

क्या चुनावों में नैरेटिव फायदेमंद होता है? 2024 में मोदी ने चार-सौ पार के नैरेटिव का दांव चला। राहुल-अखिलेश के नेतृत्व में आईएनडीआईए ने लोकसभा चुनाव में ‘संविधान-बचाओ, आरक्षण बचाओ’ के नैरेटिव पर उत्तर प्रदेश में चुनाव जीता, लेकिन दिल्ली, मध्य प्रदेश, ओडिशा, असम, बिहार, हिमाचल और उत्तराखंड आदि में उनका नैरेटिव बुरी तरह पिट गया। 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी-हटाओ, देश-बचाओ’ के नैरेटिव पर चुनाव जीता था, पर 2004 में वाजपेयी सरकार ‘इंडिया शाइनिंग’ के नैरेटिव पर चुनाव हार गई। 2007 में उत्तर प्रदेश में मायावती ‘ब्राह्मण-दलित भाईचारा’ नैरेटिव पर चुनाव जीतीं, पर 2012 में उसी नैरेटिव पर वे चुनाव हार गईं।

अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप ने 2024 मे ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के नैरेटिव पर चुनाव जीता, लेकिन आज उनकी साख बहुत गिर गई है। स्पष्ट है कि एक नैरेटिव को चुनाव प्रचार के केंद्र में रखना चुनाव जीतने की कोई गारंटी नहीं, पर ऐसा करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। फर्क इतना है कि पहले नैरेटिव सकारात्मक होते थे, लेकिन इधर नैरेटिव का स्वरूप नकारात्मक एवं आक्रामक हुआ है। उसकी यह बदलती प्रवृत्ति राजनीतिक दलों में आंतरिक-लोकतंत्र के अभाव, संगठनात्मक कमजोरी, विचारधारा से दूरी, वैकल्पिक नीतियों का अभाव, नेतृत्व की अपरिपक्वता और दल की जनता से असंबद्धता को दर्शाता है, जिससे भारतीय लोकतंत्र के भविष्य पर एक प्रश्नचिह्न लगता है।

(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)