जागरण संपादकीय: जाति गणना और आरक्षण
स्पष्ट है कि जातिगत जनगणना कराए जाने के साथ ही आरक्षण नीति की विसंगतियों को दूर करने की भी आवश्यकता है। एससी-एसटी ओबीसी एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के आरक्षण के जरिये यह सुनिश्चित किया जाना आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य है कि उसका लाभ पात्र लोगों को ही मिले।
जातिगत जनगणना की घोषणा के बाद ऐसे निष्कर्ष निकाले जाने पर हैरानी नहीं कि इस जनगणना के आंकड़े आ जाने के उपरांत आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा को बढ़ाने के साथ अन्य पिछड़ा वर्ग की कुछ समर्थ जातियों को ओबीसी के दायरे से बाहर किया जा सकता है। भविष्य में जो भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा को तोड़ने की मांग पहले से ही हो रही है। इसी तरह यह भी एक सच्चाई है कि ओबीसी की आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से सक्षम कुछ जातियों ने आरक्षण का अधिक लाभ अर्जित किया है।
इसके अतिरिक्त उन्होंने पिछले लगभग चार दशकों में आर्थिक प्रगति से हुए बदलावों का लाभ उठाकर स्वयं को उन्नत किया है। पिछड़े वर्ग की कुछ सक्षम जातियां आरक्षण का अधिकतम लाभ उठाने में इसलिए समर्थ रहीं, क्योंकि वर्तमान आरक्षण नीति इस पर केंद्रित नहीं है कि सर्वाधिक लाभ वास्तविक रूप से सबसे पिछड़ी जातियों को मिले। इसके अतिरिक्त इस तथ्य को भी ओझल नहीं किया जा सकता कि सामाजिक न्याय की बात करने वाले कुछ क्षेत्रीय दलों के नेता जब सत्ता में आए तो उन्होंने समस्त पिछड़े वर्ग के स्थान पर जाति विशेष के लोगों के उत्थान पर अधिक ध्यान दिया।
स्पष्ट है कि जातिगत जनगणना कराए जाने के साथ ही आरक्षण नीति की विसंगतियों को दूर करने की भी आवश्यकता है। एससी-एसटी, ओबीसी एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के आरक्षण के जरिये यह सुनिश्चित किया जाना आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है कि उसका लाभ पात्र लोगों को ही मिले। ऐसा करके ही सामाजिक न्याय के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है। इसके साथ ही ऐसे भी कुछ उपाय करने होंगे, जिससे आरक्षण और साथ ही देश की आर्थिक प्रगति से लाभान्वित होकर खुद को हर तरह से समर्थ बना चुके लोगों को आरक्षण सूची से बाहर किया जाए।
जातिगत जनगणना के वास्तविक आंकड़े मिल जाने पर ऐसा करना कहीं अधिक आसान होगा, लेकिन तभी जब आरक्षण को वोट बैंक की राजनीति का हथियार बनाने से बचा जाएगा। आरक्षण नीति में विसंगतियां इसलिए हैं, क्योंकि अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल जातियों के सामाजिक-आर्थिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े होने का कोई ठोस आंकड़ा नहीं है। क्या यह विचित्र नहीं कि उन आंकड़ों से काम चलाया जा रहा है जो 1931 अर्थात अविभाजित भारत की जातिगत जनगणना से मिले थे।
किसी भी नीति को सही तरह से क्रियान्वित करने के लिए ठोस आंकड़े उपलब्ध होना पहली आवश्यकता होती है। निःसंदेह इस आवश्यकता की पूर्ति जातिगत जनगणना करेगी, लेकिन इसके साथ ही इस आशंका को दूर किया जाना चाहिए कि जातिगत जनगणना की आड़ में जातीय विभाजन को बढ़ाने वाली राजनीति को नए सिरे से बल मिल सकता है। राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि जातिवाद की राजनीति करके सामाजिक न्याय के उद्देश्य की पूर्ति कभी भी नहीं की जा सकती।














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