साक्षी भाव
हम परमात्मा को बाहर खोजते हैं, जैसे परमात्मा कहीं सुदूर आसमान में छिपा बैठा हो और हमें खोजते हुए उस तक पहुंचना हो, जबकि यह सीधी सच्चाई हमें समझ में नहींआती कि जिसे हमने खोया ही न हो उसे हम खोज कैसे सकते हैं? इतिहास गवाह है कि जिन्होंने परमात्मा को अन्यत्र खोजा वे भटक गए। ईश्वर उन्हे
हम परमात्मा को बाहर खोजते हैं, जैसे परमात्मा कहीं सुदूर आसमान में छिपा बैठा हो और हमें खोजते हुए उस तक पहुंचना हो, जबकि यह सीधी सच्चाई हमें समझ में नहींआती कि जिसे हमने खोया ही न हो उसे हम खोज कैसे सकते हैं? इतिहास गवाह है कि जिन्होंने परमात्मा को अन्यत्र खोजा वे भटक गए। ईश्वर उन्हें ही मिला, जिन्होंने उसे अपने अंतस में खोजा। हम लोगों द्वारा परमात्मा की अन्यत्र खोज सहज-स्वाभाविक प्रक्रिया है। कारण यह है कि हमारी समस्त इंद्रियों के द्वार बाहर खुलते हैं। रूप, रस, स्पर्श, गंध आदि द्वारा इन्हें वाज्जगत से अनुभव प्राप्त होता है। परिणामस्वरूप हम इंद्रियों के साथ एकाकार हो जाते हैं। संसार की समस्त वस्तुएं व अनुभव हमें बाहर से प्राप्त होते हैं। इसलिए हमें यह भ्रांति हो जाती है कि परमात्मा भी कहींबाहर छिपा है। तब हम परमात्मा की खोज दस दिशाओं में करते हैं, जबकि हमें यह पता भी नहींकि एक 'ग्यारहवीं दिशा' भी है, जो हमारे अंतस की ओर जाती है और वहां वह छिपा हुआ है। परमात्मा उन्हें ही उपलब्ध होता है, जो इंद्रियों से लड़ने के बजाय इंद्रियों का अतिक्रमण करने की समझ अपने अंदर पैदा कर लेते हैं।
इंद्रियों का अतिक्रमण इंद्रियों को हमारा सहयोगी बना देता है। इस स्थिति में हम समस्त विचारों से मुक्त होकर ध्यान में और ध्यान द्वारा साक्षी भाव में प्रवेश करते हैं। साक्षी भाव की इस प्रक्रिया में घटनाओं व विचारों को साक्षी भाव से घटते देखना है। उन घटनाओं के साथ स्वयं को संबद्ध नहीं करना है। यही कारण है कि भगवान बुद्ध व भगवान महावीर ने ध्यान पर विशेष बल दिया है। वह समस्त परिवर्तनों से परे है। ठीक कुम्हार के चाक के मध्य स्थित कील की तरह स्थिर। समस्त परिवर्तन केवल परिधि पर ही घटित होते हैं। अहंकार को पूर्णत: त्यागकर और पूर्ण समर्पण के साथ हम अपने अंदर समस्त घटनाओं के प्रति दृष्टा भाव उत्पन्न करें। फिर इस दृष्टा भाव को दोहराते जाएं तब हमारा साक्षी भाव में प्रवेश हो सकता है। यह प्रक्रिया कठिन नहीं है। इसका कारण यह है कि साक्षी भाव हमारे भीतर मौजूद है। हमें केवल उसका स्मरण कर इस भाव की गहराई में उतरना है। यही साक्षी भाव की साधना है।
[अजय 'गोंडवी']
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