जागरण संपादकीय: चीन-नेपाल की नजदीकी का क्या है मतलब? ड्रैगन की नापाक चाल
Nepal China India Relation भारत और नेपाल पनबिजली क्षेत्र में एक और मजबूत साझेदारी की ओर अग्रसर हो रहे हैं। इसके अलावा आज भारत नेपाल का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। सीमा विवाद जैसे मुद्दे के बावजूद भारत और नेपाल के द्विपक्षीय संबंधों में मजबूती आई है। दोनों देश विज्ञान और तकनीक जैसे नए क्षेत्रों में भी आगे बढ़ रहे हैं।
ऋषि गुप्ता। नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली अपनी पहली विदेश यात्रा पर चीन पहुंच गए हैं। इस यात्रा को नेपाल को चीन के और नजदीक ले जाने का सूचक माना जा रहा है, क्योंकि परंपरागत तौर पर नेपाल के नए प्रधानमंत्री पहली विदेश यात्रा पर भारत आते रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत विरोध और चीन से मित्रता ओली की व्यक्तिगत रुचि रही है।
ओली हमेशा चीन के साथ संबंधों को प्रगाढ़ करने की वकालत करते रहे हैं। उन्होंने भारत विरोध का सहारा लेकर ही अपनी राजनीति मजबूत की है, फिर चाहे वह 2015 में की गई सीमा की नाकाबंदी हो, 2019 में सीमा-विवाद का राजनीतीकरण करना हो या फिर नेपाल का एक विवादित नक्शा लाना हो, जिसमें नेपाल ने भारत के कुछ संप्रभु क्षेत्रों को अपना दिखाया।
ओली का राजनीतिक झुकाव चीन की ओर होना भारत के लिए चिंता का विषय बना हुआ है, लेकिन उनकी इस यात्रा को नेपाल का भारत से दूर जाना मान लेना भारत की ‘पड़ोसी प्रथम’ नीति को कमजोर करार देने के बराबर है। तथ्य बताते हैं कि जितनी भी बार ओली और उनकी कम्युनिस्ट पार्टी आफ नेपाल (एमाले) ने चीन के साथ समझौते या राजनीतिक संबंधों की वकालत की है, वह मुख्यत: प्रतीकात्मक ही रही है और परिणामों पर कम खरी उतरी है।
चूंकि नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता एक सामान्य बात है और हर छह-आठ महीनों में एक नई सरकार आती है, ऐसे में हर प्रधानमंत्री का भारत आना नेपाली विदेश नीति के लिए दूसरे पड़ोसी देश की अनदेखा करने का संकेत माना जा सकता है। इससे उसके हित प्रभावित हो सकते हैं। यहां यह भी देखना जरूरी है कि ओली नेपाली कांग्रेस पार्टी के साथ एक गठबंधन वाली सरकार चला रहे हैं और नेपाली कांग्रेस भारत के साथ मजबूत संबंधों की वकालत करती रही है।
चूंकि मौजूदा सरकार में विदेश मंत्री नेपाली कांग्रेस से हैं, ऐसे में नेपाली कांग्रेस भारत के साथ इतना बड़ा जोखिम लेने से बचेगी। इसलिए नेपाल दो पड़ोसियों के बीच संतुलित विदेश नीति बनाए रखने का प्रयास कर रहा है, लेकिन सवाल यह है कि क्या ओली का चीन के प्रति झुकाव नेपाल के लिए फायदे का सबब बना है? उत्तर नकारात्मक ही है, क्योंकि नेपाल और चीन के बीच जितने भी बड़े समझौते पिछले दस वर्षों में हुए हैं, उनमें ज्यादातर ठंडे बस्ते में पड़े हैं और यह बात चीन को सताती रही है।
मई 2017 में चीन ने नेपाल के साथ बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) पर समझौता किया, जिसे चीन की एक बड़ी कूटनीतिक सफलता के तौर पर देखा गया, क्योंकि भारत लगातार बीआरआई के अंतर्गत बने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की आलोचना करता रहा है।
बीआरआई समझौते के तहत चीन को नेपाल में बड़े बुनियादी ढांचे वाली तमाम परियोजनाओं में निवेश करना है, जिनमें ट्रांस-हिमालयन बहुआयामी कनेक्टिविटी नेटवर्क खास है, जो नेपाल को रेल एवं सड़क मार्ग से तिब्बत प्रांत से जोड़ने वाला है। इससे ऐसा लगा कि नेपाल चीन के रास्ते भारत पर अपनी निर्भरता कम करने का मार्ग खोज रहा है, लेकिन करीब सात वर्ष बीत जाने के बाद भी नेपाल में ऐसी एक भी परियोजना लागू नहीं हो सकी है।
इसके दो कारण हैं। पहला, नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता के चलते परियोजनाओं की पहचान नहीं हो पाई है। दूसरा, नेपाल लगातार चीन से बीआरआई के अंतर्गत आने वाली परियोजनाओं के लिए सहयोग वित्तीय सहायता के तौर पर चाहता है। जबकि चीन कर्ज देने में रुचि रखता है। श्रीलंका का उदाहरण देखते हुए नेपाल इससे डर रहा है। बड़े कर्ज के चलते श्रीलंका को अपने हंबनटोटा जैसे बंदरगाह का नियंत्रण चीन के हाथों में देना पड़ा है।
अगर नेपाल चीन से कर्ज लेता है तो भविष्य में उसे नेपाल पर दबाव बनाने का अवसर मिलेगा, जो बीआरआई का मुख्य वैश्विक उद्देश्य रहा है। वर्ष 2016 में ओली ने अपनी चीन यात्रा के दौरान उसके साथ परिवहन एवं परिगमन समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। इसके तहत नेपाल चीन के छह बंदरगाहों के रास्ते अन्य देशों से व्यापार कर सकता है।
नेपाल पूरब में चीन से और तीन ओर से भारत से घिरा हुआ है। वह भारत के बंदरगाहों का उपयोग कर अन्य देशों से व्यापार करता रहा है। यह उसके लिए हर तरह से फायदेमंद है, लेकिन 2015 में भारत के साथ सीमाबंदी का मुद्दा सामने आने के बाद ओली ने चीन को एक विकल्प के तौर पर दिखाने का प्रयास किया।
व्यावहारिक तौर पर देखा जाए तो चीन के बंदरगाह नेपाल से कम से कम 3,000 किलोमीटर दूरी पर हैं। जबकि भारत का कोलकाता बंदरगाह मात्रा 700 किलोमीटर दूर है। समझौते के छह साल बाद भी नेपाल ने चीन के बंदरगाहों के रास्ते केवल एक ही बार व्यापार किया है। इसकी वजह यह है कि नेपाल के लिए भारत के रास्ते व्यापार करना आसान और किफायती है।
भारत के साथ नेपाल के संबंधों पर प्रकाश डाला जाए तो हाल में नेपाल ने भारत के रास्ते बांग्लादेश को बिजली बेची है, जो क्षेत्रीय सहयोग में एक महत्वपूर्ण पहल है। बांग्लादेश को बिजली बेचने से नेपाल को न केवल आर्थिक फायदा होगा, बल्कि उसके लिए भारत के रास्ते अन्य देशों को भी बिजली बेचने के रास्ते खुलेंगे।
भारत और नेपाल पनबिजली क्षेत्र में एक और मजबूत साझेदारी की ओर अग्रसर हो रहे हैं। इसके अलावा आज भारत नेपाल का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। सीमा विवाद जैसे मुद्दे के बावजूद भारत और नेपाल के द्विपक्षीय संबंधों में मजबूती आई है। दोनों देश विज्ञान और तकनीक जैसे नए क्षेत्रों में भी आगे बढ़ रहे हैं। ऐसे में, इस नतीजे पर पहुंचना सही नहीं होगा कि ओली की चीन यात्रा भारत के लिए बुरी खबर है।
(लेखक एशिया सोसायटी पालिसी इंस्टीट्यूट, दिल्ली के सहायक निदेशक हैं)














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