विचार: आपदाओं से जूझता उत्तराखंड, मौसम के पूर्वानुमान की प्रणाली भी सुदृढ़ बनाई जानी चाहिए
उच्च हिमालयी क्षेत्र में धराली जैसी घटनाओं का गहन अध्ययन जरूरी है। चूंकि आपदाओं में नदी के निकट निर्माण को सबसे अधिक नुकसान होता है। इसलिए सीढ़ीदार खेतों और नदी तलों में निर्माण से बचा जाना चाहिए। पहाड़ों पर मौसम के पूर्वानुमान की प्रणाली सुदृढ़ बनाई जानी चाहिए। इससे वर्षा पैटर्न में होने वाले परिवर्तनों को अधिक प्रभावी ढंग से समझने में मदद मिलेगी।
डॉ. मनीष मेहता। उत्तरकाशी जिले के धराली में भीषण बाढ़ आने से खीरगंगा नदी उफान पर आ गई और पहाड़ी इलाकों में टनों मलबा नदी किनारे आ गया। इससे व्यापक जनधन हानि हुई। अभी इसका आकलन करना कठिन है कि यह हानि कितनी बड़ी है। यह ध्यान रहे कि 5 अगस्त को ही कुछ और स्थानों पर बादल फटने से तबाही हुई। इनमें पर्यटन स्थल हर्षिल भी है। तबाही इसलिए ज्यादा हुई, क्योंकि नियम-कानूनों की अनदेखी कर तमाम निर्माण कर लिए गए थे।
धराली में सड़कें, इमारतें और दुकानें डूब गईं। हिमालय, टेक्टोनिक रूप से सक्रिय दुनिया की सबसे युवा और सबसे नाजुक पर्वत प्रणाली है। यह क्षेत्र उच्च ढाल और अनिश्चित मौसम के कारण कई उच्च पर्वतीय खतरों से ग्रस्त है। भूकंप और अचानक बाढ़, चट्टान गिरने सहित विभिन्न प्रकार के भूस्खलन, मलबा प्रवाह और हिमनद झील विस्फोट बाढ़ जैसी प्रक्रियाएं हिमालय में सबसे आम खतरे हैं। इनसे मानव जीवन और बुनियादी ढांचे को भारी नुकसान होता है।
मानसून (जून से सितंबर) के दौरान अत्यधिक वर्षा के कारण अचानक बाढ़ और भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाएं आमतौर पर होती रहती हैं। अध्ययनों के अनुसार, हाल के दशकों में हिमालय में ऐसी आपदाओं की संख्या और आवृत्ति में वृद्धि हुई है। हिमालय के ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने और इन क्षेत्रों में (3000 मीटर से ऊपर) भारी वर्षा के कारण आसपास की ढलानें और हिमनद (ग्लेशियर) अस्थिर हो जाते हैं। हिमनद से बनी कई झीलें और फैलती हैं, जिससे खतरे बढ़ते हैं।
हाल में, पृथ्वी विज्ञानियों और नीति निर्माताओं ने लगातार गर्म दिनों और भारी वर्षा जैसी घटनाओं पर ध्यान केंद्रित किया है, ताकि उनके कारणों और परिणामों को समझा जा सके। यद्यपि उच्च पर्वतीय जलवायु और भू-भाग की स्थितियों में अंतर और हिमालय में दीर्घकालिक जलवायु डेटा के सघन नेटवर्क की कमी के कारण, विज्ञानी अभी भी पूरी तरह से यह नहीं समझ पाए हैं कि ग्लोबल वार्मिंग ऐसी घटनाओं की तीव्रता और आवृत्ति को किस प्रकार प्रभावित करती है।
उत्तराखंड भारत के हिमालयी राज्यों में से एक है, जहां प्राकृतिक आपदाओं का लंबा इतिहास रहा है। इन आपदाओं से निचले इलाकों में रहने वाली आबादी और बुनियादी ढांचे को भारी नुकसान पहुंचता है। यहां हर साल बड़ी संख्या में तीर्थयात्री और पर्यटक भी आते हैं। हिमालय में अधिक मानसूनी वर्षा के कारण अचानक बाढ़, भूस्खलन और इससे बनी झीलों में बाढ़ आ जाती है। ये आपदाएं क्षेत्रीय भूगोल को बदल देती हैं।
इसका असर इन क्षेत्रों की जैव विविधता पर भी पड़ता है। कई निचले इलाकों में आपदाओं ने बुनियादी ढांचे को भी भारी नुकसान पहुंचाया है। उदाहरण के लिए इस क्षेत्र में भूस्खलन 1866 में, फिर 1879 में नैनीताल के अल्मा हिल में हुआ, लेकिन अगले वर्ष 19 सितंबर 1880 को शहर के उत्तरी छोर पर एक भीषण भूस्खलन हुआ, जिसमें 151 लोग मारे गए। जुलाई 1983 में, अत्यधिक वर्षा के कारण कर्मी नदी में बाढ़ आ गई। मलबे ने 40 मीटर ऊंचा भूस्खलन बांध बना दिया, जिससे नदी का प्रवाह बाधित हो गया।
बांध पल भर में टूट गया और जनहानि हुई। 18 अगस्त 1998 को कुमाऊं हिमालय के मालपा गांव में बारिश के कारण बड़े पैमाने पर चट्टान गिरने से 250 लोग मारे गए और 800 मवेशी मलबे में दब गए। इसी तरह मदमहेश्वर घाटी में भारी बारिश की घटनाओं ने बेंती और पुंडर गांवों को तबाह कर दिया और मदमहेश्वर नदी का प्रवाह अवरुद्ध कर दिया। इस आपदा में 101 लोग मारे गए। 16 से 20 सितंबर 2010 के बीच भारी बारिश के कारण बाढ़ और भूस्खलन से 214 व्यक्ति और 1771 जानवर मारे गए।
इसके अलावा, 15 से 17 जून 2013 के बीच असामान्य रूप से समय से पहले हुई मानसून की बारिश और पिघलती बर्फ ने गढ़वाल हिमालय की नदियों (जैसे अलकनंदा, मंदाकिनी, यमुना नदी) में भयानक बाढ़ ला दी। इसके परिणामस्वरूप कई भूस्खलन हुए। यात्रा के दौरान हजारों तीर्थयात्री जगह-जगह फंस गए। जून 2013 में विनाशकारी आपदा के परिणामस्वरूप 5, 000 से अधिक लोगों की जान चली गई। लाखों लोग प्रभावित हुए। विश्व बैंक के अनुसार इस घटना के कारण वित्तीय नुकसान 250 मिलियन डालर से अधिक था।
7 फरवरी 2021 को सुबह 10 बजे चमोली जिले में ऋषिगंगा क्षेत्र मेंरौंथी ग्लेशियर के कारण बाढ़ आई। रैणीगांव के पास ऋषिगंगा जलविद्युत परियोजना के जलाशय और तपोवन के पास तपोवन विष्णुगाड परियोजना (530 मेगावाट) बाढ़ के साथ आए मलबे से नष्ट हो गए। इस त्रासदी में 205 लोगों की जान चली गई थी।
उच्च हिमालयी क्षेत्र में धराली जैसी घटनाओं का गहन अध्ययन जरूरी है। चूंकि आपदाओं में नदी के निकट निर्माण को सबसे अधिक नुकसान होता है। इसलिए सीढ़ीदार खेतों और नदी तलों में निर्माण से बचा जाना चाहिए। पहाड़ों पर मौसम के पूर्वानुमान की प्रणाली सुदृढ़ बनाई जानी चाहिए। इससे वर्षा पैटर्न में होने वाले परिवर्तनों को अधिक प्रभावी ढंग से समझने में मदद मिलेगी। जीवन बचाने के लिए, आपदाओं का अधिक सटीक पूर्वानुमान लगाने के लिए वैज्ञानिक ज्ञान को आगे बढ़ाना भी आवश्यक है।
(लेखक वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के वरिष्ठ विज्ञानी हैं)
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