[ विकास सारस्वत ]: महाराष्ट्र के पालघर में दो साधुओं समेत तीन लोगों की निर्मम हत्या ने देश को झकझोर कर रख दिया। भारत के जीवन दर्शन में साधुभाव का विशेष महत्व है। यहां पुलिस की उपस्थिति में भीड़ द्वारा साधुओं की हत्या होना समय के साथ आए सामाजिक पतन का भी सूचक है। इस घटना के कई चिंताजनक पहलू सामने आए हैं। उग्र भीड़ द्वारा साधुओं को अपने कब्जे में लेने के बावजूद करीब चार घंटे तक वन विभाग की चौकी पर पर्याप्त पुलिस बल नहीं बुलाया गया। रिपोर्ट दर्ज करने में विलंब किया गया और जघन्य अपराध पर अपमान की कलई चढ़ाते हुए शुरुआत में घटना को तीन ‘चोरों’ की भीड़ द्वारा हत्या के रूप में प्रसारित किया गया।

शासन का पूरा जोर घटना को ढकने पर लगा रहा

शासन का पूरा जोर घटना के संभावित सामाजिक एवं राजनीतिक परिणामों को ढकने पर लगा रहा। पहले बच्चा चोरी की अफवाह को आदिवासियों के एकत्रित होने का कारण बताया गया, फिर किडनी चुराने के उद्देश्य से अपहरण की अफवाह को रेखांकित किया गया। कुछ समय बाद खबरें आने लगीं कि यहां के आदिवासी पहले भी सरकारी कर्मचारियों की क्षेत्र में आवाजाही के विरुद्ध रहे हैं।

आदिवासी धर्मांतरण कर ईसाई बन चुके हैं और वे बाहरी लोगों का हस्तक्षेप पसंद नहीं करते

साधुओं की हत्या के बाद मामूली सी प्रतीत होती, लेकिन गंभीर आयामों वाली यह खबर भी सामने आई कि क्षेत्र के अधिकांश आदिवासी धर्मांतरण कर ईसाई बन चुके हैं और वे बाहरी लोगों का गांव के भीतर हस्तक्षेप पसंद नहीं करते। एक खबर यह भी आई कि काश्तकारों के नाम पर बने एक ईसाई एनजीओ ने आरोपियों की कानूनी लड़ाई का बीड़ा उठाया है। नक्सलियों की चिर परिचित शैली में इस संगठन द्वारा सरकारी अमले को आदिवासी वर्ग का शत्रु बताया जाता है। वह आदिवासियों में हिंदू धर्म के प्रति घृणा भरने और उन्हें हिंदू धर्म की मुख्यधारा से जोड़ने के हिंदू संगठनों के प्रयासों को जातीय संहार की संज्ञा देता है।

हिंदू संगठनों के कार्यकर्ताओं के प्रति द्वेष भाव 

वह क्षेत्र में काम कर रहे हिंदू संगठनों के कार्यकर्ताओं के प्रति द्वेष भाव उत्पन्न करने के साथ ही आदिवासियों को हिंदुओं से न सिर्फ अलग बताता है, बल्कि उन्हें बरगलाने के लिए यह दुष्प्रचार भी करता है कि हिंदू तो उन्हें असुरों का वंशज मानते हैं। इस संगठन के समर्थकों पर क्षेत्र में ‘महानुभव पंथ’ नामक वैष्णव संप्रदाय के अनुयायियों द्वारा हमलों के आरोप हैं। तुलसी की माला पहनने वाले इस पंथ के अनुयायी उनके निशाने पर इसलिए रहे हैं, क्योंकि उन्होंने धर्मांतरण का विरोध किया है।

धर्मांतरण माफिया के प्रभाव के कारण साधुओं की हत्या हुई

तथ्य यह भी है कि इस संगठन के माकपा से गठजोड़ ने पालघर जिले के दहाणू विधानसभा क्षेत्र में मार्क्सवादियों को मजबूती प्रदान की है। पिछले चार विधानसभा चुनावों में यहां दो बार मार्क्सवादी उम्मीदवार को सफलता मिली है। वर्तमान में भी मार्क्सवादी विनोद निकोले ही दहाणू से विधायक हैं। इस गठजोड़ के साथ धर्मांतरण माफिया के प्रभाव ने ही इस क्षेत्र में अराजकता, राज्यविद्रोह और धर्मोन्माद की वह स्थिति पैदा की जिसके चलते साधुओं की हत्या हुई।

ओडिशा में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या भी नक्सल धर्मांतरण माफिया गठजोड़ ने की थी

यह भी विचारणीय है कि 12 वर्ष पूर्व ओडिशा के कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या भी नक्सल-धर्मांतरण माफिया गठजोड़ की ओर से की गई थी। इस गठजोड़ के षड्यंत्रकारी प्रयासों का सबसे चिंताजनक पहलू भोले-भाले आदिवासियों के मन में अराजकता और भारतीय संघ एवं शासकीय व्यवस्था के प्रति दुर्भावना भरना है। शासन एवं सरकारी कर्मचारियों को गांव की सीमाओं से दूर रखने का जो प्रयास पालघर के गढ़कचिंचले में देखने को मिला है वह नया नहीं है, बल्कि यह उपक्रम गुजरात से लेकर ओडिशा तक आदिवासी बहुल इलाकों में बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। यूं तो नक्सलियों ने शुरू से हिंसा के दम पर सुरक्षाबलों एवं शासकीय तंत्र को अपने प्रभाव क्षेत्र से दूर रखने का प्रयास किया है, पर पिछले कुछ समय में वन्य कानूनों और ग्रामसभा अधिकारों के नाम पर यह मुहिम जल, जंगल और जमीन की आड़ में भी चल पड़ी है।

गांव के बाहर पत्थर लगाकर गांवों को स्वायत्त घोषित किया जा रहा

झारखंड के खूंटी, गुमला, चाईबासा, सिमडेगा और पश्चिमी सिंहभूम, छत्तीसगढ़ के जशपुर, मध्य प्रदेश के डिंडोरी और ओडिशा के सुंदरगढ़ में यह और भी विशिष्टता के साथ पत्थलगड़ी आंदोलन का रूप ले चुकी है। पत्थलगड़ी आदिवासियों की सदियों पुरानी वह परंपरा है जिसमें गांव के बाहर एक शिलालेख पर रिहायश की आबादी, गांव का इतिहास और जनजाति के नियम आदि का उल्लेख रहता था। आज उस पत्थलगड़ी को विकृत रूप देकर गांव के बाहर एक बड़ा पत्थर लगा गांवों को स्वायत्त घोषित किया जा रहा है।

कानून की मनगढ़ंत व्याख्या कर आदिवासियों को बरगलाया जा रहा

पंचायत एक्ट 1996, फॉरेस्ट एक्ट 2006, संविधान के अनुच्छेद 244 (1) एवं 19 (5) और एससी-एसटी एक्ट 1989 की मनगढ़ंत व्याख्या कर आदिवासियों को बरगलाया जा रहा है कि ग्राम सभाएं स्वायत्त गणराज्य हैं।

पत्थलगड़ी आंदोलन का नारा है- ‘लोकसभा न राज्यसभा, सबसे ऊपर ग्राम सभा' 

पत्थलगड़ी आंदोलन का नारा है- ‘लोकसभा न राज्यसभा, सबसे ऊपर ग्राम सभा।’ नियमों के उल्लंघन पर अर्थदंड का प्रावधान है। इन गांवों में केंद्र और राज्य के कानून नहीं चलते और आपराधिक मामलों का निस्तारण जनता अदालत द्वारा किया जाता है।

मिशनरियों का माओवादियों को समर्थन जगजाहिर है

आदिवासियों को राशन कार्ड, आधार एवं अन्य सरकारी प्रमाणपत्रों को रखने की मनाही है। इसका विरोध करने पर इसी साल जनवरी में एक सरपंच समेत सात आदिवासियों की पश्चिम सिंहभूम में हत्या कर दी गई थी। आरोप है कि खूंटी गैंगरेप और भाजपा सांसद करिया मुंडा के घर पर हुआ हमला भी पत्थलगड़ी आंदोलनकारियों ने ही सबक सिखाने के उद्देश्य से किया। यहां मिशनरियों का माओवादियों को समर्थन जगजाहिर है।

पालघर कांड की सीआइडी जांच कितनी ही निष्पक्ष सही, पर समग्र नहीं हो सकेगी

पालघर कांड के राष्ट्रव्यापी आयाम और धर्मांतरण कराने वाले संगठनों के स्थानीय प्रभाव को देखते हुए राज्य सीआइडी द्वारा जांच कितनी ही निष्पक्ष सही, पर समग्र नहीं हो सकेगी। न्याय हुआ भी तो सजा केवल उन आदिवासियों को मिलेगी जो राष्ट्रव्यापी षड्यंत्र में प्यादे की तरह इस्तेमाल हुए हैं। यदि स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या की तरह इन हत्याओं को भी साधारण अपराध मान कर जाने दिया गया तो यह भारी भूल होगी।

( लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य हैं )