मुताह निकाह से भी मुक्ति का समय
अस्थाई विवाह का जरिया बने मुताह पर बहस तो बहुत हुई, पर उसे खत्म करने की कोई याचिका अभी तक नहीं आई
नाइश हसन
एक निश्चित समय के लिए एक निश्चित रकम के बदले स्त्री और पुरुष का संबंध ही मुताह विवाह कहलाता है। मुताह का शाब्दिक अर्थ होता है आनंद। इसीलिए मुताह को आनंद के लिए किए विवाह की संज्ञा भी दी जा सकती है। इस्लाम के पहले अरब समाज में यह काफी प्रचलित था। इस्लाम के प्रचार के बाद भी युद्ध अथवा व्यापार के सिलसिले में पत्नियों से काफी समय तक दूर रहने वाले पुरुष अस्थाई विवाह कर लिया करते थे जो कुछ घंटों, कुछ दिनों या फिर कुछ महीनों का भी हो सकता था। यह एक तरह से वेश्यागमन ही होता था। कालांतर में जब इसका अधिक दुरुपयोग होने लगा तो पैगंबर मुहम्मद ने मुताह को इस्लाम विरोधी घोषित कर दिया, परंतु उनके जीवनकाल में यह पूरी तरह खत्म नहीं हो सका। पैगंबर मुहम्मद के बाद खलीफा (प्रशासनिक प्रमुख) उमर ने इसे पूरी तौर पर समाप्त करने की कोशिश की। यही वह समय भी था जब वैचारिक मतभेद के कारण मुस्लिम समाज शिया और सुन्नी दो अलग संप्रदायों में विभाजित हो रहा था।
अथना अशारिया शिया जैसे उप संप्रदाय को छोड़कर इस्लाम के किसी अन्य संप्रदाय में मुताह विवाह की मान्यता नहीं है। चूंकि शिया उमर सहित प्रथम तीन खलीफा सुन्नी विचारधारा के खलीफाओं के विरोधी थे इसलिए ऐसा लगता है कि उनके प्रति अपने विरोध को प्रकट करने के लिए ही उन्होंने उनके मुताह निकाह के निषेध को नहीं माना। मुताह महज इस्लाम पूर्व के इतिहास की किताबों का हिस्सा मात्र नहीं है जिसे पढ़कर हम उस युग की परंपराओं को जान सकते हैं। यह आज भी हमारे देश में प्रचलित है और शिया पारिवारिक विधि का हिस्सा है। इसमें किसी गवाह की जरूरत नहीं है। मुताह होते समय निर्धारित कालावधि तय की जाती है। इस विवाह का अंत तलाक देकर नहीं हो सकता। निर्धारित अवधि समाप्त हो जाने पर यह स्वत: समाप्त माना जाता है। मुताह निकाह से पत्नी को पति की संपत्ति में कोई अधिकार भी नही मिलता। जीवनर्पयंत का मुताह निकाह भी हो सकता है, यदि सहवास की अवधि जीवनर्पयंत तक निश्चित कर दी गई हो। इस निकाह में पति-पत्नी एक दूसरे के उत्तराधिकारी नही माने जाते। सहवास के बाद प्रतिफल के रूप में तय राशि प्राप्त करने का अधिकार मुताह पत्नी को होता है।
यदि सहवास बिल्कुल भी न हुआ हो तब भी वह निश्चित रकम का आधा हिस्सा हासिल करने की अधिकारी होती है। निर्धारित अवधि से पूर्व ही यदि पत्नी ने पति का त्याग कर दिया हो तो पति को असमाप्त अवधि के अनुपात में पूरी धनराशि से कुछ कटौती कर लेने का अधिकार भी रहता है। निर्धारित अवधि पूर्ण होने के बाद भी यदि पति पत्नी साथ रहकर सहवास करते रहे तो न तो उनका विवाह शून्य होगा और न ही उसे निकाह माना जाएगा। ये सब तौर-तरीके भारत में मुताह विवाह के विधिमान्य नियम है। ये तौर-तरीके इक्कीसवीं सदी में भी बाकायदा जारी हैं और उन पर रोक लगाने की ठोस पहल नहीं हुई है। अरब और ईरान से ऊंची डिग्रियां लेने के बाद विशेष किस्म के लिबास में हिंदुस्तान में अपना ज्ञान बांटते और समाज सुधार का दावा करते मौलानाओं ने कभी भी मुताह को समाप्त करने की कोई पहल नहीं की। दरअसल चाहे हलाला का सवाल हो या फिर मुताह का, इस पर चुप्पी लगाकर अल्लाह का फरमान बताने वाले शिया और सुन्नी मौलाना जहां खेमाबंद बने रहे वहीं किसी सरकार ने भी मुताह की शिकार महिलाओं की तकलीफ को नहीं समझा।
तीन तलाक की तरह मुताह का सवाल भी औरतें ही उठा रही हैं। मुताह निकाह के मामले लंबे समय से सामने आते रहे हैं। हाल में हैदराबाद में पुलिस ने एक मुताह निकाह रैकेट का खुलासा करते हुए ओमान और कतर के आठ नागरिकों और तीन काजियों को गिरफ्तार किया है। इन्होंने कुछ नाबालिग लड़कियों को भी शिकार बनाया था। गिरफ्तार काजियों में मुंबई के प्रमुख काजी फरीद अहमद खान और हैदराबाद के चार लॅज मालिक और दलाल शामिल हैं। पुलिस ने एक लड़की की शिकायत पर उक्त रैकेट का पर्दाफाश किया। अदालतों में भी मुताह निकाह के कई मामले आते रहे हैं। एसए हुसैन बनाम राजम्मा हैदराबाद का बहुत मशहूर केस (एआइआर 1977 आंध्र प्रदेश 154) रहा है। इसमें मुताह की अवधि में ही राजम्मा के पति हबीबुल्लाह की मुत्यु हो गई और हबीबुल्लाह के भाई ने राजम्मा को पति की संपत्ति का उत्तराधिकारी बनाने से इन्कार कर दिया, परंतु कोर्ट ने राजम्मा को संपत्ति का उत्तराधिकारी घोषित किया, क्योंकि मुताह की अवधि को साबित नहीं किया जा सका।
इसके अतिरिक्त शाहजादा खानम बनाम फक्र जहां का मामला भी है जो मुताह अवधि पर विवाद के चलते आंध्र हाई कोर्ट पहुंचा था। अस्थाई विवाह का जरिया बने मुताह पर कोर्ट में लंबी बहसें तो बहुत हुईं, पर उसे समाप्त करने की कोई याचिका न्यायालय में कभी नहीं आई। मौलवियों के हिसाब से शायद यह भी शरीयत कानून का अभिन्न हिस्सा ही होगा, जिस पर हाथ लगाने से तलवारें खिंच जाएंगी। हैदराबाद में आज भी काफी संख्या में अरबी, सूडानी, यमनी, ओमानी और कभी कभी मुंबई के लोग भी मुताह निकाह के लिए आते हैं। वे कभी-कभी तो चंद घंटों के लिए निकाह करते हैं। उसके बाद महिला को छोड़ कर चले जाते हैं। हैदराबाद की सामाजिक कार्यकर्ता जमीला निशात का कहना है कि ऐसे लोग धर्म के नाम पर गरीबी का फायदा उठाकर लड़कियों को यौन दासी बनाते हैं। उनके अनुसार अब मुताह के तरीके बदल गए हैं। पहले लोग कम उम्र लड़कियों को तलाशते थे, लेकिन पोक्सो कानून के बाद इस पर अंकुश लगा है। जमीला लगभग 100 नाबालिग लडकियों की शादी इसी कानून के कारण ही रुकवा पाई हैं, लेकिन बालिग लड़कियों को मुताह के चंगुल से निकालना अभी भी मुश्किल है।
तीन तलाक की ही तरह इस घिनौनी प्रथा की भी देश से विदाई होना बेहद जरूरी है। अच्छा होगा कि भारत सरकार संविधान की धारा 14 और 21 के हवाले से मुताह संबंधी नियम को रद करने की घोषणा करे और ऐसे निकाह करने वालों के लिए दंड का प्रावधान करे। इसके साथ ही मुस्लिम विवाह और तलाक के पंजीकरण को पूरी तरह अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। 21 वीं सदी में ऐसी प्रथा अस्तित्व में नहीं रहनी चाहिए जो औरत को यौन दासी बनाकर रखने की वकालत करती हो, भले ही उसकी शिकार औरतें सीमित संख्या में ही क्यों न हों। ऐसी प्रथा इस देश के लिए शर्म का विषय है।
[लेखिका रिसर्च स्कॉलर एवं मुस्लिम महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं]
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