इस उपलब्ध मानव जीवन में कर्म की गति, कर्म का स्वरूप और निषिद्ध कर्म-इन तीनों को जान लेना जरूरी है। इसके बाद सारी कामनाओं और संकल्पों से मुक्त होकर आगे बढऩा चाहिए ताकि चित्त को शुद्ध बनाया जा सके। विचार में परिवर्तन होने से मनुष्य में परिवर्तन हो जाता है, उसका व्यक्तित्व बदलने लगता है। व्यक्तित्व बदलने से समाज और राष्ट्र में भी परिवर्तन हो जाता है। नतीजतन, आप देख सकते हैं कि पूरा विश्व कहीं न कहीं युद्ध के कगार पर खड़ा है। राष्ट्रीय नेताओं और धार्मिक नेताओं के विचारों में कोई सामंजस्य नहीं रह गया है। समाज में अराजकता, अनाचार, अत्याचार और व्यभिचार चरम पर है। आज का मानव कहां भाग रहा है, उसे स्वयं पता नहीं। विचारों की दौड़ में सब एक दूसरे को मात देने में जुटे हैं। नैतिक पतन तेजी से हो रहा है। आपसी प्रेम और भाईचारा घृणा में कभी-कभी बदलता नजर आता है। अपनी आय से परेशान व्यक्ति शांति की तलाश में इधर-उधर भटक रहा है? परंतु शायद वह विचार ठीक से नहीं कर पाता है कि यह उसे मिलेगी कैसे? शांति है कहां? मनुष्य की बढ़ती कामनाएं, महत्वाकांक्षाएं उसे अशांति की तरफ जबरन ले जा रही हैं। बाहरी दुनिया की चकाचौंध के सामने वह अपने अस्तित्व को भूल गया है, अपने मूल स्नोत से कटकर रह गया है।

इस प्रगतिशील विकासवाद की गोद में मनुष्य की शांति का मार्ग अवरुद्ध हो गया है। ऐसे में धर्म ही एकमात्र ऐसा मार्ग रह गया है, जो मनुष्य को शांति प्रदान कर सकता है। यदि विश्व के हर राष्ट्र और उसके नागरिक यह भली-भांति समझ लें कि उनका अपने प्रति, समाज के प्रति, राष्ट्र और विश्व के प्रति क्या उत्तरदायित्व है, तो एक बार खुशहाली और प्रसन्नता पुन: वापस आ सकती है। यह समझ तभी आएगी, जब विचारों में परिवर्तन हो। इसलिए यह नितांत आवश्यक है कि हम योग को जीवन में उतारें। योग जीवन जीने की कला है। साथ ही सरल, सहज और सुदृढ़ है। धर्म एक व्यवस्था है, जो संस्कृति और सभ्यता का निर्माण करती है। संस्कृति और सभ्यता से चरित्र का निर्माण होता है, जिसके निर्माण में योग महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। योग कर्म करने के ढंग, व्यवस्था और कुशलता को बढ़ाता है।

[ महायोगी पायलट बाबा ]