पंकज चतुर्वेदी। इन दिनों देश में हर दिन किसी न किसी शहर या कस्बे से आवारा कुत्तों के काटने या कुत्तों को पसंद-नापसंद करने वालों के बीच टकराव अथवा कुत्तों के शिकार हुए लोगों को सरकारी अस्पतालों में उचित इलाज न मिलने की खबरें सुर्खियां बन रही हैं। आवारा कुत्तों से उपजी समस्याएं अदालतों तक पहुंच रही हैं। बीते दिनों ही जहां दिल्ली हाई कोर्ट ने कुत्तों के काटने से एक बच्ची की मौत का संज्ञान लिया, वहीं इंदौर हाई कोर्ट ने कहा कि अवारा कुत्तों से हर कोई परेशान है।

भारत जैसी स्थिति दुनिया के अन्य देशों की भी है। फर्क सिर्फ यह है कि विकसित देश इसके कारकों और निदान पर गंभीरता से काम कर रहे हैं। अमेरिका में जब कुत्तों के आक्रामक होने की घटनाएं बढ़ीं तो इसके प्रमुख कारकों के अलावा जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभावों को भी अध्ययन में शामिल किया गया। हार्वर्ड स्कूल आफ पब्लिक हेल्थ और हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के शोधकर्ताओं का मानना है कि आक्रामकता सभी जानवरों में एक सामान्य व्यवहार है।

अक्सर अपने निर्धारित क्षेत्रों की रक्षा करने, भोजन-पानी आदि के सीमित संसाधनों का अधिक से अधिक हिस्सा प्राप्त करने, अपनी ही नस्ल के अन्य साथियों से प्रतिस्पर्धा करने जैसे मसलों पर कुत्ते और अन्य जानवर हिंसक रहते हैं, लेकिन आमतौर पर इंसान के साथ कुत्ते ऐसा व्यवहार नहीं करते। इस शोध में यह भी बताया गया कि धरती के तापमान में वृद्धि भी कुत्तों की आक्रामकता में इजाफा कर रही है। सुरक्षित पर्यवास की समस्या जैसे ही बढ़ती है, कुत्ते हिंसक हो जाते हैं। बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण कुत्तों को सांस लेने में दिक्कत होती है। यह भी उनकी मानसिक स्थिति को बिगाड़ती है।

एक अनुमान है कि भारत में लगभग आठ करोड़ कुत्ते सड़कों पर विचरते हैं। चूंकि अधिकांश कुत्ते भोजन के लिए मनुष्यों पर निर्भर होते हैं, लिहाजा जहां भी घनी बस्ती होती है, वे बिन बुलाए वहां जाकर किसी घर के बाहर बैठ जाते हैं। वास्तव में बढ़ता शहरीकरण कुत्तों के अनुकूल नहीं है। खासकर ऊंची इमारतें और गेट बंद कालोनियां, जहां से अक्सर कुत्ते भगाए जाते हैं। शहरीकरण के चलते शोर, ट्रैफिक, प्रदूषण, कचरे से मांसाहारी खाना एवं फिर उसका चस्का लग जाना, वाहनों और परिसरों में रोशनी की चकाचौंध भी ऐसे कारण हैं, जो कुत्तों को आक्रामक बना रहे हैं।

माना जाता है कि इंसानों और कुत्तों का साथ तकरीबन 12 हजार साल पुराना है। मनुष्य ने धरती पर पैदा होने के बाद सबसे पहले कुत्ते पालना शुरू किया। प्राचीन काल में कुत्ते इंसानों को शिकार करने में मदद करते थे। इसके अलावा वे उनके घरों एवं फसलों की सुरक्षा भी करते थे। कुत्ते कम भोजन में भी वफादार बने रहते हैं। इसी गुण ने उन्हें इंसानों का सबसे विश्वस्त जानवर बना दिया। जब कुत्तों की संख्या तेजी से बढ़ती है तो उनका क्षेत्र कम हो जाता है। इसी के अनुसार उनका भोजन, सोने की जगह भी सिकुड़ती है। ऐसे में कुत्ते असुरक्षित महसूस करने लगते हैं और आक्रामक हो जाते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया में कुत्ते के काटने से होने वाली बीमारी रेबीज से मौत के 36 प्रतिशत मामले भारत में होते हैं, जिनकी संख्या 18,000 से 20,000 है। रेबीज से होने वाली मौतों में से 30 से 60 प्रतिशत मामलों में पीड़ित की उम्र 15 साल से कम होती है। कुत्ते इंसान पर निर्भर रहते हैं। उनमें पीछा करने की आदत होती है। कई बार कुत्तों को देखकर भागने वाले उनका शिकार बन जाते हैं। यदि किसी कुत्ते को लगता है कि आप बलवान हैं तो वह शायद आप पर हमला न करे। इंटरनेट मीडिया पर यदा-कदा ऐसे वीडियो दिख जाते हैं, जिनमें कुत्ते किसी बच्चे या बुजुर्ग पर हमला करते हैं। बहुत से लोग आशंका में ही आवारा कुत्तों पर चिल्लाते हैं। उन पर पत्थर, गर्म पानी या तेजाब तक फेंकते हैं। कई तो उन्हें जहर भी दे देते हैं। वैसे तो बंदर और सांड़ भी इंसानों की मौत और नुकसान का कारक बन रहे हैं, लेकिन उनके प्रति लोगों में इतना रोष नहीं दिखता।

आवारा कुत्तों की संख्या न बढ़े, इसके लिए उन्हें एंटीरेबीज, एंटी डिस्टेंपर टीके सही समय पर लगें, इसके लिए स्थानीय निकाय प्रयत्नशील नहीं। उनका बंध्याकरण भी समस्या का समाधान नहीं। एक समस्या यह है कि समाज में बहुत से लोगों के लिए ऊंची नस्ल के कुत्ते स्टेटस सिंबल बन गए हैं, लेकिन ऐसे लोग कम खर्चे में पलने वाले देसी कुत्तों को पालने को राजी नहीं। विदित हो कि केंद्र सरकार ने देसी नस्ल के कुत्तों को सुरक्षाबलों में स्थान देकर संदेश भी दिया है कि वे भी किसी से कम नहीं हैं। कुत्तों के काटने की बढ़ती घटनाओं के संदर्भ में उत्तराखंड हाई कोर्ट का 2018 में दिया गया वह आदेश महत्वपूर्ण है, जिसमें कहा गया था, ‘जानवरों को भी इंसानों की ही तरह जीने का हक है। वे भी सुरक्षा, स्वास्थ्य और क्रूरता के मामले में इंसान जैसे ही अधिकार रखते हैं।’

वैसे तो हर राज्य ने अलग-अलग जानवरों को राजकीय पशु या पक्षी घोषित किया है, लेकिन असल में इनसे जानवर बचते नहीं हैं। जब तक समाज के सभी वर्गों तक यह संदेश नहीं जाता कि प्रकृति ने धरती पर इंसान, वनस्पति और जीव जंतुओं को जीने का समान अधिकार दिया, तब तक उनके संरक्षण को इंसान अपना कर्तव्य नहीं मानेगा। यदि कुत्ते इंसान के बीच नहीं रहेंगे तो कहां जाएंगे। जंगल में वे रह नहीं सकते और फिर जंगल तो वैसे भी जंगली जानवरों के लिए कम हो रहे हैं।

(लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं)