किसी भी उपलब्धि का आधार श्रम है। श्रम के बगैर किसी भी क्षेत्र में स्थायी और पूर्ण सफलता अर्जित कर लेना असंभव है। श्रम की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए एक नीतिकार ने कहा है, ''उद्यम करने से ही कार्यो की सिद्धि होती है। इच्छा करने या सोचते-विचारते रहने से नहीं। सोते हुए सिंह के मुंह में पशुगण अपने आप ही नहीं चले जाते।'' इस बात में कोई संदेह नहीं कि श्रम किए बगैर पेट की तृप्ति करना भी कठिन होता है। श्रम से खाद्य पदार्थ उपार्जन करने होंगे, फिर उन्हें पकाना पड़ेगा और हाथों से मुंह तक पहुंचाना पड़ेगा, तभी भूख मिट सकेगी। इसी तरह किसी भी कार्य के श्रम का मूल्य चुकाए बगैर सफलता प्राप्त न हो सकेगी।

संसार में जो कुछ भी ऐश्वर्य, संपदाएं, वैभव और उत्तम पदार्थ हैं, वे सब श्रम की ही देन हैं। श्रम में वह आकर्षण है कि विभिन्न पदार्थ व संपदाएं उसके पीछे खिंची चली आती हैं। श्रम मानव को परमात्मा द्वारा दी सवरेपरि संपत्ति है। जहां श्रम की पूजा होगी, वहां कोई भी कमी नहीं रहेगी। आचार्य विनोबा भावे के शब्दों में ''परिश्रम हमारा देवता है, जो हमें अमूल्य वरदानों से सम्पन्न बनाता है। परिश्रम ही उज्जवल भविष्य का निर्माण करता है।'' परिश्रम धरती पर मानव जीवन का आधार है। श्रम के अभाव में मनुष्य को दुखद परिस्थितियों में गिरने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। स्कॉटिश दार्शनिक कार्लाइल ने कहा है, 'श्रम ही जीवन है।' अकर्मण्य, निष्कि्त्रय व्यक्ति को विभिन्न पदार्थो की उपलब्धियों और वरदानों से वंचित रहना होता है, जिससे उसे अभाव, असहनीयता, दीनता के विषमय घूंट पीने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। इन परिस्थितियों में अपमानित, लाचार, परतंत्र जीवन मृत जीवन से भी बुरा होता है। परिश्रम दो प्रकार का होता है-एक शारीरिक और दूसरा मानसिक। जरूरत है कि शारीरिक और मानसिक श्रम का संतुलन बनाए रखा जाए। दोनों के संतुलन में ही श्रम की पूर्णता निहित है। अकेला मानसिक श्रम अपूर्ण है तो शारीरिक श्रम भी मानसिक श्रम के अभाव में अपूर्ण रह जाता है। विचार करने और कार्य करने की सम्मिलित शक्ति से ही श्रम का पूर्ण स्वरूप बनता है और उसी से किसी भी क्षेत्र में परिपूर्ण सफलता भी अर्जित की जा सकती है। आवश्यकता इस बात की है कि हम जीवन में श्रम को स्थान दें। श्रम को जीवन-मंत्र बनाएं।

[लाजपत राय सभरवाल]