[संजय गुप्त]। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार विश्व की आबादी आठ अरब के आंकड़े को पार कर गई। सिर्फ 11 साल में दुनिया की जनसंख्या सात से आठ अरब तक पहुंची है। इससे पता चलता है कि आबादी कितनी तेजी से बढ़ रही है। अनुमान है कि जनसंख्या वृद्धि में थोड़ी कमी के चलते आबादी के नौ अरब तक पहुंचने में 15 साल लगेंगे। माना जा रहा है कि इसके बाद विश्व की आबादी स्थिर होगी और फिर उसमें कमी आनी शुरू हो जाएगी। संयुक्त राष्ट्र का यह भी आकलन है कि भारत की आबादी अगले वर्ष चीन की आबादी को पार कर जाएगी और इस तरह भारत विश्व की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन जाएगा।

विश्व की बढ़ती हुई आबादी अपने आप में एक चुनौती है, क्योंकि वह पर्यावरण के लिए गंभीर चुनौती पेश कर रही है। इसे लेकर विश्व के तमाम देश पिछले कई वर्षों से माथापच्ची कर रहे हैं। इस माथापच्ची के बीच विश्व के देशों में इस पर कोई सहमति नहीं बन पा रही है कि ऊर्जा के परंपरागत साधनों और विशेष रूप से जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कैसे कम की जाए।

बढ़ती हुई आबादी और उसकी गतिविधियां धरती के तापमान को बढ़ा रही हैं, जो तापमान तमाम समस्याएं पैदा कर रहा है। धरती का बढ़ता तापमान अन्य अनेक समस्याओं के साथ फसल चक्र के लिए भी एक बड़ी चुनौती बन गया है। विश्व की आबादी का एक बड़ा हिस्सा गरीब और विकासशील देशों में रह रहा है, जहां अभी भी ऊर्जा की खपत विकसित देशों के बराबर नहीं है।

जैसे-जैसे इन देशों की अर्थव्यवस्था बढ़ेगी, उनमें ऊर्जा की मांग बढ़ेगी। इससे पर्यावरण पर और अधिक बोझ पड़ेगा। भारत की बढ़ती आबादी आजादी के बाद से ही एक बड़ी चुनौती रही है। यह माना जा रहा है कि आने वाले कई दशकों तक बढ़ती आबादी भारत के लिए गंभीर चुनौतियां पेश करेगी। इसे इससे समझा जा सकता है कि 2050 तक भारत की आबादी 166 करोड़ से अधिक हो जाएगी।

पर्यावरण को बेहतर रखने के लिए भारत ने जो लक्ष्य तय किए हैं, उन्हें हासिल करना एक उपलब्धि होगी, मगर केवल बिगड़ता पर्यावरण ही भारत के लिए चुनौती नहीं है। भारत के सामने विशाल आबादी का समुचित नियोजन उससे भी बड़ी चुनौती है। भारत की बड़ी आबादी खेती पर निर्भर है। यह ठीक नहीं है, क्योंकि खेती की उत्पादकता कम है। इसी कारण देश तेजी से प्रगति नहीं कर पा रहा है। जैसे-जैसे खेती से जुड़े लोग शिक्षित हो रहे हैं, वे नौकरियों की तलाश में शहरों की ओर आ रहे हैं। गांवों से पलायन शहरों के लिए गंभीर चुनौती बनता जा रहा है।

आजादी के बाद भारत के शहरी ढांचे को सुदृढ़ करने और उन्हें बढ़ती आबादी के बोझ को वहन करने लायक बनाने के लिए जो नीतियां बनीं, उसने हमारे शहरों को एक तरीके से बर्बाद ही कर दिया। शहरों के स्थानीय निकाय वित्तीय मामले में कभी आत्मनिर्भर नहीं बन पाए, क्योंकि उनके पास ठोस नीतियां और दूरदृष्टि नहीं थी। इसी कारण शहरों का बुनियादी ढांचा सही आकार नहीं ले सका।

चूंकि राज्य सरकारें ग्रामीण क्षेत्र के वोटों से अधिक चुनी जाती हैं, इसलिए वे शहरीकरण पर उतना ध्यान नहीं देतीं, जितना आवश्यक है। इसी कारण भारतीय शहर अनियोजित विकास की कहानी कहते हैं। यदि आने वाले समय में भारी-भरकम राशि शहरों के बुनियादी ढांचे को संवारने के लिए खर्च नहीं की गई तो हमारे शहर अत्यधिक अव्यवस्थित हो जाएंगे। इससे आर्थिक वृद्धि प्रभावित होगी।

2023 में भारतीयों की औसत उम्र 28.7 वर्ष होगी। 15 से 29 साल के भारतीयों की संख्या देश की आबादी का 27 प्रतिशत है। इसी तरह 25.3 करोड़ भारतीय नागरिक 10 से 19 साल के हैं, जो विश्व में सर्वाधिक हैं। इसके अपने लाभ हैं, लेकिन इतनी बड़ी युवा आबादी को सही तरह शिक्षित करना अपने आप में एक चुनौती भी है। यह चुनौती इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि अच्छे स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों में सभी छात्रों को प्रवेश नहीं मिल पाता।

मोदी सरकार ने नई शिक्षा नीति को लागू अवश्य किया है, पर उसके सकारात्मक परिणाम आने में समय लगेगा। देश की आबादी 1.4 अरब के आसपास पहुंच चुकी है। आने वाले कुछ वर्षों में हमारे देश में बुजुर्गों की भी आबादी बढ़ेगी और वह भी एक चुनौती होगी। इन बुजुर्गों की देखभाल और विशेष रूप से उनके इलाज के लिए अभी जो ढांचा है, वह पर्याप्त नहीं। जैसे-जैसे संयुक्त परिवार समाप्त हो रहे हैं और छोटे परिवार बन रहे हैं, बुजुर्गो की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। वृद्धाश्रमों और अस्पतालों में उनके लिए आवश्यक विशेष सुविधाएं अभी नगण्य ही हैं।

भारत की बढ़ती आबादी के मामले में कुछ विशेषज्ञ यह तर्क भी देते हैं कि आने वाले समय में जिन देशों की आबादी तेजी से गिर रही है, वहां पर कुशल और अकुशल कामगारों की मांग बढ़ेगी और भारत इस मांग को आसानी से पूरा कर सकता है, लेकिन यह तभी होगा, जब भारत की युवा आबादी को बेहतर तरीके से कौशल प्रशिक्षण दिया जाएगा।

अभी कौशल विकास को लेकर जो कदम उठाए गए हैं, वे विकसित देशों की जरूरतों को देखते हुए पर्याप्त नहीं हैं। इसी कारण हमारे कामगार अन्य विकासशील देशों के कामगारों के सामने टिक नहीं पाते। कौशल विकास की जो योजनाएं चल रही हैं, वे कुछ विशेष बदलाव नहीं ला पा रही हैं। इसकी शिकायत हमारा उद्योग जगत भी करता रहता है। तथ्य यह भी है कि जो कामगार विदेश जाते हैं, उनकी उत्पादकता वैसी नहीं होती, जैसी अपेक्षित है।

उत्पादकता के मामले में हम अन्य देशों के सामने बहुत पिछड़े हुए हैं। इस पिछड़ेपन का एक कारण हम भारतीयों में खुद को अनुशासित करने का जज्बा न होना है। औसत युवाओं में अनुशासन और संस्कारों की कमी उन्हें योग्य नागरिक बनाने में आड़े आती है। संस्कार और अनुशासन कोई सरकार नहीं दे सकती।

इस अनुशासन और संस्कार को तो परिवार और समाज से ही सीखना होगा। यदि हर नागरिक यह ठान ले कि वह आने वाले समय में देश के प्रति योगदान देने के लिए स्वयं को अनुशासित और संस्कारी रखने की जो जरूरत है, उसे पूरा करेगा तो भारत की विशाल आबादी देश के लिए एक बड़ा संबल बन सकती है।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]