हरेंद्र प्रताप। अयोध्या में श्रीरामलला की प्राण प्रतिष्ठा के बाद इन दिनों पूरा देश राममय है। इन्हीं प्रभु श्रीराम को काल्पनिक बताकर नकारने के लिए वामपंथी इतिहासकारों ने क्या-क्या तिकड़में नहीं कीं। हिंदुओं के आराध्य देवों के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगाने के लिए कई पुस्तकें तक लिखी डालीं, जो दुर्भाग्य से बाद में हमारे स्कूल-कालेजों के पाठ्यक्रमों का हिस्सा बन गईं। ‘प्राचीन भारत में विज्ञान और सभ्यता’ नामक पुस्तक में प्रभु श्रीराम के बारे में वामपंथी इतिहासकार आरएस शर्मा ने लिखा कि ‘पुराणों की परंपरा के आधार पर श्रीराम का जन्म अयोध्या में ईसा से 2000 वर्ष पूर्व हुआ था, पर खोदाई से यह सत्य सामने आया कि उस समय वहां मानव की कोई बस्ती थी ही नहीं।’

आरएस शर्मा ने अपने इसी तर्क के आधार पर अपनी पुस्तक में ‘प्रभु श्रीराम को काल्पनिक पात्र’ घोषित कर दिया था। आजाद भारत में शिक्षा के क्षेत्र में प्राचीन भारत के बारे में जो कुछ पढ़ाया जाता रहा, वे सब पुस्तकें वामपंथियों ने लिखी थीं। इस कारण आरएस शर्मा द्वारा लिखित ‘प्राचीन भारत’ तथा सतीश चंद्रा द्वारा लिखित ‘मध्यकालीन भारत’ को पढ़कर तैयार हुईं पीढ़ियां न केवल अभारतीय होती रहीं, बल्कि वे भारत को हीन भाव से भी देखने लगीं। इन वामपंथियों ने अपनी पुस्तकों में प्रभु श्रीराम, श्रीकृष्ण और अर्जुन को इतिहास का काल्पनिक पात्र घोषित कर दिया था।

पहले अयोध्या में श्रीराम मंदिर और अब वाराणसी के ज्ञानवापी का भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किए गए वैज्ञानिक सर्वे में वहां प्राचीन काल में भव्य मंदिर होने के प्रमाण सामने आ रहे हैं। इस्लामी आक्रांताओं ने भारत के मंदिरों को तोड़ा और बलात मत परिवर्तन कराया। इस्लामी हमलावरों का इतिहास रक्तरंजित है, पर वामपंथियों ने उनको महिमामंडित किया। उनके द्वारा तोड़े गए आस्था के केंद्रों का भी आरोप वामपंथियों ने साजिशन हिंदुओं पर लगा दिया। सतीश चंद्रा ने ‘मध्यकालीन भारत’ में लिखा है कि हिंदुओं ने बौद्ध और जैन मंदिरों को न केवल तोड़ा, बल्कि उन्होंने बलपूर्वक कब्जा किया।

सतीश चंद्रा के अनुयायी आंखें खोलकर देख लें कि न्यायालय में आज हिंदुओं की तरफ से लड़ने वाले वकील पिता-पुत्र हरिशंकर और विष्णु ‘जैन’ हैं। आरएस शर्मा, सतीश चंद्रा, रोमिला थापर, बिपिन चंद्रा और इरफान हबीब द्वारा लिखी पुस्तकें माध्यमिक से लेकर उच्चतर स्तर तक पढ़ाई जाती रहीं। इनकी पुस्तकों को पढ़कर तैयार हुईं पीढ़ियां इस देश और इसकी सच्चाई को नकारने के लिए किसी भी स्तर तक जाने को तैयार हैं। इसका जीवंत उदाहरण वामपंथी हैं।

22 जनवरी को अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम के बाद वामपंथियों की प्रतिक्रिया उनके विकृत सोच को प्रकट करती है। एक वामपंथी ने अपने इंटरनेट मीडिया अकाउंट पर अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा वाली ‘मूर्ति’ के बारे मे लिखा, ‘रामलला के हाथ में धनुष-तीर दिखलाना अपराध है। पांच साल के बालक के हाथ में शस्त्र-जुवेनाइल एक्ट के अनुसार कार्रवाई हो।’ संभव है आने वाले दिनों में वामपंथी अपने लोगों को सक्रिय करके इस पर बहस भी छेड़ दें। वे इस विषय को प्रचारित कर सकते हैं कि बच्चे श्रीरामलला की मूर्ति देखकर हिंसक हो सकते हैं। अतः उसे हटाया जाए।

अयोध्या में खोदाई से ही पता चला था कि वह एक प्राचीन मंदिर था। आखिर आरएस शर्मा ने किस खोदाई के आधार पर यह लिखा कि ईसा से 2000 वर्ष पूर्व वहां कोई मानव बस्ती थी ही नहीं। दुर्भाग्य देखिए कि उनसे इसका प्रमाण मांगे बिना उनकी पुस्तकें पढ़ाई जाती रहीं। अगर प्रभु श्रीराम काल्पनिक थे तो अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा के निमंत्रण को सबसे पहले ठुकराने वाले वामपंथी नेता का नाम उनके माता-पिता ने सीताराम येचुरी क्यों रखा? माता-पिता का प्रभु श्रीराम-माता सीता के प्रति जो आस्था थी, उसको नकारने का साहस वामपंथी विषवमन का सबसे बड़ा प्रमाण है। अयोध्या में प्रभु श्रीराम के जन्मस्थान के बारे में फैसला आ जाने के बाद भी ‘बाबरी मस्जिद’ कह कर भारत के मुसलमानों को भड़काने का असफल प्रयास चल रहा है। भारत के संविधान और पूजा स्थल कानून का हवाला देकर अयोध्या के बाद अब ज्ञानवापी की सच्चाई को भी नकारा जा रहा है।

अयोध्या, मथुरा और काशी की बात करने पर सेक्युलर जमात बाबर-अकबर और औरंगजेब को सेक्युलर बताने का चाहे जितना भी षड्यंत्र कर ले, लेकिन वह सफल नहीं होगा। वह बाबर के वंशजों के काले कारनामे सामने आने से रोक नहीं सकता। वह इससे मुंह नहीं मोड़ सकता कि औरंगजेब एक बेहद बर्बर शासक था। उसने अपने भाई दारा शिकोह का सिर काटकर उसे पिता शाहजहां के सामने पेश किया था। उसने तमाम मंदिर तोड़े और सिख गुरुओं को निर्ममता से मारा।

अयोध्या और काशी के बाद अब मथुरा में पुरातत्व सर्वेक्षण का मामला न्यायपालिका के तहत विचाराधीन है, लेकिन इसे न्यायालय में लटकाने के सारे हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। असदुद्दीन ओवैसी कहते हैं कि हमें मुगलों से कुछ भी लेना-देना नहीं है, पर जब भी मुगलों के काले कारनामों पर से पर्दा उठता है तो उनके बचाव में वह सामने आ जाते हैं। इबादतगाह को तो बदला जा सकता है, पर पूजा स्थल को नहीं। न्यायालय में जाकर सच्चाई को सामने लाने के लिए हिंदू सर्वे या खोदाई की मांग कर रहे हैं। समय का तकाजा है कि हिंदुओं के प्रमुख पूजा स्थलों को वापस किया जाए। यह समय की मांग है कि अगर मुगलों की बर्बरता पर से पर्दा उठता है तो उसमें बाधाएं न डाली जाएं। सच सामने आना ही चाहिए। इसके साथ ही सरकार और देश का प्रबुद्ध वर्ग आगे आकर वामपंथी इतिहासकारों की पुस्तकों को पाठ्यक्रमों से हटाने की पहल करें। तभी भारत अपने मूल स्वभाव के साथ आगे बढ़ सकेगा।

(लेखक बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य हैं)