विश्व का सर्वाधिक ठोस ज्ञान अनुभव द्वारा प्राप्त होता है। मनुष्य गलती करता है, फिर उसे गलती की सजा मिलती है। सजा मिलने से उसे अनुभव मिलता है कि यदि मैं ऐसा कार्य करूंगा, तो इसका दुष्परिणाम भविष्य में ऐसा होगा। हर गलती पर सजा का प्रकृति-प्रदत्त प्रावधान है, जो मनुष्य की ज्ञान-वृद्धि का सर्वाधिक स्वाभाविक व प्राकृतिक मार्ग है। हमें प्रभु ने वह ज्ञान दिया है जिसके द्वारा हम नीर-क्षीर-विवेक कर सकते हैं। हमारे मानस-पटल पर एक दिव्य शक्ति का अस्तित्व है, वह है-अंतरात्मा। यह वह दैवी शक्ति है, जिसके द्वारा मनुष्य को सत्य-असत्य, उत्तम-अधम, सन्मार्ग-कुमार्ग व अच्छे-बुरे का ज्ञान होता है। मनुष्य की अंतरात्मा अच्छे कार्य से संतुष्ट रहती है, किंतु जहां मनुष्य अनैतिक कार्य करता है, अंतरात्मा उसे धिक्कारती है। वह दुष्कृत्य के लिए पश्चाताप करता है। झूठ, फरेब, मिथ्या आचरण, चोरी व व्यभिचार आदि अनैतिक आचरण कभी स्थायी नहीं होते? मैंने कितना गलत किया? ऐसे विचार आत्मा में कचोटते हैं। पश्चाताप एक ऐसी अग्नि है, जो मनुष्य को असत्य, अनैतिकता, और अशुचिता से बचाती है।

पश्चाताप केवल निषेधात्मक तत्व ही नहीं, बल्कि पाप के प्रतिकार स्वरूप कुछ करने की प्रेरणा देने वाला तत्व भी है। पश्चाताप करना बुरी बात नहीं है। यदि मनुष्य सच्चा पश्चाताप करता है तो इसका आशय यह है कि उसकी आत्मा जाग्रत है। ऐसे मनुष्य में ऊंचा उठने और आध्यात्मिकता को उजागर करने के लिए पर्याप्त सद्गुण विद्यमान हैं। केवल माया-मोह, अशिक्षा, स्वार्थ आदि का अंधकार छाया हुआ है। दुर्गुण बाहर हैं, अंतस में वास्तविक सात्विकता की परम शक्ति उपस्थित है। गलती होने पर पश्चाताप करने का मतलब आगे उसे न दोहराने का संकेत समझना चाहिए। हृदय से पश्चाताप करने वाला मनुष्य आत्मप्रकाश से दैदीप्यमान होता है, क्योंकि उसमें सबसे महत्वपूर्ण भविष्य को सुधारने की प्रबल इच्छा शक्ति है। पाप का प्रतिकार तब होगा जब आप पुण्य का आश्रय ग्रहण करेंगे।

[रमन त्रिपाठी]

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