प्रो. रसाल सिंह। पिछले दिनों राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने उच्चतम न्यायालय से 14 सवाल पूछे। ये सवाल राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत किए गए हैं। मूलत: ये प्रश्न न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका की संवैधानिक शक्तियों और कार्यक्षेत्र से भी संबंधित हैं। राष्ट्रपति ने कानून निर्माण के संबंध में राज्यपाल और राष्ट्रपति को संविधानप्रदत्त शक्तियों को न्यायिक आदेश द्वारा सीमित/नियंत्रित किए जाने पर प्रश्न चिह्न लगाया है। ये प्रश्न भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में अंतर्निहित संवाद की स्वस्थ परंपरा का परिचय और प्रमाण हैं।

दरअसल हाल में उच्चतम न्यायालय ने राज्यपाल बनाम तमिलनाडु राज्य नामक वाद का निर्णय दिया था। यह मामला तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों से संबंधित था। राज्य सरकार का कहना था कि विधानसभा द्वारा पारित कई विधेयक लंबे समय से राज्यपाल द्वारा लंबित रखे गए हैं। साथ ही राज्य सरकार ने राज्यपाल द्वारा एक साथ कई विधेयकों को राष्ट्रपति को विचारार्थ भेजने पर भी प्रश्न उठाया था। निश्चय ही, राज्यपाल द्वारा अनिश्चित अवधि तक विधेयकों को लंबित रखना भी संविधानसम्मत नहीं है।

उच्चतम न्यायालय ने उपरोक्त मामले में कुछ संवैधानिक पहलुओं को नए सिरे से प्रस्तुत किया है। पहला, राज्यपाल एवं राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों को स्वीकृति प्रदान करने के लिए समयसीमा का निश्चित किया जाना है। यह समय सीमा तीन माह तय की गई है। दूसरा, अगर समयसीमा के भीतर राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा विधेयक पर प्रतिक्रिया नहीं दी जाती है तो राज्य के अनुरोध पर उच्चतम न्यायालय ‘परमादेश रिट’ के तहत विधेयक को स्वीकृति प्रदान करने की क्षमता रखता है।

तीसरा, उच्चतम न्यायालय ने स्वयं को संविधान के अनुच्छेद 142 द्वारा प्रदत्त शक्ति का उपयोग करते हुए 10 लंबित विधेयकों को कानून का दर्जा दे दिया है। इस तरह यह पहला अवसर है जब बिना राष्ट्रपति या राज्यपाल की स्वीकृति के विधेयक कानून बन गए हैं। यह न्यायपालिका द्वारा अपनी संवैधानिक शक्तियों और मर्यादा का अतिक्रमण है।

इस निर्णय की पृष्ठभूमि में संवैधानिक वस्तुस्थिति को समझना आवश्यक है। सर्वप्रथम अनुच्छेद 200 की बात आती है। इसके तहत राज्यपाल या तो विधेयक को स्वीकृति देता है या उसे रोक लेता है या वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए प्रेषित कर देता है। राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित विधेयक के लिए एक कसौटी का उल्लेख है।

वह यह है कि ‘राज्यपाल की राय में’ यदि वह (विधेयक) कानून बन जाए तो उच्च न्यायालय की शक्तियों को इस प्रकार अल्पीकृत करेगा कि वह व्यवस्था खतरे में पड़ जाएगी, जिसे भरने के लिए संविधान द्वारा उसका निर्माण किया गया है। ‘राज्यपाल की राय में’ के दो अर्थ हो सकते हैं। पहला यह कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद के सहयोग एवं सुझाव से ऐसा करेगा। अब सवाल यह उठता है कि मंत्रिपरिषद जो विधानमंडल का हिस्सा है और विधेयक बनाने में शामिल है, आखिर क्यों पहले अपने क्षेत्राधिकार से बाहर विधेयक पारित करेगी और फिर राज्यपाल को परामर्श देकर उसे राष्ट्रपति को भिजवाएगी।

दूसरा यह कि राज्यपाल अपने ‘विवेकाधिकार’ का प्रयोग करते हुए ऐसा करेगा। अनुच्छेद 201 दूसरा अनुच्छेद है, जो इस बहस में आया है। इसमें राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित विधेयक से संबंधित चर्चा है। इसके तहत राष्ट्रपति या तो विधेयक पर स्वीकृति देता है या उसे रोक देता है। साथ ही वह अपने सुझावों और निर्देश के साथ विधेयक को राज्यपाल के माध्यम से वापस विधानमंडल को भेज सकता है। तत्पश्चात वह पुन: विधानमंडल से पारित कराकर राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया जाएगा। इसके आगे राष्ट्रपति उस विधेयक पर क्या फैसला लेते हैं? इस पर संविधान में स्पष्टता नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार राज्यपाल अब पहली प्रस्तुति में तीन महीने एवं दूसरी प्रस्तुति में अधिकतम एक महीने तक ही विधेयक को अपने पास रख सकते हैं। विधेयक निर्माण प्रक्रिया में राज्यपाल के ‘विवेकाधिकार’ को उच्चतम न्यायालय ने अब न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत बताया है। यह पहले से चली आ रही प्रणाली में बहुत बड़ा बदलाव है, जिसमें राज्यपाल के विवेकाधिकार को सीमित किया गया है।

इसके आगे कोर्ट ने अनुच्छेद 200 एवं 201 के तहत राष्ट्रपति के विचारार्थ प्रेषित विधेयकों को संवैधानिक एवं वैधानिक त्रुटियों से बचाने के लिए राष्ट्रपति को अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से सुझाव लेने के लिए भी निर्देशित किया है। राष्ट्रपति को दिए गए निर्देश के मद्देनजर ऐसा प्रतीत होता है कि विधेयक के कानून बनने के पूर्व ही न्यायपालिका का हस्तक्षेप हो रहा है। किसी भी विधेयक को प्रस्तुत करने एवं उस पर बहस करने का कार्य जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों का ही होता है। विधायिका के इस कार्य में हस्तक्षेप संविधान के बुनियादी ढांचे को चुनौती देता है।

भारत संघीय व्यवस्था के बावजूद केंद्रीय प्रवृत्ति वाला राष्ट्र है। यह व्यवस्था अलगाव और अराजकता को नियंत्रित करते हुए देश की एकता-अखंडता सुनिश्चित करती है। उपरोक्त निर्णय की पृष्ठभूमि में राष्ट्रपति द्वारा पूछे गए प्रश्नों के आलोक में न्यायपालिका के उत्तर से न सिर्फ केंद्र-राज्य के संबंधों के समीकरण प्रभावित होगा, बल्कि न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के संबंध और कार्यक्षेत्र भी पुनर्परिभाषित होंगे।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामानुजन कालेज में प्राचार्य हैं)