डा. एके वर्मा: जैसे-जैसे आगामी लोकसभा चुनाव निकट आते जा रहे हैं, विपक्षी खेमे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को हटाने की हड़बड़ाहट उतनी ही बढ़ती रही है। भाजपा विरोधी दलों और राज्यों में मजबूत क्षेत्रीय पार्टियां नई-नई रणनीतियां बना रही हैं। बौद्धिक और राजनीतिक स्तरों पर भी प्रयास जारी हैं। कांग्रेस समर्थक बुद्धिजीवी योगेंद्र यादव विपक्षी एकता द्वारा मोदी सरकार को हटाकर भारतीय गणतंत्र को पुनर्स्थापित करना चाहते हैं, तो कांग्रेसी सांसद शशि थरूर विपक्ष को सत्ता में लाकर जनता द्वारा लोकतंत्र की बहाली चाहते हैं।

पता नहीं वे बोफोर्स, 2-जी, कामनवेल्थ, कोयला घोटाला और हेलीकाप्टर घोटाले वाले गणतंत्र की पुनर्स्थापना चाहते हैं या इंदिरा गांधी वाले लोकतंत्र की, जिसमें समूचे विपक्ष को अकारण ही जेलों में ठूंसना, प्रेस की स्वतंत्रता को कुचलना, न्यायपालिका में सुविधाजनक नियुक्तियां जैसी मनमानी सामान्य थी। लोकतंत्र की कथित पुनर्स्थापना से जुड़े ऐसे विचार जनता को ही लांछित करते हैं कि मानो 2014 और 2019 में मोदी को सत्ता में लाकर जनता ने लोकतंत्र और गणतंत्र नष्ट किया हो। अब इसका उत्तर 2024 में जनता ही दे सकती है।

‘मोदी हटाओ’ की इस मुहिम में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खासे सक्रिय हैं। वह भाजपा प्रत्याशियों के विरुद्ध ‘साझा विपक्षी उम्मीदवार’ उतारना चाहते हैं। इस बीच, कर्नाटक के चुनाव परिणाम से विपक्षी दल उत्साहित हैं। भाजपा को हराने के लिए वे एकजुट होना चाहते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा 37 प्रतिशत वोट पाकर 56 प्रतिशत सीटें जीत गई। माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने मोदी को हटाने के लिए भाजपा विरोधी दलों को हर राज्य में अलग रणनीति बनाने की सलाह दी है। हालांकि, चुनावी गणित और चुनावी राजनीति में बहुत फर्क है।

यह सही है कि कर्नाटक में भाजपा सत्ता से काफी दूर रह गई, लेकिन उसका मत प्रतिशत अपने पूर्व स्तर पर कायम है। भाजपा को 2018 के विधानसभा चुनाव के बराबर 36 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। वहीं पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को कर्नाटक में 51 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे। यानी विधानसभा चुनाव से 15 प्रतिशत अधिक। ये मतदाता कौन थे? कांग्रेस, जेडीएस के या फिर दोनों के? आगामी लोकसभा चुनावों में इसकी पुनरावृत्ति से इन्कार नहीं किया जा सकता। कर्नाटक की जनता को लोकसभा और विधानसभा चुनावों का फर्क पता है।

2021 के बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा को हराने के चक्कर में कांग्रेस और वामपंथी दलों का सूपड़ा ही साफ हो गया। वहीं, कर्नाटक में जेडीएस की सियासी जमीन खिसक रही है। उसका जनाधार 18 प्रतिशत से घटकर 13 प्रतिशत रह गया। बंगाल विधानसभा (2021) में भाजपा को 38 प्रतिशत वोट मिले थे, जो 2019 के लोकसभा चुनाव में मिले 40.6 प्रतिशत से थोड़े कम रहे। उसका कारण मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का ‘खेला-होबे’ फार्मूला था, जिसमें तृणमूल के गुंडों ने चुनावों के दौरान और बाद में बड़े पैमाने पर हिंसा कर मतदाताओं को भयाक्रांत किया। यदि कांग्रेस और वामदलों ने अपने विनाश की कीमत पर भाजपा को हराने का निर्णय न लिया होता तो संभवत: परिणाम भिन्न होते।

इन रुझानों को देखें तो यदि राष्ट्रीय स्तर पर सभी दल मिलकर राजनीतिक व्यूह रचें तब मोदी को परास्त किया जा सता है, लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या जनता को मोदी हटाओ मुहिम में कोई दिलचस्पी है। मोदी को हटाने के बाद शासन और विकास का क्या कोई नक्शा विपक्ष के पास है? क्या कांग्रेस मान चुकी है कि उसे क्षेत्रीय पार्टियों के सामने घुटने टेक देने चाहिए, क्योंकि राहुल में राष्ट्रीय नेतृत्व देने की न क्षमता है और न ही विपक्षी खेमे में उनकी स्वीकार्यता? जब-जब लोकसभा चुनाव आते हैं, विपक्षी दल महागठबंधन बनाने की कोशिश करते हैं, लेकिन इस बार भी विपक्ष न तो कोई साझा संगठनात्मक ढांचा बना पाया, न कोई प्रधानमंत्री प्रत्याशी दे पाया, न साझी विचारधारा, नीतियां और कार्यक्रम बना पाया है। उसका पूरा फोकस मोदी को हटाने पर है।

क्या ऐसी नकारात्मक राजनीति को जनता स्वीकार करेगी? पिछले दो लोकसभा चुनावों में विपक्ष ने अपनी ओर से पूरा जोर तो लगाया था, लेकिन मोदी और भाजपा सुशासन, सुरक्षा एवं विकास की सकारात्मक राजनीति पर केंद्रित रहे। हालांकि, अगली बार की चुनौती थोड़ी अलग होगी। एक कारण तो यही है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा करीब एक दर्जन राज्यों में अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन कर चुकी है तो उसे दोहराना आसान नहीं होगा। महाराष्ट्र और बिहार में उसके सहयोगी छिटक चुके हैं। इन राज्यों में लोकसभा की 88 सीटें हैं। ऐसे में 2024 में भाजपा को हराया तो जा सकता है, लेकिन इसके लिए विपक्ष को अपना पुनर्विन्यास करना होगा। क्या विपक्ष इसके लिए तैयार है?

दूसरी ओर, क्या विपक्ष को भाजपा की चुनावी तैयारी और रणनीतियों का पता है? भाजपा चुनावों को लेकर हमेशा ‘मिशन-मोड’ में रहती है। उसने अपने सांसदों, विधायकों और अन्य पदाधिकारियों को करीब तीन-चार लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों का प्रभारी बना दिया है। पार्टी कार्यकर्ता घर-घर जाकर मोदी सरकार के काम बताएंगे। न केवल भाजपा के पूर्व सहयोगी दलों जदयू और उद्धव-शिवसेना का ग्राफ अपने-अपने राज्यों में गिरा है, बल्कि इन दोनों राज्यों में भाजपा ने नए सहयोगी भी तैयार किए हैं। 2019 के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन होने से भाजपा की सीटें 73 से घटकर 64 रह गईं, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों में मायावती सपा या किसी दल से गठबंधन नहीं करेंगी।

उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव और हालिया नगरीय निकाय चुनाव भी यही दर्शाते हैं कि राज्य में भाजपा का जनाधार बढ़ने पर है। सांगठनिक स्तर पर भी भाजपा सक्रिय है और मोदी के प्रति लोगों का अनुराग एवं विश्वास भी बना हुआ है। मोदी ने पार्टी और नेताओं के अतिरिक्त सुशासन, समावेशी विकास और मन की बात के जरिये जनता से जुड़ाव भी बना लिया है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि ‘मोदी हटाओ मुहिम’ के विरुद्ध जनता ही संभवतः मोदी की ढाल बन गई है।

(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)