[हृदयनारायण दीक्षित]: राष्ट्रबोध सामूहिक आत्मबोध है। सामूहिक आत्मबोध का मूल इतिहास बोध है। राष्ट्र की समझ वस्तुत: इतिहास की समझ है। इतिहास बोध सभी अनुशासनों को प्रभावित करता है। सभ्यता इतिहास का भाग है। इतिहास में सभ्यता की सत्य कथा है। समाज का इतिहास है। इतिहास में सामाजिक विकास के विवरण हैैं। विज्ञान ने इतिहास की धारा को प्रभावित किया है। विज्ञान का भी इतिहास है। इतिहास निर्मम भूत होता है। इसी भूत में सुंदरतम की अनुभूति संस्कृति है। आर्थिक गतिविधियां इतिहास हैं। इतिहास अर्थशास्त्र को प्रभावित करता है और अर्थशास्त्र इतिहास को। आश्चर्य नहीं है कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय से जुड़े अर्थशास्त्री संजीव सान्याल ने हाल में इतिहास पर पुनर्विचार का आग्रह किया है।

भारत में लंबे समय तक अंग्र्रेजीराज था। उन्होंने भारतीय इतिहास को ब्रिटेन के इतिहास का अंग बनाया। उन्होंने दावा किया कि अंग्रेजीराज के कारण ही भारत राष्ट्र बना है। गांधी जी ने 1909 में हिंद स्वराज में लिखा कि ‘अंग्र्रेजों ने पढ़ाया है कि उन्होंने भारत को एक राष्ट्र बनाया है। यह बात गलत है। भारत अंग्रेजों के आने के पहले भी राष्ट्र था।’ गांधी जी ने अंग्रेजी ढर्रे के इतिहास लेखन की यह कहकर आलोचना की कि ‘आपकी हिस्ट्री कोलाहलपूर्ण है। युद्ध और हिंसा से भरीपूरी है।’ सान्याल की बात सही है। भारत के इतिहास पर समग्र्रता से पुनर्विचार करना चाहिए।

यूरोपीय विचार के समर्थकों का ध्येय अंग्र्रेजी राज के औचित्य को सही ठहराना था। उन्होंने भारत को विदेशी आक्रांताओं द्वारा विजित देश बताया। आर्य आक्रमण का काल्पनिक इतिहास गढ़ा। सिंधु सभ्यता के पुरातात्विक साक्ष्यों का दुरुपयोग किया कि कथित हमलावर आर्यों ने ईरान, अफगानिस्तान और पंजाब होते हुए भारत के बड़े भू-भाग को रौंदा। फिर उनके रचे इतिहास में मोहम्मद बिन कासिम से लेकर तमाम विदेशी आक्रमण और फिर सीधे ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश प्रभुत्व की बात है। सान्याल ने याद दिलाया कि इस ‘इतिहास में केरल के मार्तण्ड वर्मा द्वारा डचों से युद्ध की जगह नहीं है।’ बहराइच के राजा सुहेलदेव पासी ने महमूद गजनी के साले सैयद सालार गाजी को हराया था। भारतीय वीरता का यह इतिहास उपेक्षित है।

औरंगजेब के कुशासन के बाद छत्रपति शिवाजी के साम्राज्य के लिए भी इतिहास में पर्याप्त स्थान नहीं है। ऐसे इतिहास से गौरवशाली राष्ट्रबोध नहीं प्राप्त होता। मार्क्सवादी इतिहास में उत्पादन के साधनों के विकास का विवेचन है, लेकिन मनुष्य केंद्रित नहीं है। पार्थ चटर्जी के अनुसार ‘देश का इतिहास लिखने के बदले उसके खंडों का इतिहास लिखा जाए। भारत एक इकाई नहीं है।’ पुरातत्व इतिहास का मुख्य घटक है। नदियां इतिहास पहचान की सामग्री हैं। प्राकृतिक कारणों से इनमें परिवर्तन होते हैं। सरस्वती ऐसी ही नदी थी। काव्य में भी इतिहास के तत्व होते हैं। उन्हें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जांचना चाहिए।

साइंस कांग्रेस में आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति ने कौरवों को टेस्ट ट्यूब पद्धति से जन्मा कहकर अपनी जगहंसाई कराई। भारत के प्राचीन इतिहास में शरीर विज्ञान, संगीत, समाजशास्त्र, औषधि विज्ञान, अर्थशास्त्र आदि कई शाखाएं हैं। सभी विषयों से बड़ी बात है-अंधविश्वास मुक्त तर्कशास्त्र और दर्शन का इतिहास। यूरोपीय विद्वानों ने भारतीयों पर इतिहास उपेक्षा के आरोप लगाए थे। बंकिमचंद्र चटर्जी ने ठीक लिखा था कि ‘इतिहास से हमें ज्ञात होता है कि पराधीनता के परिणाम में पराधीन जाति की बौद्धिक रचनाशीलता समाप्त हो जाती है।’

भारत की इतिहास संकलन परंपरा यूरोप से भिन्न रही है। वैदिक पूर्वजों की रुचि प्रेरक इतिहास वर्णन में थी। ऋग्वेद में ऐसे तमाम इतिहास बोधक सूक्त हैं। इतिहास का अर्थ है कि ‘ऐसा हुआ था।’ अथर्ववेद में साधक के श्रम परिणामस्वरूप इतिहास और प्रशस्ति उसके साथ चले। यास्क ने ‘निरुक्त’ में वेदार्थ के लिए इतिहास का अध्ययन जरूरी बताया है। उत्तर-वैदिक काल का छांदोग्य उपनिषद इतिहास में पांचवा वेद है। महाभारत, रामायण महाकाव्य हैं। मार्क्सवादी चिंतक डॉ. रामविलास शर्मा ने ठीक लिखा है ‘महाभारत इतिहास है। आख्यान है। आधुनिक अर्थ में यह इतिहास नहीं है, परंतु जिसे आज इतिहास कहते हैं। इतिहास के रूप में नितांत भिन्न भी नहीं है।’ अनेक वामपंथी इतिहासकार भारत को एक राष्ट्र नहीं मानते।

सुदीप्त कविराज ने इतिहास पर खूबसूरत टिप्पणी की है कि ‘मानव समुदाय की अस्मिता की पहचान का मूलभूत कर्तव्य इतिहासबोध है।’ भारत का अपना इतिहास बोध है। यह ऋग्वेद से लेकर आज तक विस्तृत है। स्वाधीनता संग्राम में इसी इतिहास बोध का नवजागरण हुआ था। प्राचीन काल में छोटे समूह थे, फिर बड़े समूह बने। जीवन सामूहिक था। साथ रहने, प्रेमपूर्ण साझा कर्म से सांस्कृतिक विकास हुआ। वे एक संस्तृति की प्रीति से राष्ट्र बने, लेकिन सुदीप्त कविराज ने बताया है कि ऐसा भारत 19वीं सदी के पहले नहीं था। तो उसका इतिहास कैसे होगा? मूलभूत प्रश्न है कि जो भारत 19वीं सदी में दिखाई पड़ता है वह क्या शून्य से पैदा हो गया? भारत पहले भी था। उसका अपना इतिहास था और है? भारत की श्रुति, स्मृति, लोकगीत और लोक कथाओं में उसी की चर्चा है। बंकिमचंद्र का वंदे मातरम् इसी राष्ट्रभूमि की स्तुति है।

क्रमबद्ध तथ्यों के आधार पर इतिहास की रचना होती है। प्रचलित भारतीय इतिहास में साम्राज्यवादी, वामपंथी पूर्वाग्रहों की भरमार है। बंकिमचंद्र ने ‘भारत कलंक’ शीर्षक से लिखा है ‘भारत इतने समय से पराधीन क्यों है? यूरोप के लोगों का कहना है कि भारतीय कमजोर होते हैं, लेकिन अंग्रेजों ने भारत पर कैसे राज कायम किया? क्या वे भारतवासियों की सहायता के बिना यहां जीत सकते थे? भारत के बाहर उन्होंने साम्राज्य का विस्तार भारतवासियों की सहायता से किया।’ बंकिमचंद्र ने भारतीय इतिहास से यूरोपीय इतिहास मिलाया है। यही तरीका उन्होंने अरब इतिहास के लिए अपनाया है। लिखा है, ‘अरब एक प्रकार से दिग्विजयी रहे हैं। उन्होंने जहां आक्रमण किया, वहीं जीते। वे केवल दो देशों से पराजित होकर लौटे हैं।

पश्चिम में फ्रांस और पूरब में भारत। मोहम्मद की मृत्यु के छह वर्षों के भीतर उन्होंने मिस्न और सीरिया, 10 वर्ष के भीतर ईरान, एक वर्ष में अफ्रीका और स्पेन, 80 वर्ष के भीतर काबुल और आठ वर्ष में तुर्किस्तान पर अधिकार किया, लेकिन सौ साल में भी भारत पर काबिज नहीं हो पाए। मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध जीता था, लेकिन बाद में राजपूतों द्वारा खदेड़ा गया।’ बंकिमचंद्र ने समाज की कमजोरियां भी गिनाई हैं। इतिहास का ऐसा विवेचन भारत बोध के लिए उपयोगी है।

भारत में अनेक विविधताएं हैं। इन्हें बेशक इतिहास में जगह दी जानी चाहिए, लेकिन पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक समूचे भारत में एक सांस्कृतिक प्रवाह है। डॉ. आंबेडकर ने इसकी तथ्यगत व्याख्या की थी कि ‘भारतवासी आपस में लड़ते रहते हैं, संस्कृति उन्हें एक बनाए रखती है।’ यूरोपीय, वामपंथी इतिहास लेखन में काल्पनिक रुग्णताओं को भयावह दिखाया जाता है। राष्ट्रजीवन के शुभपक्ष छोड़ दिए जाते हैं। भारत का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। संप्रति दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र और संप्रभु गणतंत्र है। यहां ढेर सारी पुरातात्विक सामग्री है। दुनिया का सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद भारत का है। नालंदा भारत में हैै। भारत बोध में ही भारतीय पौरुष पराक्रम की ऊर्जा है और इसके स्नोत हमारे वास्तविक इतिहास बोध में हैं। भारत को तथ्यगत इतिहास बोध चाहिए।

( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैैं )