डा. सत्येंद्र प्रताप सिंह। हाल में हिंदी के विरोध का स्वर फिर से उठा। यह संसद में तब उठा, जब भारतीय वायुयान विधेयक नाम से एक बिल पेश किया गया। केंद्र सरकार के इस कदम को गैर हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी थोपने का प्रयास बताया गया। इसके पहले भारतीय न्याय संहिता से संबंधित अधिनियमों के नामकरण का भी विरोध किया गया था। तमिलनाडु में डीएमके की राजनीति मुख्यतः हिंदी विरोध पर केंद्रित रही है। उसकी देखादेखी अन्नाद्रमुक भी हिंदी विरोध को अपनी राजनीति का हथियार बनाती है।

पिछले दिनों अन्नाद्रमुक ने एक प्रस्ताव पारित कर कहा कि केंद्र सरकार द्वारा कानूनों का नाम हिंदी और संस्कृत में रखना अप्रत्यक्ष रूप से हिंदी थोपना है। तमिलनाडु की तरह कर्नाटक में भी कभी-कभार हिंदी विरोध के स्वर सुनाई दे जाते हैं। हिंदी थोपने जैसा शब्द प्रयोग करना हिंदी विरोधियों के लिए एक मुहावरे की तरह है, जबकि हिंदी भाषा की उत्पत्ति शासकीय नहीं, बल्कि जन आकांक्षाओं की भाषा के रूप में सामने हुई थी। इसलिए जिन राज्यों में इसका विरोध अधिक हो रहा है, वहां सरकारें शासकीय संस्थानों एवं नाम पेटिकाओं पर से तो हिंदी को मिटा सकती हैं, लेकिन रोजमर्रा के जीवन में हिंदी के प्रयोग को लोगों की जुबान से नहीं हटा सकतीं।

यह एक तथ्य है कि हिंदी विरोध के बाद भी तमिलनाडु में पिछले 10 वर्षों में हिंदी सीखने वालों की संख्या दोगुने से भी ज्यादा बढ़ी है। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के मुताबिक तमिलनाडु में 2009 में जहां हिंदी सीखने वालों की संख्या 2.18 लाख थी, वहीं 2019 में यह बढ़कर 5.90 लाख हो गई। स्पष्ट है कि हिंदी के विकास के लिए प्रोत्साहन की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह स्वतः अपना स्थान बना रही है। इससे यह भी साफ होता है कि हिंदी का विरोध करने वाले राज्यों में यह राजनीतिक दलों की संकीर्णता का परिचायक है, न कि वहां रहने वाले लोगों के विरोध का। इन राज्यों के राजनीतिक दल रोजगार के मुद्दे पर अपनी असफलता को हिंदी विरोध के नाम पर दबाने की कोशिश करते हैं। यह ठीक उसी तरह की प्रवृति है, जिस तरह चुनावों में अपनी हार का ठीकरा कुछ राजनीतिक दल ईवीएम पर फोड़ते हैं।

वस्तुतः हिंदी भाषा आज बिना किसी सरकारी प्रोत्साहन के उन राज्यों में भी जनसंपर्क की भाषा बन चुकी है, जो कभी इसका विरोध करते थे। हिंदी का यह विस्तार किसी सरकार नहीं, अपितु जन सरोकार की बदौलत हुआ है। आज यह जन भाषा के रूप में श्रमिकों की भाषा के रूप में विस्तार कर रही है। हिंदी विरोधी जाने-अनजाने अंग्रेजी को मजबूत करने की वकालत ही करते हैं, जो एक साम्राज्यवादी भाषा है। यदि हिंदी उनकी जनआकांक्षाओं को अभिव्यक्त नहीं कर सकती, तो अंग्रेजी कैसे कर सकती है, क्योंकि भाषा केवल भाषा नहीं होती है, बल्कि वह बोलने वालों की लोकोक्तियों एवं मुहावरों के माध्यम से सामाजिक परंपरा की जीवंत संचय राशि भी होती है।

भारत के कुछ राष्ट्रीय चरित्र जैसे राम आदि का वर्णन अलग-अलग भाषाओं में हुआ है। यह एका दिखाता है कि भारत में भले ही भाषाएं अलग-अलग हैं, लेकिन उनका मूल भाव एक है। इसीलिए बहुत सारी भाषाओं में एक आपसी अंतर्संबंध भी मिलता है। इसलिए किसी भारतीय भाषा का विरोध करके अंग्रेजी का समर्थन करना मात्र नहीं है, बल्कि अपनी परंपरा को भी नष्ट करना है। यह कभी भी राष्ट्र के लिए उचित नहीं होगा, क्योंकि भाषाएं जब गुम होती हैं, तो केवल भाषा नहीं गुम होती है, बल्कि उसे बोलने वालों का अपना इतिहास भी गुम हो जाता है। भाषा किसी भी देश के अतीत को जानने का एक साधन होती है।

भारतीय भाषाएं साम्राज्यवाद की भाषा नहीं हैं, बल्कि जनमानस की भाषा हैं। इसलिए बिना प्रोत्साहन के भी ये भाषाएं अभी भी जीवंत हैं। हिंदी भाषियों को भी अन्य भाषियों से मेलजोल बढ़ाना चाहिए, उनके साहित्य को पढ़ना चाहिए और अन्य भाषा भाषियों को भी हिंदी भाषा के साहित्य की ओर एक पूर्वाग्रही होकर नहीं, बल्कि साहित्यानुरागी होकर जुड़ना होगा।

अस्मिताओं के इस दौर में भाषा एक महत्वपूर्ण अस्मिता है। पहले जहां भाषा को एक जुबान के रूप में ही समझा जाता था, वहीं अब यह पहचान के रूप में भी समझी जाती है। आज भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम ही नहीं, अपितु बोलने वाले समूह के अस्तित्व का पर्याय भी है। किसी समूह की हैसियत उसकी भाषा द्वारा भी तय होती है। हमारे यहां कोई एक भाषा पूर्ण रूप से पूरे भारत में लागू नहीं रही है, बल्कि यहां भाषा एक प्रतिरोध की संस्कृति के परिचायक के रूप में रही है। जैसे यदि सत्ता संस्कृत का प्रयोग करती था तो जनता पाली-प्राकृत। जब सत्ता पाली-प्राकृत का प्रयोग करने लगी, तब जनता अपभ्रंश बोलने लगी। फिर जब सत्ता फारसी का प्रयोग करने लगी, तब जनता हिंदी बोलने लगी। इस प्रकार हमारे यहां शासक की भाषा और जन भाषा में सदैव एक अंतर दिखाई पड़ता है।

हिंदी भाषा कभी भी साम्राज्यवादी भाषा नहीं रही है। यह वंचितों-पीड़ितों की भाषा है। यह आम जनमानस की भाषा है। यह जनआकांक्षाओं की अभिव्यक्ति है। हिंदी का भाषा के रूप में भविष्य उज्ज्वल है। इसलिए तमिलनाडु, कर्नाटक के दलों को हिंदी विरोध करने से पहले अपने राज्य के आम जनमानस की राय लेनी चाहिए, ताकि उन्हें अपनी संकीर्णता और हिंदी की लोकप्रियता का पता चले।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर हैं)