सूर्य ऋग्वेदकाल से ही महत्वपूर्ण देवता रहे हैं। जीवन, पर्यावरण के लिए सूर्य ही मुख्य आधार हैं। लोक जीवन में सूर्य हमारे घरेलू मित्र, सखा, देवता सब कुछ हैं। छठ के समय का सूर्य तो अत्यंत आकर्षक है-कड़े ताप से रहित। अनेक ध्वजों पर सूर्य के चिह्न देखे जा सकते हैं। कोई देवता हमारे लोक का साथी यों ही नहीं बन जाता। वह हमारे दुख-सुख का साथी होता है। सूर्य हमें ऊष्मा देते हैं, रंग देते हैं। सूर्य के ताप के माध्यम से ऊर्जा का संचय किया जाता है, ताकि शरीर सर्दी में स्वस्थ रहे। सुबह, दोपहर और सायं-इन तीन समय सूर्य विशेष रूप से प्रभावी होते हैं। प्रात:काल सूर्य की आराधना से हम जीवन को रहने योग्य बनाते हैं। जो किरणें हमारी मनुष्यता से परावर्तित होती हैं वही आलोक रचती हैं। सूर्य की रोशनी हमारे भीतर के उत्सव की संज्ञा है। सूर्य सबका है: हर धर्म, जाति, संप्रदाय, भाषा, क्षेत्र, देश का। प्रकृति को अर्थ देने का कार्य सूर्य का है। छठ पर हम नदी या तालाब या समुद्र में घुटने पानी तक खड़े होकर साधनापूर्वक उन्हें नमन करते हैं। अपनी श्रद्धा देते हैं। एक तरह से यह श्रद्धा हम अपने को ही देते हैं। श्रद्धा रहित जीवन भी कोई जीवन है। चढ़ते और उतरते सूर्य दोनों को प्रणाम करने का अर्थ है हम सम भाव से किसी के उत्कर्ष और अपकर्ष में साथ बने रहते हैं। संसार की रचना जल-थल-नभ के दुर्लभ संयोग से संभव हुई है। शरीर में जल का हिस्सा बहुतायत में है। जल को शुद्ध बनाए रखना आवश्यक है। उपासना के समय या उसके बाद नदियों-तालाबों-समुद्र को प्रदूषित करना उपासना के विरुद्ध कार्य है। यह वैज्ञानिकता हमारे भीतर होनी चाहिए कि जो हम पृथ्वी को देते हैं पृथ्वी वही हमको देती है। हमें स्वच्छ, स्वस्थ और मंगलमय पृथ्वी रचनी चाहिए। सूर्य के रंग न केवल बाहरी रंग हैं, अपितु हमारे भीतरी रंग भी हैं। छठ लोक का पर्व इसीलिए है, क्योंकि इसमें हमारी लय, हमारी संस्कृति, हमारे लोक गीत, हमारे संदर्भ, हमारी सभ्यता जुड़ी है। इसीलिए यह हमारी अस्मिता भी बन गया है। पर्वों का अस्मितागत परिवर्तन एक सामाजिक और चेतनागत प्रक्रिया है। इससे हमारे समाजों में गतिशीलता आती है। वे परिवर्तन के कारक बन जाते हैं। पर्व साहित्य-कलाओं का उन्नयन करने वाले होने चाहिए। घाटों को स्वच्छ, निर्मल रखना शासन और जन, दोनों का दायित्व है।
[ परिचयदास ]