जाति को तोड़ता जन कल्याण का मंत्र, गरीबों से जुड़ी योजनाओं से बढ़ता भाजपा का जनाधार
राजनीति में सामाजिक समीकरण अंकगणित नहीं बल्कि रसायनशास्त्र के आधार पर बनते हैं। 1990-2005 के बीच बिहार की राजनीति में यादव और मुस्लिम समाज का दबदबा रहा जिसके कारण अन्य सभी वर्ग हाशिये पर रहे। नीतीश कुमार का उदय इसी पृष्ठिभूमि में गैर-यादव और मुस्लिम के समर्थन से हुआ।
डा. देवेंद्र कुमार : भारत का चुनावी इतिहास इसका साक्षी है कि उपचुनाव तभी चर्चा में आते हैं, जब सत्तारूढ़ दल की हार होती है। इस दृष्टि से हाल में संपन्न छह राज्यों के उपचुनाव परिणाम भाजपा के लिए सुखद संदेश देने वाले हैं। भाजपा शासित उत्तर प्रदेश में पार्टी ने बड़े अंतर से जीत हासिल की और हरियाणा में कांग्रेस से सीट छीनी, वहीं गैर-भाजपाई दलों द्वारा शासित बिहार और ओडिशा में अपनी सीटों को बचाया। तेलंगाना के परिणाम भी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि यहां भाजपा 2018 के मुकाबले 73 हजार से अधिक वोट प्राप्त करके कड़े मुकाबले के बाद हारी। आगामी लोकसभा चुनाव की दृष्टि से ये परिणाम क्षेत्रीय दलों के लिए बेहतर नहीं। ओडिशा में दो दशकों बाद बीजद का पहली बार उपचुनाव हारना, तेलंगाना में भाजपा का प्रमुख विपक्षी के रूप में उभरना और बिहार में अपनी सीट बचाए रखना नरेन्द्र मोदी के 2024 के दावे को मजबूती देता है।
बिहार में अगस्त 2022 में महागठबंधन की सरकार बनने के बाद पहली बार उपचुनाव हुए। मोकामा विधानसभा सीट हारने के बावजूद यहां भाजपा की हार का अंतर 2020 के मुकाबले 35 हजार वोटों से घट कर 16 हजार रहा। गोपालगंज में विपक्षी मतों के ध्रुवीकरण के बावजूद भाजपा जीतने में सफल रही। बिहार में नीतीश कुमार के पाला बदलने से बने नए सामाजिक समीकरणों के कारण अनेक राजनीतिक विश्लेषकों का आकलन है कि आगामी लोकसभा चुनाव भाजपा के लिए टेढ़ी खीर साबित होंगे। इस आकलन का आधार 2015 के विधानसभा चुनाव हैं, जिनमें महागठबंधन से भाजपा को हार मिली थी, पर यह आकलन करते समय पिछले सात वर्षों में बिहार के राजनीतिक धरातल में आए परिवर्तनों को नहीं समझा जा रहा।
यह समझना होगा कि 2015 के चुनाव के समय केंद्र की मोदी सरकार सिर्फ एक वर्ष पुरानी थी। वहीं अब तक मोदी सरकार ने बिहार में 32 लाख आवास, 1.2 करोड़ शौचालय, 85 लाख उज्ज्वला गैस और 75 लाख आयुष्मान कार्ड दिए हैं। किसान सम्मान निधि द्वारा 85 लाख किसानों को 17 हजार करोड़ रुपये की मदद और गरीब कल्याण योजना से 8.7 करोड़ परिवारों को मुफ्त राशन दिया है। गरीब कल्याण के इन प्रयासों से आठ वर्षों में बिहार की ‘आकांक्षी’ जनता अब ‘लाभार्थियों’ में परिवर्तित होकर मजबूती के साथ नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ी है। ध्यान रहे कि केंद्रीय योजनाओं के अधिकांश लाभार्थी पिछड़े और दलित समाज से आते हैं।
महागठबंधन के पक्ष में एक तर्क उसके सामाजिक आधार को लेकर दिया जाता है, जिसमें 13 प्रतिशत सवर्णों को छोड़ सभी जातियों और मुस्लिमों को महागठबंधन के खाते में डालकर 15-85 की लड़ाई का नारा दिया जाता है। इस आकलन के अनुसार लगभग 30 प्रतिशत मुस्लिम और यादव के ऊपर नीतीश कुमार के कारण महागठबंधन में लगभग 53 प्रतिशत पिछड़ों और दलितों के अतिरिक्त वोट जोड़े जाते हैं। जमीनी हकीकत भिन्न है, क्योंकि 2014 के आम चुनावों में अकेले लड़ने पर जदयू का मत प्रतिशत 15.8 प्रतिशत रहा था और 2020 में भाजपा के साथ चुनाव लड़ने के बावजूद जदयू को अपनी सीटों पर सिर्फ 32.8 प्रतिशत वोट मिले, जबकि भाजपा के हिस्से 10 प्रतिशत अधिक 42.8 प्रतिशत वोट आए। इससे स्पष्ट है कि जदयू का कथित पिछड़ा, अतिपिछड़ा और दलित जनाधार जुमले के सिवा और कुछ नहीं। उपचुनावों में भाजपा को मोकामा और गोपालगंज में क्रमशः 42.2 और 41.6 प्रतिशत वोट मिले, जबकि यहां सवर्णों की संख्या 18 और 15 प्रतिशत ही है। स्पष्ट है बड़ी संख्या में पिछड़ों और दलितों ने भाजपा को वोट दिया।
राजनीति में सामाजिक समीकरण अंकगणित नहीं, बल्कि रसायनशास्त्र के आधार पर बनते हैं। 1990 से 2005 के बीच बिहार की राजनीति में यादव और मुस्लिम समाज का दबदबा रहा, जिसके कारण अन्य सभी वर्ग हाशिये पर रहे। नीतीश कुमार का उदय इसी पृष्ठिभूमि में गैर-यादव और मुस्लिम के समर्थन से हुआ। दूसरी ओर 2005 से 2022 तक (बीच में 2015-17 को छोड़कर) यादव और मुस्लिम हाशिये पर रहे। राजद और जदयू के मिलन से उनके सामाजिक आधार का मिलन सामाजिक अंतर्विरोध के कारण संभव नहीं है।
बिहार में एक लंबे समय तक भाजपा को सवर्णों की पार्टी बताकर अन्य वर्गों में भ्रांति पैदा की गई, लेकिन 2014 के आम चुनाव के बाद भाजपा ने इस भ्रांति को दूर करने के प्रयास किए हैं। आज भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष पिछड़े वर्ग के हैं। पिछली सरकार में दोनों उपमुख्यमंत्री पिछड़े थे और 2015 की विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी पिछड़े थे। भाजपा टिकट वितरण में भी लगातार पिछड़ों की भागीदारी बढ़ा रही है। पिछड़े वर्ग से आने वाले भाजपा के सर्वोच्च नेता नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में आज बिहार भाजपा का कलेवर पूरी तरह बदला दिखता है। यह विपक्ष की पिछड़ों के ध्रुवीकरण की रणनीति को कुंद करने में सक्षम है।
नीतीश कुमार की पीएम पद के लिए विपक्ष के साझा उम्मीदवार की दावेदारी के विफल प्रयास के बाद 2024 में वोटरों के पास भाजपा के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं बचता। उपचुनावों के परिणाम और पिछले सात वर्षों में बिहार की राजनीति में आए आमूलचूल परिवर्तन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आगामी लोकसभा चुनावों में महागठबंधन द्वारा भाजपा को कमजोर करके आंकना बहुत बड़ी भूल होगी।
(लेखक चुनाव विश्लेषक हैं)
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