विचार: शिक्षकों की साख संभाली जाए, समाज में नैतिकता और मानवीय मूल्यों की स्वीकार्यता अध्यापकों के अनुकरणीय आचरण से ही आएगी
अध्यापकों का सम्मान उनके अपने प्रयासों का योगदान भी मांगता है। क्या वे एक अनुकरणीय कार्यसंस्कृति का उदाहरण पेश कर रहे हैं? दूसरे विश्व युद्ध के बाद जापान के पुनर्निर्माण में वहां के शिक्षकों की बड़ी भूमिका थी। समय-प्रतिबद्धता कार्यसंस्कृति आत्मसम्मान उत्तरदायित्व के प्रति प्रतिबद्धता और व्यवस्था द्वारा हर पग पर उनको यह आभास दिलाया गया कि वे ही राष्ट्र निर्माता हैं वे भविष्य के कर्णधार तैयार कर रहे हैं।
जगमोहन सिंह राजपूत। आज देश शिक्षक दिवस मना रहा है। प्राचीन भारतीय परंपरा में गुरु समाज में ही नहीं, सत्ता द्वारा भी सम्मानित किया जाता था। गुरुकुल के अधिष्ठाता से मिलने जब राजा-महाराजा भी जाते थे, तो वे परिसर के बाहर ही अपना सारा ताम-झाम और सुरक्षा छोड़ देते थे, अंदर जाकर आचार्य की चरणधूलि लेकर अपने को धन्य समझते थे, लेकिन आज स्थिति अलग है?
एक बार मैं हवाई जहाज में यात्रा कर रहा था, तो मेरे बगल में एक बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री बैठे थे। कुछ देर बाद उन्होंने मुझसे कहा कि प्रोफेसर साहब, कोई ऐसा उपाय बताइए, जिसमें शैक्षिक सुधार लोगों को दिखाई देने लगे, मगर अधिक धन लगाने की आवश्यकता न पड़े। बिना किसी देरी के मैंने कहा कि ऐसा उपाय है। अगर आप इसे लागू कर सकें तो छात्रों का नामांकन बढ़ जाएगा, अध्यापकों की स्कूल उपस्थिति में भारी सुधार होगा, कर्मठता बढ़ेगी और सरकारी स्कूलों की साख भी लौटने लगेगी।
आपको केवल एक आदेश जारी करना होगा कि कोई भी अध्यापक-प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालय तक जब किसी अधिकारी से मिलने जाए, तो वह कुर्सी से उठकर उसका स्वागत करे, कुर्सी पर बैठाए, उसके बाद अपना आसन ग्रहण करे। उसके अनुरोध को प्राथमिकता से सुने और निपटाए, अधिकारी उसे दरवाजे तक छोड़ने जाए और उसके मातहत कर्मचारी इसे देखें। मुख्यमंत्री बोले कि यह लगता तो सरल है, किंतु इसके त्वरित प्रभाव व्यवस्था यानी नौकरशाही पर ठीक नहीं पड़ेंगे। उन्होंने इसे प्रभावशाली कदम बताया, मगर लागू करने का साहस नहीं किया।
यह सही है कि सरकारी स्कूल बड़ी संख्या में अध्यापकों की अनधिकृत अनुपस्थिति के लिए जाने जाते हैं। ऐसे अत्यंत निंदनीय चलन के लिए अध्यापक, वरिष्ठ अधिकारी और प्रशासनिक व्यवस्था ही जिम्मेदार हैं। यह ‘चलन’ केवल अध्यापकों तक ही फैली नहीं है, ग्रामीण क्षेत्र में पदस्थापित अनेक सरकारी अधिकारी अपने वरिष्ठ अधिकारी से ‘मोलभाव’ कर लेते हैं। हफ्ते में एक-दो दिन अपने कार्यस्थल पर जाकर सारे सप्ताह की उपस्थिति दर्ज कर लेते हैं। इस सबका समाधान क्या है? इसे ढूंढ़ने के पहले यह जानना होगा कि ऐसी अवस्था पनपी कैसे?
यह अनैतिक स्थिति मुख्य रूप से शिक्षकों के प्रति समाज की बेरुखी और व्यवस्था के अपमानजनक व्यवहार से ही उपजी है। समाज की शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों की साख में भारी गिरावट की स्थिति के प्रति उदासीनता ने इसे अत्यंत अशोभनीय स्तर तक गिरा दिया है। 2012 में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जेएस वर्मा ने कहा था कि देश के दस हजार शिक्षा प्रशिक्षण संस्थान ‘डिग्री बेच रहे हैं।’ उनकी गुणवत्ता में कोई रुचि है ही नहीं। आठ साल बाद इस कथन को राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में पुन: दोहराया गया। यह कितनी शर्मनाक स्थिति है। इसके लिए जिम्मेदार एक अन्य पक्ष को भी ठीक से समझने की आवश्यकता है।
राजस्थान के दूरदराज के क्षेत्रों में 1955-60 के दौरान यदि किसी स्कूल का दरवाजा टूट जाता था, तो ग्रामीण उसे अपना स्कूल मानते हुए नया लगा देते थे। अब इतना सरकारीकरण हो चुका है कि जब ज्यादा ठंड पड़ती है, तो लोग कहते हैं कि स्कूल की खिड़की उखाड़कर जलाएं, सरकार खुद लगाएगी। दरअसल समाज का स्कूल से जो परंपरागत संबंध था, अध्यापकका जो सम्मान था, उसके तिरोहित होने में सरकारी अधिकारियों की असंवेदनशीलता और अहंकार मुख्य रूप से जिम्मेदार रहे हैं।
देश के 56 प्रतिशत बच्चे आज भी सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते हैं। केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, पीएमश्री विद्यालय जैसे केंद्र संचालित स्कूलों की साख पूरे देश में है, लेकिन सरकारी स्कूलों में सबसे बड़ा प्रतिशत उन बच्चों का है, जिनके पालकों ने उन्हें यहां प्रवेश केवल इसलिए दिलाया है, क्योंकि वे किसी निजी स्कूल में प्रवेश नहीं दिला सके। सरकारी स्कूलों की साख के लगातार गिरने का एक कारण यह है कि व्यवस्था में ऊपर से नीचे तक जिन-जिन पर इसका उत्तरदायित्व है, उनके अपने बच्चे भी निजी स्कूलों में ही पढ़ते हैं।
अध्यापकों का सम्मान उनके अपने प्रयासों का योगदान भी मांगता है। क्या वे एक अनुकरणीय कार्यसंस्कृति का उदाहरण पेश कर रहे हैं? दूसरे विश्व युद्ध के बाद जापान के पुनर्निर्माण में वहां के शिक्षकों की बड़ी भूमिका थी। समय-प्रतिबद्धता, कार्यसंस्कृति, आत्मसम्मान, उत्तरदायित्व के प्रति प्रतिबद्धता और व्यवस्था द्वारा हर पग पर उनको यह आभास दिलाया गया कि वे ही राष्ट्र निर्माता हैं, वे भविष्य के कर्णधार तैयार कर रहे हैं।
उनसे व्यक्ति और व्यक्तित्व निर्माण के जो तत्व बच्चे सीख कर जाएंगे, वे बड़ी-बड़ी शोधशालाओं, अस्पतालों, प्रशासनिक कार्यालयों में भी कुछ वर्ष बाद दिखाई देंगे। आज जापान में कोई भी अपने कार्यस्थल पर देर से नहीं पहुंचता है। भारत के अध्यापक यदि चाहें तो कुछ वर्षों के अंतराल में यहां भी यह स्थिति आ सकती है। राष्ट्र निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व निर्वाह अध्यापकों को ही करना है। समाज में नैतिकता और मानवीय मूल्यों की स्वीकार्यता भी अध्यापकों के अनुकरणीय आचरण से ही आएगी।
(लेखक शिक्षा, सामाजिक सद्भाव और पंथक सामंजस्य के क्षेत्र में कार्यरत हैं)
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