[ अश्विनी कुमार ]: निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव तिथियों की घोषणा के साथ ही 17वीं लोकसभा के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गई। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र एक बार फिर स्वयं को साबित करने जा रहा है जहां दस लाख से अधिक बूथों पर तकरीबन 90 करोड़ मतदाता नई सरकार चुनने के लिए मतदान करेंगे। मौजूदा माहौल में देश के समक्ष विकल्प और चुनौतियों को देखते हुए यह चुनाव ऐतिहासिक रूप से निर्णायक होगा। मतदाताओं को सरकार के प्रदर्शन और विपक्ष द्वारा उस पर उठाए जाने वाले सवालों के आधार पर ही अपना मन बनाना होगा। सरकार अपने काम की दुहाई देगी तो विपक्ष उसकी पोल खोलकर यही बताएगा कि भाजपा के हाथ में देश का भविष्य सुरक्षित नहीं। विपक्ष मुख्य रूप से कृषि संकट, बढ़ती बेरोजगारी, आर्थिक एवं सामाजिक विषमता में बढ़ोतरी और सुस्त पड़ती आर्थिक वृद्धि जैसे ज्वलंत मुद्दों को ही उठाएगा। हाल में कांग्रेस कार्यसमिति के अहमदाबाद संकल्प में इस पर सहमति भी बनी है।

लोकतांत्रिक सहभागिता

मगर ये चुनाव कुछ अलग हैं। इनमें केवल ये मुद्दे ही प्रभावी नहीं, बल्कि यह उनसे भी कहीं बढ़कर है। यह चुनाव हमारे लोकतंत्र के भविष्य और गुणवत्ता को निर्धारित करेगा। यह चुनाव हमारी लोकतांत्रिक सहभागिता के स्तर और उसके समावेशी स्वरूप एवं प्रतिक्रियाशीलता को तय करेगा। इनमें भीड़तंत्र र्की ंहसा का विरोध और गणतंत्र के मूल सिद्धांतों की भी परीक्षा होगी। इसका सरोकार हमारी उस क्षमता से भी है कि क्या हम रोटी और आजादी की बनावटी बहस से ऊपर उठ सकते हैं या नहीं? यह चुनाव राजनीति में नैतिकता को भी तय करेगा वह भी ऐसे अतिवादी दौर में जब जबरन वफादारी और अवास्तविक सहमति का जोर है और राष्ट्रवाद एवं देशभक्ति का तानाबाना बिगाड़ा जा रहा है।

लोकतांत्रिक संस्थान

लोकतांत्रिक संस्थान कमजोर पड़ रहे हैं, विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संकट में है, धार्मिक अधिकारों का बेहद खराब तरीके से उल्लंघन हो रहा है, मानवीय गरिमा पर प्रहार हो रहा है, बहुलतावादी समाज को एक ढर्रे पर चलाने की कोशिश हो रही है, संकीर्णता का दायरा बढ़ रहा है और वंचितों को लगातार हाशिये पर धकेला जा रहा है। आगामी चुनाव में इन सभी पर भी फैसला होना है। सरकारी ढांचे के दायरे में इंसानी तकलीफों को लेकर सरकार की उपेक्षा, मानवीय संबंधों के स्थापित प्रारूप पर चोट और नफरत से जुड़े अपराधों जिनमें पीड़ित को ही प्रताड़ित किया जाना नया दस्तूर बन गया है। ये सभी संकेत दर्शाते हैं कि हमारी राजनीति कितने अतिवादी ध्रुव की ओर जा रही है।

चुनौतियां

यह चुनाव देश के नैतिक केंद्र को पुर्नस्थापित करने का एक अवसर भी है। साथ ही एक वैकल्पिक विमर्श तैयार करने का भी जिसमें ये चुनौतियां समाहित हो जाएं जो जनता से व्यापक आजादी के दायरे में उसे ज्यादा सुख-शांति पहुंचाने का वादा करे। बेहद तल्ख माहौल में होने वाले चुनाव में असल मुद्दों की अनदेखी का जोखिम बना रहता है। उसमें होने वाली तीखी सियासी बयानबाजी सभ्य, शालीन और अनुशासित दायरे में राजनीतिक संवाद की हमारी क्षमताओं को कुंद करती है। इस मोर्चे पर सफलता संतुलन की दिशा में वापसी की राह खोलेगी। इससे हम अवसान की ओर बढ़ रहे लोकतंत्र को बचा सकते हैं।

समन्वय की राजनीति

समन्वय की राजनीति और तार्किक सक्रियता के माध्यम से मध्यमार्ग अपनाने की आवश्यकता स्पष्ट रूप से महसूस हो रही है। बुद्ध के मध्यमार्ग और अरस्तू के आदर्शों में ‘अतिवाद और शिथिलता’ दोनों से बचने के फायदे गिनाए गए हैं। संतुलन के आधुनिक संस्थागत आयाम से हमारा परिचय उन संविधानविदों ने कराया जो मांटेस्क्यू और अन्य विद्वानों से प्रभावित थे। उन्होंने शक्तियों के एक ही निकाय में संकेंद्रण के विचार को खारिज कर आवश्यकतानुसार उसके विभाजन के आधार पर स्थापित साम्य की ही वकालत की है। फिर भी इस बीच के रास्ते के उस स्वाभाविक गुण की परीक्षा शेष है जिसमें लोग अतिवाद की तुलना में कहीं बेहतर ढंग से तालमेल बिठा लेते हैं। यह समझदारी का सबसे मुश्किल सबक है। समझदारी के इसी सबक को फिर से सीखने की जरूरत हो गई है।

भारतीय लोकतंत्र में संतुलन

उम्मीद है कि विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता भारतीय लोकतंत्र में संतुलन की इस राह की आवश्यकता को महसूस करेंगे अन्यथा यह कुछ हिंसक समूहों के भीड़तंत्र तक ही सिमटकर रह जाएगा। यह चुनाव हमें यह भी अवश्य स्मरण कराए कि एक उदार और स्वतंत्र लोकतंत्र समानता एवं न्याय के आधारभूत सिद्धांतों पर ही फलता-फूलता है और यह केवल उसी माहौल में कायम रह सकता है जहां वैचारिक एवं राजनीतिक विरोधियों के साथ निजी दुश्मनों की तरह व्यवहार न किया जाए। अपने लोकतंत्र को सौम्य एवं अनुकूल बनाने के लिए हमें खुद को इस प्रकार शिष्ट बनाने की जरूरत है ताकि सत्ता में बैठा कोई भी शख्स ‘निरंकुश’ न बन सके। चूंकि मानव जीवन स्वयं संतुलन की ओर आकर्षित होता है तब हमें अपनी राजनीति से भी तो सुव्यवस्था और स्थायित्व की अपेक्षा करनी चाहिए।

चुनावी जंग

चुनावी जंग पाकिस्तान के साथ सैन्य तनाव के साये में लड़ी जाएगी। ऐसे उन्मादी माहौल में राष्ट्र की भावना पर सैन्य गौरव के असर से इन्कार नहीं किया जा सकता। निश्चित रूप से इससे लोगों की धारणा प्रभावित होगी। मगर जिस चुनाव पर देश का भविष्य निर्भर हो वह कुछ भावनाओं को भुनाने या देश के अतिवादी ध्रुवीकरण का पड़ाव नहीं बन सकता। इसके बजाय यह भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने का निमित्त बनना चाहिए। एक सौहार्दपूर्ण लोकतंत्र के निर्माण का जिसकी फिलहाल देश को बहुत जरूरत है। यह हमारे लिए ऐसा अवसर है कि हम भीड़ से अलग हटकर उस तथाकथित ताकतवर देश के मोह को तिलांजलि दें जिसमें संकीर्ण राष्ट्रवाद अफीम की तरह इस्तेमाल होता है। हमें साथ मिलकर खुले समाज की अवधारणा को नए सिरे से मजबूत करना होगा। ऐसा तभी हो सकता है जब हम आजादी पर होने वाले आघात और अन्य अनावश्यक दबावों का विरोध करें। कोई भी देश तभी मजबूत हो सकता है जब उसके नागरिक बिना किसी डर के मुश्किल से मुश्किल हालात में पीछे नहीं हटते।

मानवीय गरिमा

देश को यह बात स्वयं को स्मरण कराते रहना चाहिए कि उसके नागरिकों की स्वतंत्रता उनकी समझदारी से ही सुनिश्चित है और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष एक स्थाई क्रांति है जिसके माध्यम से मानवीय गरिमा की धारणा निरंतर रूप से गतिमान रहती है। जो लोग स्वतंत्रता के दायित्व से बंधे हैं उन्हें एकजुट रहकर खुलकर आवाज उठानी चाहिए। जो पार्टियां उत्पीड़न, शोषण और डर से आजादी के आधार पर अपना अभियान चलाकर इस चुनाव को आजादी के एक और संघर्ष का रूप दे रही हैं, उनका विमर्श राष्ट्रवाद के विकृत स्वरूप का जवाब है।

मूल्यों की पुर्नस्थापना

राष्ट्र के विशिष्ट मूल्यों की पुर्नस्थापना के लिए संघर्ष के माध्यम से ही राजनीतिक दल वह विश्वसनीयता हासिल कर सकते हैं कि वे वास्तव में जन प्राथमिकताओं के सच्चे हितैषी हैं। इस लिहाज से 13 मार्च को चेन्नई में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का बयान भरोसा जगाता है जिसमें उन्होंने लोकतांत्रिक संस्थानों पर प्रहार और देश में डर के माहौल को दूर करने की जरूरत बताई थी। वास्तव में यह चुनाव उस ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ की रक्षा के नाम पर लड़ा जाना चाहिए जिसमें स्वतंत्रता का उत्सव मनाया जाता है और फिलहाल उस स्वतंत्रता पर खतरा मंडरा रहा है।

( लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं )