जागरण संपादकीय: एआई के दौर में भाषाई विविधता मिटने का खतरा, मातृभाषा अस्मिता और संस्कृति को गढ़ने का कार्य करती है
इस तकनीक को धारण करने वाले मनुष्य को मनुष्य बना रहना होगा और ऐसा करने में भाषा-साहित्य की इसमें अहम भूमिका होगी। भाषा सिर्फ विचारों को प्रकट करने का तरीका भर नहीं होती है। वह संस्कृति का संवहन भी करती है। ऐसे में स्कूली व्यवस्था को भाषाओं और संस्कृतियों के संरक्षण में विकसित किया जाना चाहिए। 21वीं सदी के भारत में बहुभाषिकता एक विशिष्टता है।
गिरीश्वर मिश्र। भाषाई और सांस्कृतिक विविधता के अंतरराष्ट्रीय उत्सव के रूप में इस बार का मातृभाषा दिवस यूनेस्को का रजत जयंती वर्ष है। इसके पीछे टिकाऊ समाज के निर्माण के लिए विभिन्न भाषाओं के संरक्षण, सहनशीलता और पारस्परिक आदर का संकल्प लिया गया है। अपनी और दूसरों की भाषा को समझना अपनी और दूसरों की संस्कृति को जानने-समझने का मुख्य माध्यम है।
भाषा न रहे तो हम अपनी संस्कृति को अगली पीढ़ी तक ठीक से पहुंचाने में चूक जाएंगे। ऐसे में आज विश्व में प्रचलित विभिन्न भाषाओं को सुरक्षित और संवर्धित करना हमारा विशेष दायित्व है। एक विरल नैसर्गिक शक्ति के रूप में भाषा हमें न केवल ज्ञान-सृजन का अवसर देती है, बल्कि उस ज्ञान को संजोने और दूसरों से साझा करना भी संभव बनाती है। प्रकृति भी इसे समर्थन देती है।
नवजात शिशु की श्रवण शक्ति अद्भुत होती है। वह स्वाभाविक ध्वनि और शोर में फर्क करने लगता है। छह माह होने के पहले ही बच्चे कई भाषाएं सुनते और समझते रहते हैं। तीन वर्ष की आयु में उनका तीन चार भाषाओं से परिचय होता है। दस वर्ष तक यह प्रक्रिया तेजी से चलती है। भारत के बहुभाषिक परिवेश में आगे बढ़ते हैं।
भाषा के सहारे ही हम व्यवहार करते हैं, सोचते हैं, कल्पना करते हैं और उस कल्पना को मूर्त आकार भी देते हैं। आज भारत में लगभग आठ सौ भाषाएं दर्ज हैं। बहुतेरे भारतीय कई भाषाएं बोलते हैं। यह बहुभाषिकता विभिन्न भाषाई समुदायों के बीच न केवल संचार को प्रभावी बनाती है, बल्कि साझा पहचान को सबल करती है। बावजूद इसके विभिन्न भाषाएं अलग-अलग लिपियों का उपयोग करती हैं।
इनमें से कई लिपियां एक ही मूल की हैं, जैसे ब्राह्मी लिपि। भाषाओं की बहुलता समृद्धि का स्रोत है, जो हजारों वर्षों के प्रवास, परस्पर क्रिया और विभिन्न समूहों के बीच एकीकरण से पली-बढ़ी है। भाषिक विविधता की दृष्टि से भारत आज विश्व में दूसरे नंबर पर है। भारत के संविधान की वर्तमान व्यवस्था में 22 मुख्य भाषाएं तथा छह क्लासिकल भाषाएं (तमिल, संस्कृत, कन्नड़, तेलुगु, मलयालम और उड़िया) सम्मिलित हैं।
देवनागरी में लिखी जाने वाली हिंदी आधिकारिक रूप से राजभाषा है। हालांकि इसके भी अनेक रूप हैं। संविधान में यह विशेष प्रविधान है कि अल्पसंख्यक समुदाय अपनी भाषा लिपि और संस्कृति सुरक्षित रख सकेंगे। इस सबके बीच हमें यह भी स्मरण करना होगा कि मातृभाषा अस्मिता और संस्कृति को गढ़ने का कार्य करती है।
इसी दृष्टि से नई शिक्षा नीति में बहुभाषिकता, लुप्तप्राय भाषाओं का संरक्षण और स्थानीय भाषा में समावेशी शिक्षा जैसे सरोकारों पर खास जोर दिया जा रहा है। हालांकि औपनिवेशिक विरासत के तहत अंग्रेजी के वर्चस्व का सामाजिक जीवन पर विभाजनकारी असर रहा है। इसने भाषाई हीनता को भी जन्म दिया। हिंदी या अन्य भारतीय भाषाएं जब घर की भाषा हैं, तब शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम कई जटिलताएं पैदा कर रहा है। मौलिक सोच और सृजनात्मकता में ऐसे विद्यार्थी पिछड़ रहे हैं। शोध और अनुसंधान की दृष्टि से यह परोपजीवी भाषाई संस्कार घातक सिद्ध हो रहा है।
आज वैश्वीकरण तथा कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी एआई की बढ़त से तमाम चुनौतियां खड़ी हो रही हैं। भविष्य का नजरिया कुछ ऐसा होने जा रहा है कि लोग विभिन्न गैजेटों की सहायता से वह सब कुछ देखेंगे, सुनेंगे और बात करेंगे, जो वैश्विक केंद्र द्वारा मुहैया कराया जाएगा। कुछ सलाह की जरूरत हुई तो बच्चे अब माता-पिता की जगह एलेक्सा या सीरी से पूछेंगे। उनके माता-पिता भी रोबोट से पूछेंगे। भाषा और संचार की प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में माइक्रोसाफ्ट और गूगल जैसे कई दिग्गज किरदार दुनिया की विविधता को मिटाने का भी काम कर रहे हैं।
इसके चलते बच्चे की सृजनात्मक क्षमता, अध्यापकों की श्रेष्ठता आदि सब दांव पर है। इस मनुष्यताविहीन तकनीक में कोई सामान्य बुद्धि या कामनसेंस नहीं होता। उसे मानवीय भावनाओं की भी कोई समझ नहीं होती और न ही गलतियों को सुधारने की गुंजाइश होती है। वस्तुतः उसमें कोई अपवाद संभव ही नहीं होता। मनुष्य की तरह यह सचेतन और संवेदनशील भी नहीं है। इस तकनीक को बहुलता की कोई समझ भी नहीं होती। इसके साथ ही उसमें घटनाओं और परिस्थितियों के संदर्भ को ग्रहण करने सुविधा नहीं होती।
वस्तुतः कृत्रिम बुद्धि मानव सभ्यता की अगली गुत्थी बन रही है। यह भरोसा किया जा रहा है कि सारा का सारा ज्ञान मानव मस्तिष्क के बाहर डाटा के रूप में भंडारित किया जा सकता है। ऐसे में प्रश्न उठेगा कि मनुष्य की जरूरत ही क्या है? मनुष्य को विस्थापित कर जीवन का अर्थ पाना असंभव है। गनीमत है कि मानव मस्तिष्क स्वयं को खुद संचालित और नियमित करता है।
इस तकनीक को धारण करने वाले मनुष्य को मनुष्य बना रहना होगा और ऐसा करने में भाषा-साहित्य की इसमें अहम भूमिका होगी। भाषा सिर्फ विचारों को प्रकट करने का तरीका भर नहीं होती है। वह संस्कृति का संवहन भी करती है। ऐसे में स्कूली व्यवस्था को भाषाओं और संस्कृतियों के संरक्षण में विकसित किया जाना चाहिए। 21वीं सदी के भारत में बहुभाषिकता एक विशिष्टता है। आज आवश्यकता है कि फौरी राजनीतिक हित-अहित को किनारे रख भारत के भविष्य को सुरक्षित करते हुए संतुलित भाषा नीति का कार्यान्वयन किया जाए। भाषा हमारे अस्तित्व का साधन भी है और साध्य भी।
(लेखक शिक्षाविद् हैं)
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