[ संतोष त्रिवेदी ]: हमें झूठे लोग बेहद पसंद हैं। वे बड़े निर्मल-हृदय होते हैं। कभी भी अपने झूठे होने का घमंड नहीं करते। ये तो सच्चे लोग हैं जो अपनी सच्चाई की डींगें मारते फिरते हैं। झूठा अपने झूठे होने का स्वांग नहीं करता। खुलकर और पूरे होशो-हवास में बोलता है। वह ख़ुद इस बात का प्रचार नहीं करता। उसके ‘प्रशंसक’ ही कर देते हैं। कहते हैं सच बोलने के लिए बड़े कलेजे की जरूरत होती है, पर झूठ बोलने के लिए महज एक भेजे की। यह भेजा बिना शोर किए अपने नित्य-कर्म में तल्लीन रहता है।

सच टूटता है और झूठ कायम रहता है

झूठ बोलने वाला बिल्कुल तनाव-रहित होता है। मौका पड़ते ही अतिरिक्त लचीला हो जाता है। सच की तरह उसमें अकड़ नहीं होती। इसीलिए सच टूटता है और झूठ कायम रहता है। कहते हैं कि झूठ के पांव नहीं होते, पर झूठ एक दांव तो हो ही सकता है। जिस तरह झूठ के चलने की संभावना होती है, वैसे ही दांव की भी। चल गया तो चल गया नहीं तो रणनीति तो है ही। झूठ अपने सच होने के लिए संदेह को साथी बनाता है। शायद इसीलिए ‘बेनीफिट ऑफ डॉउट’ सच के बजाय झूठ को मिलता है। वैसे भी सच कड़वा होता है। न उगलते बनता है न निगलते। झूठ बेहद सुविधाजनक होता है। जुबान पर रखते ही मिसरी-सा घुल जाता है। सुनने में भी अच्छा लगता है। झूठ बोलने का लंबा अनुभव होने पर जुबान लड़खड़ाने का खतरा नहीं होता।

झूठ को किसी के समर्थन की दरकार नहीं होती

झूठ को किसी के समर्थन की दरकार नहीं होती। सच जहां सबूत ढूंढता फिरता है, झूठ ख़ुद ही सबूत होता है। झूठ के पास अपनी ताकत होती है। कमजोर आदमी उसे संभाल भी नहीं सकता। सच डरा-सहमा रहता है जबकि झूठ खुलेआम दहाड़ता है। इसीलिए सच को उगलवाने की जरूरत होती है जबकि झूठ को केवल बोलने की। महाबली जो बोलता है, वही सच होता है। झूठ बोलना राजसी लक्षण है। झूठा होना शर्म का नहीं योग्यता का प्रतीक है। यदि आप अपने तईं झूठ भी नहीं बोल सकते तो कतई नाकारा हैं। अगर आप झूठ बोल रहे हैं तो एक बार बोलकर रुकें या ठिठकें नहीं। लगातार बोलते रहें जब तक वह सच के रूप में स्थापित न हो जाए। इससे एक फायदा यह भी होगा कि सच और झूठ के बीच जो बरसों से खाई बनी है, वह टूटेगी। समाज से भेदभाव दूर करने के लिए आप प्रेरणास्नोत बनेंगे।

सच पर भारी झूठ

राजनीति में अपनी भारी सफलता से उत्साहित होकर झूठ ने सिनेमा और साहित्य में भी अपनी स्थायी शाखाएं खोल दी हैं। सिनेमा से जहां एक ‘चिट्ठी’ का रूप धरकर वह क्रांति का बिगुल बजाता है, वहीं भाषा की ‘ग्लानि’ मुंह पर थोपकर वह साहित्य में संवेदना ले आता है। ऐसे में सच कहीं कोने में दुबका हुआ अपने होने की ‘ग्लानि’ को छिपाता फिरता है। यह झूठ के बढ़ते प्रभाव का ही परिचायक है कि वह ‘ग्लानि’ को भी ‘ग्लैमर’ में तब्दील कर देता है। झूठ इतना चमकदार होता है कि सड़क पर छुट्टा घूमते हुए घोड़े भी उसके अस्तबल में जा घुसते हैं।

सच ठिकाने लगा और झूठ के सब जगह ठिकाने

दूसरी तरफ सच बड़ा अकेला और खाली-खाली होता है। इसमें किसी भी तरह की रचनात्मकता की गुंजाइश नहीं होती। सच के साहित्य में प्रवेश करते ही कविता अपठनीय हो जाती है। कहानी उदासी और ऊब पैदा करती है। जबकि झूठ के साथ मनचाहे प्रयोग किए जा सकते हैं। वह कल्पनाशक्ति को विस्तार देता है तथा साहित्य को समृद्ध करता है। झूठ को साहित्य, राजनीति और सिनेमा हर जगह से निकालकर देखिए, इतिहास मिटने की नौबत आ जाएगी। इसीलिए सच ठिकाने लगा है और झूठ के सब जगह ठिकाने हैं। यहां तक कि अब झूठ बोलने पर ‘कौआ’ भी नहीं काटता। उसे भी अपनी जान प्यारी है।

झूठ बोलना एक कला है

अब झूठ बोलना एक कला है। यह सबको आती भी नहीं। हो सकता है जल्द ही इसके ‘अभ्यास केंद्र’ खुल जाएं। वहां पर नई ‘टेक्निक’ पर काम हो। झूठ पर शोध-कर्म किए जाएं। इसके लिए समीक्षाओं और आलोचनाओं के रूप में बहुत बड़ा कच्चा माल हमारे साहित्य में पहले से ही उपलब्ध है। इस तरह साहित्य के ‘बेगारों’ को भी रोजगार की रोशनी दिखेगी और हमारे साहित्यकार ‘चेलों’ से भरपूर होंगे।

पहले झेंपकर झूठ बोला जाता था, अब पूरे सलीके के साथ

झूठ की महिमा में हमने जो कुछ कहा, निरा झूठ है। झूठ इससे कहीं बहुत आगे पहुंच गया है। पहले झेंपकर झूठ बोला जाता था, अब पूरे सलीके के साथ। शायर वसीम बरेलवी ने इसी मौके को ताड़ते हुए कहा है, ‘वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीके से, मैं ऐतबार न करता तो क्या करता!’ आप भी उनके कहे का एतबार क्यों नहीं करते?

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]

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