[शंकर शरण]। अपने देश के सुप्रीम कोर्ट में हिजाब पर सुनवाई के बीच ईरान में शुरू हुआ हिजाब विरोधी आंदोलन सारी दुनिया का ध्यान खींच रहा है। मुस्लिम स्त्रियों के लिए हिजाब, बुर्का आदि इस्लाम के निर्देशों में शामिल हैं। इसीलिए ये संपूर्ण मुस्लिम जगत में मुस्लिम स्त्रियों की पहचान हैं। ईरान में चल रहा हिजाब विरोधी आंदोलन एक तरह से इस्लामी निर्देशों के विरुद्ध है। चूंकि इस्लाम एक अखंड मतवाद है, इसलिए उसकी एक भी मान्यता खारिज करने का मतलब है, संपूर्ण मतवाद पर चोट। यह वैज्ञानिक नियम भी है कि यदि किसी पुस्तक या वक्ता की एक बात भी गलत या अनुपयुक्त साबित हो जाए तो उसकी अन्य बातें भी संदिग्ध हो जाती हैं। इसीलिए दुनिया भर के मौलाना इस्लाम में सुधार को नामंजूर करते हैं, क्योंकि एक भी निर्देश छोड़ने का अर्थ है, इस्लामी निर्देशों को खारिज करने की सैद्धांतिक स्वीकृति।

यदि हिजाब पर अल्लाह की बात अनुपयुक्त मान ली गई तो फिर काफिर, जिहाद, दारुल-हर्ब, बुतपरस्ती, संगीत-विरोध, चित्रकला-विरोध, जजिया, धिम्मी, दत्तक-मनाही जैसी धारणाओं और शरीयत के तमाम निर्देशों को भी व्यर्थ मानने में देर न लगेगी। सभी एक ही आधार पर टिके हुए हैं। दुनिया भर के अनुभव दिखाते हैं कि जहां भी मुसलमानों पर इस्लामी सत्ता का शासन नहीं, वहां अधिकांश मुसलमान इन बातों को अस्वीकार करते हैं-चुपचाप या बोलकर भी। साफ है कि तमाम इस्लामी निर्देश मुसलमानों पर भी जोर-जबरदस्ती ही लागू किए जाते हैं। अभी ईरान में इसी का विरोध हो रहा है। वहां लंबे समय से इस्लामी मतवाद को चुनौती मिलती रही है।

1979 में अयातुल्ला खुमैनी की इस्लामी क्रांति और फिर सारी दुनिया में मुस्लिम उग्रवाद के उभार में वह कुछ दब गया, लेकिन खत्म नहीं हुआ। अनेक शिक्षित ईरानी मानते हैं कि इस्लाम से उनके देश को कोई लाभ न हुआ। ईरानियों में इस्लाम-पूर्व के पारसी पंथ-जरथुस्त्र के प्रति एक सहज या गौरव भाव भी है। इसीलिए अयातुल्ला खुमैनी ने सत्ता में आकर उस पर चोट की थी। जरथुस्त्र पंथियों को प्रताड़ित किया गया। कुछ मारे गए, कइयों को जेल हुई और उनकी नौकरियां चली गईं। उन्हें बड़े सरकारी, सैनिक पदों पर रखना प्रतिबंधित कर दिया गया। इन्हीं कड़ाइयों से अनेक ईरानियों में अपनी प्राचीन सभ्यता के प्रति कौतूहल भी जगा। गोपनीय रूप से मूल पंथ में मतांतरण भी होते रहे।

ईरानी युवा पीढ़ी में एक अंतर्द्वंद्व चल रहा है। बड़ी संख्या में ईरानी युवा इस्लाम को अपना भविष्य नहीं मानते। वे एक बहुलवादी उदार समाज का सपना देख रहे हैं, जहां कोई वैचारिक, मजहबी दमन न हो। यह कोई अपवाद भावना भी नहीं है। ईरान के सर्वोच्च वर्ग भी इससे सहानुभूति रखते हैं। इसका एक प्रमाण ईरान के पूर्व राष्ट्रपति सैयद मुहम्मद खातमी ने दिया था।

उन्होंने एक बार प्रश्न उठाया था, 'क्या इस्लामी सभ्यता कभी एक बार उदित होकर कुछ सदी पहले अस्त नहीं हुई? क्या किसी सभ्यता के अवसान का यह अर्थ नहीं होता कि अब हम उसकी शिक्षाओं के आधार पर अपने विचार तथा कर्म नहीं गढ़ सकते? क्या यह नियम हमारे इतिहास पर लागू नहीं होता?' सर्वोच्च पद से ऐसे प्रश्न उठाना ही ईरान के चिंतन की पर्याप्त झलक देता है। यह सब खुमैनी की इस्लामी क्रांति के 20 वर्ष बाद कहा गया। इस वक्तव्य में उस क्रांति को व्यर्थ मानने की भी झलक है।

खातमी ने सभ्यता और मजहब में अंतर माना था। उनके शब्दों में, 'यदि इस्लामी सभ्यता का सूरज डूब गया और ऐसा बड़ी-बड़ी उपलब्धियों के बावजूद हुआ तो भी इतना कहा जा सकता है कि मजहब के प्रति एक विशेष काल-अनुकूल दृष्टिकोण का अंत हुआ, स्वयं उसका अंत नहीं हुआ।' खातमी ने मानवीय स्वतंत्रता और मानवता से प्रेम की जरूरत भी बताई थी। ऐसी बातें इस्लामी आलिम, उलेमा मंजूर नहीं करते, जबकि आम हिंदू, बौद्ध या सेक्युलर व्यक्ति इन्हें खुशी-खुशी मानते हैं।

खातमी ने लगभग साफ ही कहा था कि अब नई सभ्यता की तैयारी का समय है और इस्लामी मान्यताओं को छोड़ना पड़ेगा। हालांकि उन्होंने एक बार भी न कुरान और न ही पैगबंर का उल्लेख किया। न किसी बात के लिए उनकी अनुशंसा, उदाहरण देना जरूरी समझा, बल्कि इस्लामी शिक्षाओं को केवल 'तात्कालिक समाज के लिए' उपयुक्त कहकर उसे मनुष्य-निर्मित माना, न कि किसी सर्वज्ञानी अल्लाह की देन। राष्ट्रपति खातमी ईरानियों के बीच कोई अपवाद न थे। उनकी बातों पर कोई हंगामा नहीं हुआ। यह सब कहने के पांच वर्ष बाद तक वह राष्ट्रपति बने रहे।

ईरान में इस समय जोर पकड़ रहे हिजाब विरोधी आंदोलन की इस्लामी मान्यता विरोधी भावना स्पष्ट है। हालांकि विश्व में जिहादी हिंसा की खबरों से लगता है कि इस्लामी मतवाद का दबदबा बढ़ रहा है, किंतु बात उलटी है। तुलनात्मक धर्म-दर्शन के विद्वान कूनराड एल्स्ट के अनुसार, यह दीये के बुझने से पहले की भभक है। मुसलमानों की संख्या भले बढ़ रही हो, किंतु अंदर ही अंदर मुसलमानों में इस्लामी मतवाद के खालीपन की समझ तेजी से बढ़ रही है।

आज मनुष्य की सामान्य आर्थिक, तकनीकी, शैक्षिक, सांस्कृतिक स्थितियां और आवश्यकताएं इतनी बदल चुकी हैं कि सदियों पुराने इस्लामी कायदे उनके साथ ताल मिलाने में असमर्थ हैं। इसीलिए भारत समेत कई देशों में मुस्लिम युवक-युवतियां इस्लाम छोड़कर खुद को 'एक्स मुस्लिम' कह रहे हैं।

सभी विकसित मुस्लिम देश किसी न किसी रूप में इस्लामी बंदिशों से निकलने का मार्ग तलाश रहे हैं। यदि एक भी मुस्लिम देश ने ऐसा कर लिया तो पूरे विश्व में कट्टर इस्लामी मान्यताओं का पराभव स्वतःस्फूर्त हो सकता है। ध्यान रहे तुर्की, जिसे अब तुर्किये कहा जाता है, में ऐसा हो चुका है।

वहां के करिश्माई नेता मुस्तफा कमाल पाशा ने 1924 में खलीफा शासन व्यवस्था खत्म कर शरीयत, सूफियों, दरवेशों, मदरसों, अरबी लिपि और इस्लामी पहनावे तक को देश-निकाला दे दिया था। उन्होंने तुर्की को सेक्युलर यूरोपीय देश बना दिया। इसलिए हालिया इस्लामी उभार कोई स्थायी चीज नहीं। ईरान में चल रहा हिजाब विरोधी आंदोलन इसी का प्रमाण है।

(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)