विचार: आखिरकार जाग उठा भारत, स्वदेशी से ही स्वराज सही अर्थों में स्थापित होगा
भारत देश की जिजीविषा अप्रतिम है। विभिन्न बाधाओं से जूझते हुए आगे बढ़ता भारत स्वायत्त देश है। वह आज किसी अन्य देश के प्रति समर्पित नहीं है। भारत जग रहा है और यह अनुभव कर रहा है कि प्रगति की परिभाषा पश्चिम से उधार लेकर भला नहीं कर सकेगी। पश्चिम जैसा ही बनना भारत की नियति नहीं हो सकता।
गिरीश्वर मिश्र। राधीन रहते हुए भारत ने लगभग आठ सौ वर्ष की लंबी अवधि तक अनेकानेक कष्ट सहे और यातनाएं झेलीं। भारत की पहचान बदलने के लिए न सिर्फ नाम ही बदला गया, पहले हिंदुस्थान फिर इंडिया, बल्कि उसके मानस, संस्थाओं और संस्कार सबको नए सांचे में ढालते रहने की कोशिश जारी रही। तरह-तरह के शोषण द्वारा विदेशी आक्रांताओं ने भारत को विपन्न बनाने की लगातार कोशिश की। अंग्रेजों ने उपनिवेश बनाकर हद ही कर दी।
उन्होंने भारत का भरपूर दोहन किया और शोषण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अपने ही देश में खुद को अस्वीकृत और हाशिए पर भेज कर अप्रासंगिक बनाए जाने की असह्य पीड़ा ने भारतीयों को स्वाधीनता संग्राम के लिए तैयार किया। यह भारत की अदम्य जिजीविषा ही थी जो जननी और जन्मभूमि से जुड़ाव के साथ लगभग सात हजार वर्षों से भारत की सभ्यता को निरंतर प्रवहमान किए हुए थी। इसी क्रम में राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत भारतीयों में अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होकर देश में स्वराज्य स्थापित करने की तीव्र अभिलाषा जगी।
इस दौर में वैश्विक राजनीतिक परिस्थितियों ने भी साथ दिया। कई तरह के राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बीच चले संघर्ष के फलस्वरूप देश को 1947 में अंग्रेजों से राजनीतिक स्वतंत्रता मिली। स्वतंत्रता की प्राप्ति राष्ट्रीय जीवन में एक प्रस्थान बिंदु होना चाहिए था, जहां से स्वदेशी कल्पनाओं वाली संकल्पना वाले भारत का सृजन शुरू होता, पर नियति ऐसी कि स्वतंत्रता भारत को खंडित करके दी गई। विभाजन एक भीषण हिंसक मानवीय त्रासदी बन गया, जिसके प्रत्यक्ष और परोक्ष परिणाम दूरगामी प्रभाव वाले साबित हुए।
स्वतंत्र देश की बागडोर जिन हाथों में सौंपी गई, उनमें जनता ने भलीभांति एक लंबे अर्से तक अविचल निष्ठा के साथ अपना असंदिग्ध भरोसा जताया था। बीता समय साक्षी है कि उनका सोच, योजना और योजना के कार्यान्वयन की राह स्वराज और स्वदेशी के भारतीय सपनों से कदाचित दूर होती गई। हम सर्वोदय के लक्ष्य के ज्यादा करीब नहीं पहुंच सके। कुछ बदलाव जरूर आए और उनके कुछ अच्छे परिणाम भी हुए, परंतु आत्मनिर्भरता, उन्नति और एकजुट होकर देश के कल्याण की कोशिश मद्धम पड़ गई।
उसकी जगह विश्वयारी की बतकही में शामिल होते हुए समग्र भारत की प्रगति का प्रश्न दृष्टि से ओझल होता गया। गरीबी, अस्वास्थ्य, अशिक्षा दूर करने में अधिक प्रगति न हो सकी और सामाजिक मूल्यों का क्षरण बढ़ता गया। आत्मलीन और संकुचित दृष्टि ऐसी पसरी कि देश के युवा प्रधानमंत्री रहे राजीव गांधी को स्वीकार करना पड़ा कि सौ पैसे में से पंद्रह पैसे ही अपने लक्ष्य तक पहुंच कर वास्तविक हितग्राही को मिल पाता है। शेष को बिचौलिये ही डकार जाते हैं। स्थिति यह हो गई कि सरकार को सोना गिरवी रखना पड़ा।
इसके बाद आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ। साथ ही घोटालों और भ्रष्टाचार के मामले भी बढ़े। इस जटिल पृष्ठभूमि में हुए 2014 के लोकसभा के चुनाव बड़े निर्णायक साबित हुए। जनता परिवर्तन चाहती थी और स्पष्ट बहुमत से भाजपा को शासन की जिम्मेदारी सौंपी। तब से लगातार आधार-संरचना, उत्पादन, निवेश और निर्यात आदि विभिन्न मोर्चों पर कमर कसी गई। तकनीकी प्रगति पर जोर दिया गया। योजनाओं का कार्यान्वयन सुनिश्चित करने का प्रयास तेज किया गया। भ्रष्टाचार पर लगाम कसी गई। शिक्षा, कानून आदि के क्षेत्रों में कुछ जमीनी सुधार भी शुरू हुए। बाद के दो चुनावों में भी भाजपा सरकार बनाने में सफल हुई, यद्यपि पिछले चुनाव में समर्थन कुछ कम मिला।
देश ने अमृतकाल की यात्रा शुरू की है। स्वतंत्र भारत 2047 में शताब्दी मनाएगा। नया भारत अपने लिए नए मार्ग बना रहा है। दुर्भाग्य से भारत के पड़ोसी देशों के हालात टूटने बिखरने से अस्थिरता वाले हो गए और लोकतांत्रिक गतिविधियां कमजोर पड़ती गईं और अराजक प्रवृत्तियां जोर पकड़ने लगीं। पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन की सीमाएं सतत चुनौती बनती रहीं और उनकी ओर से घुसपैठ, आतंक और अवांछित सैन्य कारवाई को अंजाम भी दिया जाता रहा है। इसलिए सामरिक तैयारी जरूरी हो रही है।
यह ठीक नहीं कि आंतरिक राजनीतिक परिवेश में तुष्टीकरण का बोलबाला हो रहा है। झूठ और फरेब भी बढ़ा है जिसके चलते अब नेताओं पर भरोसा करना कठिन हो रहा है। लोकतंत्र में क्षेत्रीय, भाषाई, जातीय और दलगत विविधता को संभालना आज एक बड़ी चुनौती सिद्ध हो रही है। ऐसे में धनबल और बाहुबल का असर बढ़ा है और अवांछित लोगों को भी राजनीति में प्रवेश मिलने लगा है। लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं को सुदृढ़ करना ही एकमात्र विकल्प है। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में विशाल जनसंख्या के हिसाब से प्रभावी कदम उठाने होंगे। तभी यह युवा देश उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ सकेगा।
भारत देश की जिजीविषा अप्रतिम है। विभिन्न बाधाओं से जूझते हुए आगे बढ़ता भारत स्वायत्त देश है। वह आज किसी अन्य देश के प्रति समर्पित नहीं है। भारत जग रहा है और यह अनुभव कर रहा है कि प्रगति की परिभाषा पश्चिम से उधार लेकर भला नहीं कर सकेगी। पश्चिम जैसा ही बनना भारत की नियति नहीं हो सकता। इस प्राचीनतम सभ्यता का विशाल लोकतांत्रिक कारवां पश्चिम से पुष्टि नहीं चाहता। गरिमा के साथ स्वावलंबन, स्वायत्त व्यवस्था और गुणवत्तापूर्ण जीवन ही उसका ध्येय हो सकता है। स्वदेशी से ही स्वराज सही अर्थों में स्थापित होगा।
(लेखक पूर्व कुलपति हैं)
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।